गुरुवार, 26 जून 2014

राजेन्द्र यादव के नाम एक पत्र : संदर्भ उदय प्रकाश

दिनांक : 20.05.97

प्रिय राजेन्द्र यादव जी,

हंस के मई ‘97 के संपादकीय में आपकी चिर-परिचित शैली की चपेट मेें उदय प्रकाश की कहानियों का विखंडन काफी उकसाने वाला था। अन्य अनेक लोगों की तरह मैं भी उदय प्रकाश की कहानियों का एक आग्रहशील पाठक रहा हूंं। निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि मैंने उनकी कहानियों को कहानी की तरह पढ़ा है या किसी और तरह। लेकिन हमेशा अर्थ की अनेक गहरी पर्तों में प्रवेश का सुखद अहसास होता रहा। नये रचनाकारों में संभवत: उदय ही अकेले ऐसे दिखाई देते हैं जिनकी रचनाएं एक बार नहीं, अनेक बार पढ़े जाने का दबाव और आग्रह पैदा करती है और हर बार कुछ नये अर्थों के अंतरालों पर प्रकाश डालती है। उनकी कहानियां उपन्यासों की तरह वृहद संदर्भों से भरी दिखाई देती रही है। कहानी की हर पंक्ति में उनकी सजग उपस्थिति हर एक शब्द को अर्थवान बनाती है, रचना के भरपूर कसाव को सुनिश्चित करती है। ऐसे रचनाकार द्वारा प्रयुक्त प्रत्येक शब्द, बिंब, कथन या रूपक को बहस का विषय बनाया जाना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है, क्योंकि उदय रौ में आकर नहीं लिखते कि सिर पर लिखने का भूत सवार हुआ और एक ही रात में घिस मारा। बल्कि लंबे और कठिन प्रयत्नों के साथ विषय और देश-काल के तमाम संदर्भों को टटोल-टटोल कर पूरी बेचैनी और उतने ही इत्मीनान के साथ लिखा करते हैं। इसीलिये आपने जब ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड़’ के अनूठे, सम्मोहक ताने-बाने के मध्य से गाय वंश परंपरा के सांड़ को चुने जाने या हेस्टिंग्स-चोखी प्रणय प्रसंग के संवेदनात्मक उद्देश्य पर सवाल उठाते हुए उसे विश्व-साम्राज्यवाद बनाम् कबीलावाद अर्थात् दीये और तूफान की लड़ाई के रोमांटिक या अनैतिहासिक आत्मवादी सोच के साथ जोड़ कर देखने की पेशकश की तो एकबारगी यह अनावश्यक खींच-तान या थोथे बतंगड़ जैसा प्रतीत नहीं हुआ। इसमें काफी कुछ चौंकाने वाला तथा विचारोत्तेजक सा जान पड़ा। लेकिन जब उदय की कहानियों को पढ़ने के खुद के अनुभवों को आपके प्रश्नों की रोशनी में फिर से टटोलने लगा, तो अंत में विचारोत्तेजना नहीं, बल्कि संपादकीय के सारे उपक्रम में उकसावे का तत्व ही सबसे प्रबल दिखाई देने लगा। उकसावा इसलिये नहीं कि आप कहानी को कहानी नहीं बल्कि किसी और ही रूप में देखना चाहते हैं। इस मामले में तो खुद उदय प्रकाश ने हमेशा कहानी के कथित ‘कहानीपन’ को तोड़ कर ही अपनी कहानियां लिखी है। उकसावा इसलिये लगा कि कहानियों में जो अंत वस्तुत: उदय की कहानियों के प्राक्कथन की तरह हुआ करते हैं, उन्हें ही आप सरीखे रचनाकार, संपादक ने कहानियों का पूरा सार क्यों मान लिया!

‘टेपचू’ हो या ‘तिरिछ’ या ‘रामसजीवन की प्रेमकथा’ या ‘और अंत में प्रार्थना’, या ‘पाल गोमरा का स्कूटर’ - इन सबके नायकों का मरना या विक्षिप्त होना ही क्या इन कहानियों का शिखर या संदेश था? इन सब कहानियों को पढ़ते समय इनके नायकों का अंत मात्र कभी भी कहानियों के उपसंहार की तरह प्रतीत नहीं हुआ।

मेरा सवाल है कि उनकी इन कहानियों के ढांचे पर क्या कोई खास प्रभाव पड़ता यदि उन नायकों के अंत को बिल्कुल शुरू में ही बता दिया गया होता और कहानी का बाकी आख्यान फ्लैशबैक में तैयार होता?
यहां मुझे याद आती है लू शुन की प्रसिद्ध कहानी - ‘आक्यू की सच्ची कहानी’ की। आक्यू का मारा जाना उस लंबी कहानी का एक ‘शानदार पटाक्षेप’ भले ही रहा हो, लेकिन कहानी का मूल मर्म आक्यू की वास्तविक जीवन में लगातार पराजयों और लांक्षणाओं का उसके आत्मिक जगत में विजयों में रूपांतरित हो जाने के अद्भुत मनोविज्ञान के विवरणों में निहित रहा है। कहा जाता है कि चीन में 1911 की क्रांति के कटु यथार्थ ने लू शुन को अपने अतीत के गांव के जीवन के अनुभवों और तथ्यों को खंगालने के लिये प्रेरित किया था। क्रांति के बाद के लगभग 10 सालों तक लू शुन उन्हीं अनुभवों और तथ्यों के अध्ययन में डूबे रहे, जिस पूरे काल में ‘चीनी राष्ट्रीयता’ के सार-मर्म की दुहाई देने वाले असंख्य सिद्धांतों की बाढ़ आई हुई थी। लू शुन उस सैद्धांतिक दलदल में घुसने के बजाय उन तमाम कारणों की तलाश में जुटे गयें जिनके कारण 1911 की क्रांति के बावजूद चीन में सामंतवाद पूरी तरह जड़े जमाए हुए था। उस अध्ययन के बाद ही उनका ‘पागल की डायरी’ से लेकर ‘आक्यू की सच्ची कहानी’ की तरह की श्रेष्ठ रचनाएं तथा अनेक निबंधों को लिखना संभव हो पाया। लू शुन इस निष्कर्ष तक पहुंच पाये कि चीन की प्रगति बिना सामंती नैतिकताओं तथा पुराने आदर्शों से मुक्ति पाये संभव नहीं है। आ क्यू अपनी हर हार को नैतिक स्तर पर जीत मान कर कोई प्रतिरोध नहीं करता - यह उसका निजी मनोविज्ञान नहीं, सामंती नैतिकताओं के संस्कारों से जकड़ी चीन की आम जनता का मनोविज्ञान था। आज चीन की वैचारिक दुनिया में आक्यूवाद एक निश्चित मनावैज्ञानिक श्रेणी का रूप ले चुका है।

कहने का तात्पर्य यह है कि लंबी कहानियों के आक्यू की तरह के शिल्प में या ‘टेपचू’ से लेकर ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड़’ तक की उदय प्रकाश की कहानियों के शिल्प में कहानी का अंत कितना ही रोमांचक, प्रभावोत्पादक या आकर्षक क्यों न हो, कहानी का संवेदनात्मक उद्देश्य उस अंत तक की यात्रा के पीछे के व्यापक सामाजिक-ऐतिहासिक संदर्भों के विवरणों से जाहिर होता है। हिंदी कहानी में उदय प्रकाश का अपना यह एक खास योगदान है जिसमें कहानी उपन्यासों की तरह अपने काल की महा-आख्यात्मक अर्थ-संभावनाओं को लिये होती है।

उदय प्रकाश के लिये आदमी की भौतिक दुनिया और उसका आत्मिक जगत, दोनों ही समान महत्व रखते हैं। सच्चाई हर चरित्र में एक ही रूप में व्यक्त नहीं होती। परिस्थितियों के एक संदर्भ का मजबूत किला, दूसरे संदर्भ के संस्पर्श मात्र से बालू का ढेर साबित होता है और इसीप्रकार एक परिवेश का निरीह गुलाम अन्य परिवेश में पड़ते ही अपराजेय प्रतिरोध की शक्ति का रूप ले लेता है। जो रचनाकार आदमी के आत्मिक जगत के ऐसे तंतुओं को पकड़ने में विफल होते हैं, वे रचना को चरित्र की रोमांचकता से वंचित करके पूरी तरह यांत्रिक बना देते हैं। हड़तालों, जनसंघर्षों से लेकर अनेक ऐतिहासिक नाटकीय घटनाओं को विषय बना कर लिखी गयी रचनाएं भी यथार्थ के साथ चरित्र के द्वंद्वात्मक संबंधों की समग्रता को महत्व न देने के कारण निहायत दस्तावेजमूलक बन कर रह जाती है। घटना की नाटकीयता से अधिक से अधिक पंचतंत्र की कथाओं की तरह का कोई हितोपदेश भले प्रेषित हो जाए, चरित्र के गहरे संधान या उत्खनन से पड़ने वाले प्रभाव को हासिल नहीं किया जा सकता।

उदयप्रकाश अपनी लंबी कहानियों में जीवन के यथार्थ और चरित्र के द्वंद्वात्मक संबंधों की पहचान कराते हैं। ‘टेपचू’ हो या ‘तिरिछ’ या ‘रामसजीवन की प्रेम कहानी’ या ‘पाल गोमरा का स्कूटर’ - ये सब बदलती हुई परिस्थितियों में चरित्र की नैसर्गिकता के अलग-अलग रूपांतरण की कहानियां हैं।  जो टेपचू गांव के प्रतिकूल परिवेश में एक मतभंगू बन कर जी रहा था, वही शहर में मजदूरों के संघर्ष की आंच से प्रतिरोध की शक्ति का अक्षय स्रोत बन गया। ‘तिरिछ’ के जो पिता गांव में अपने परिवार के लिये एक मजबूत किले की तरह थे, अपने संस्कारों और शहर के निर्मम बाबुओं की चपेट में आकर इस प्रकार बौराये कि एक क्षण में उनके चरित्र की गुरु-गंभीर ऊँची बुर्जों वाली अभेद्यता निश्चिन्ह हो गयी। परिस्थितियों की मार से बचने का उनमें जैसे कोई माद्दा ही नहीं रह गया। रामसजीवन विश्वविद्यालय के सर्वाधुनिक कैम्पस में कृषि क्रांति के विचारों की पूंजी भुनाने के चक्कर में आधुनिकता की मृगमरीचिका का शिकार हुआ। ‘और अंत में प्रार्थना’ आर.एस.एस. की तरह के प्रतिक्रियावादी मठों में भी ‘विचारधारा की शुद्धता’ के आग्रही मोहाविष्ट वयस्क की कारुणिक कत्‍​र्तव्य-परायणता का आख्यान है। ‘पाल गोमरा का स्कूटर’ साहित्य की दुनिया में उपभोक्तावाद के पैर पसारने की अनोखी कहानी है जो तथ्य भी है, कल्पना भी, और आज के युग का बखान भी। उपभोक्तावाद की आंधी में पाल गोमरा सरीखा बेचारा कवि उसी प्रकार हतप्रभ ओर अनिर्णय की दशा में है जिसप्रकार आर्थिक उदारतावाद के आज के दौर में आम आदमी। इस लंबी कहानी का अंत उदय ने कुछ भावुक पंक्तियों से किया है - ‘‘जो प्रजातियां लुप्त होरही हैं/यथार्थ मिटाता जा रहा है जिनका अस्तित्व/हो सके तो हम उनकी हत्या में न हो शामिल/ और संभव हो तो संभाल कर रख लें/उनके चित्र .../ये चित्र अतीत के स्मृति चिन्ह हैं...।’’

उदय की इन भावुक पंक्तियों से इतिहास के निष्ठुर फैसले के सामने आदमी के आत्म समर्पण की गंध आती है। पश्चिम की देख-रेख में निर्मित हो रहा यह यथार्थ एक तीव्र सरल रेखीय (linear) काल-प्रवाह में आदमी की किसी पूर्व-घोषित नियति की तरह खुलता जायेगा या अन्य अनेक वर्तुल (circular) काल-प्रवाहों के झटकों से क्षत-विक्षत होकर किसी नये यथार्थ के सह-अस्तित्व और विकास के लिये जमीन छोड़ने पर विवश होगा, इसपर क्या कोई निश्चित राय दे सकता है ?

इतिहास में आर्थिक कारकों का निर्णायक स्वरूप संरचना के अन्य तत्वों से अप्रभावित नहीं रहता। उदय प्रकाश इस सचाई से भली-भांति परिचित है। फिर भी उनकी प्रकृति के विपरीत ‘पाल गोमरा’ की अंतिम काव्य-पंक्तियों मेंं नियति के दंभपूर्ण अभियान के सामने पराजय को स्वीकार लेने के करुण रूदन की ध्वनि आती थी। जबकि, कहानी के विवरण में ‘पाल गोमरा’ के विक्षिप्त भर होने से इस प्रकार की पराजय का कोई संकेत नहीं मिलता, स्कूटर के जरिये उपभोक्ता संस्कृति की गति से जुड़ने की एक तुच्छ कोशिश की विफलता साफ दिखाई देती थी। जाहिर है कि तकनीक के पैशाचिक विस्फोट के आतंक में मनुष्य की प्राणी-संत्ता का उनका संज्ञान इसमें कहीं न कहीं कमजोर पड़ गया था।

इसी पृष्ठभूमि में, ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड़’ मुझे पाल गोमरा के अंत में व्यक्त आदमी की बेबसी और बेचैनी का ही एक रचनात्मक विस्तार की तरह प्रतीत होती है। पाल गोमरा में उदय का संज्ञान जहां डोल गया था, वहीं इस कहानी में वे फिर उसे स्थिर रूप में प्राप्त करते हैं। इसे मनुष्य की प्राणी-सत्ता की तलाश की कहानी कहा जा सकता है।

लातिन अमेरिकी जादूई यथार्थवाद की सारी शक्ति आदमी के भौतिक जगत और आत्मिक जगत, दोनों के ही विस्मयों के द्वंद्वात्मक सह-अस्तित्व को तलवार की धार पर चलने के संतुलन और रोमांच के साथ व्यक्त करने में निहित रही है। गोबर युग से रॉकेट युग, इलेक्ट्रोनिक युग तक के यथार्थ के संशलिष्ट रूपों से निर्मित हो रहे  जीवन को व्यक्त करने की जिस शक्ति का परिचय मारकेस की शैली ने दिया है, वह शैली समूची तीसरी दुनिया के देशों के यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिये कारगर हो सकती है। अभियोग लगाने वाले मारकेस पर भी इतिहास के खिलाफ पिछड़ेपन की पैरवी का आरोप लगाते हैं।

‘भारत में ब्रिटिश राज की भूमिका प्रगतिशील थी या प्रतिक्रियावादी’ - इसपर चले विवाद से भी इस विषय पर रोशनी गिर सकती है। उपनिवेशवादियों के तर्क को आज के भारतीय इतिहासकारों ने ठुकरा दिया है। अंग्रेज ज्ञान-विज्ञान के साथ ही औपनिवेशिक लूट, अत्याचार तथा मुनाफे और शोषण के मूल्य भी लेकर आए थें। भारत से धन की निकासी ने इंगलैंड का औद्योगीकरण किया और भारत को कंगाल बनाया। इसलिये भारत में प्रतिक्रियावादी अंग्रेज थे, उन्हें खदेड़ कर बाहर करने की लड़ाई में लगे राष्ट्रवादी भारतीय नहीं। आज भी पूरे अफ्रीका के भयंकर पिछड़ेपन का प्रमुख कारण साम्राज्यवाद ही है। उपनिवेशवाद के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन एक प्रगतिशील ऐतिहासिक यथार्थ है। इसीलिये भारतीय गाय वंश के सांड़ का वारेन हेस्टिंग्स पर सिंग चलाना किसी कबीलावाद की झंडाबरदारी नहीं, कबीलाई जीवन के अभिशाप से मुक्ति की कोशिश है।

तीसरी दुनिया के यथार्थ की समझ के विकास में विभिन्न आततायी प्रभुओं द्वारा विकृत किये गये और प्रसारित किये गये विचारों की अपनी भूमिका रही है। उपनिवेशवाद ओर नव-उपनिवेशवाद की आर्थिक लूट के साथ ही विचारधारात्मक स्तर पर उनके द्वारा फैलायी गयी विकृतियों के ढांचे में यथार्थ के सैकड़ों पाठों को लिखा जाता रहा है। काल के सरल रेखीय प्रवाह के बजाय वर्तुल प्रवाह की ओर आप जैसे ही ध्यान देंगे, अनेक लोग आपको पोंगापंथी, पुरातनपंथी बताने के लिए उठ खड़े होंगे। माक्‍​र्स ने लिखा था कि ‘‘सभी मृत पीढि़यों की परम्परा जीवित मानव के मस्तिष्क पर एक दु:स्वप्न के समान सवार रहती है। और ठीक ऐसे समय, जब ऐसा लगता है कि वे अपने को तथा अपने इर्द-गिर्द की सभी चीजों को क्रांतिकारी रूप से बदल रहे हैं...वे अतीत के प्रेतों को अपनी सेवा के लिए उत्कंठापूर्वक बुलावा दे बैठते हैं।’’

तात्पर्य यह कि जहां सचेत रूप में मृत पीढि़यों की सेवाओं को वर्तमान के कामों के लिये लिया जा सकता है, तो क्या स्मृतियों में उनके स्थान की कोई स्वतंत्र भूमिका नहीं होती? समय के सीधे विकास और वर्तुल प्रवाह के बीच की अन्तर्क्रिया का संज्ञान उस जादूई यथार्थवाद से ही मुमकिन है, जो क्रमबद्ध और बिना किसी क्रम के काल-प्रवाह के बीच नाना प्रकार के संयोजनों और टकराहटों को व्यक्त कर सकता है। वर्तमान और संभावनाओं से संपृक्त यथार्थ दृष्टि सिर्फ एक जटिल वर्तमान को उद्घाटित ही नहीं करती है, स्वयं उस जटिलता से निर्मित होती है तथा सचाई को देखने का एक नया नजरिया प्रदान करती है। मारकेस के ‘वन हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सालिच्यूड’ का लगभग दो सौ साल का बूढ़ा फ्रांसिस्को गा-गाकर खबरों का प्रसारण किया करता था, जिसके पास आदिम काल का वह बाजा था जिसे सर वाल्टर रेले ने उसे गायना में दिया था। इसीप्रकार उपन्यास की नायिका उर्सुला की क्या उम्र होगी, इसका अंदाज लगाना मुश्किल लगता है। वह कितनी ही पीढि़यों को अपनी नजरों से गुजरती हुई देख चुकी है। यह सब वैसा ही है जैसा 1795 में इंगलैंड में मार डाले गये सांड़ की चर्बी का 1857 में मंगल पांडे द्वारा चलाये गये कारतूसों में पहुंच जाना। 1857 का इसप्रकार 1795 में जाना समय के उस वर्तुल प्रवाह का संकेत है जो कहीं न कहीं विकास के सीधे क्रम को भी साथ लिये हुए है।

क्या आपको उदय प्रकाश की रचनाओं में ऐसा कोई उपक्रम नहीं दिखाई पड़ता? यह कोई इच्छा-स्वप्न नहीं जिसका उपहास भर कर देने से आप यथार्थवादी बन जायेंगे। आदमी के स्वप्नों से इंकार यथार्थ का सिर्फ विकृतिकरण नहीं, उपभोक्तावाद की पैरवी करना है।

हिन्दी में नई कहानी आन्दोलन का एक हिस्सा ‘खाओ, पीओ, मौज करो और मर जाओ’ के इसी स्वप्नविहीन वर्तमान की उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रचारक था। वह आजादी के बाद के आदर्शविहीन मध्यवर्ग की भोग-लिप्सा और कुंठाओं को ही सबसे बड़ा सच माने हुए था। हिन्दी कहानी की इस प्रवृति के एक छोर पर जहां मोहन राकेश को रखा जा सकता है तो वहीं साठोत्तरी काल में उसके दूसरे छोर पर राजकमल चौधरी आएं। जुगुप्सा की हद तक भोग की ठंडी, निष्ठुर लालसा में इन दोनों लेखकों ने तो अपनी जान तक दे दी, लेकिन उस भोगवादी नैतिकता के ही जो अन्य कमजोर चरित्र थे, वे अंतहीन लिप्सा की मरीचिका का पीछा करते-करते अब अंत में थक कर बैठ गये हैं। अपने किये पर पछतावा भी शायद कर रहे हैं।

आपके संपादकीय के बाकी हिस्से में, जिसमें आपने उदय प्रकाश के सरल, निरीह, इनोसेंट लोगों की असहाय मृत्यु के सूत्र से ‘इतिहास का अंत’ के वर्तमान दौर का चित्र खींचते हुए जिसप्रकार के पाप-बोध और पाप-स्वीकार की अनुभूतियों को व्यक्त किया है, वह काफी चौकाने वाला है। आज की मूल्य-विहीन पीढ़ी जो सिर्फ शक्ति की भाषा बोलने और शक्ति की भाषा समझने वाली हिंस्र और आक्रामक पीढ़ी है, वह कैसे और कहां से आयीं - इस सवाल के जवाब में पाप स्वीकारने की आवेशित मुद्रा में आप लिखते हैं कि ‘‘क्या यह सारी पीढ़ी हमारी ही अवैध संतानें नहीं है ? क्या इसे जन्म देने की जिम्मेदारी हमारी ही नहीं है ? क्या यह हमारा ही विस्तार नहीं है जिसे देख कर हमारे हाथ-पांव फूल गये हैं ?’’

हमारा प्रश्न है कि क्या आप हृदय पर हाथ रख कर यह कह सकते हैं कि आपके ‘हम’ में क्या आप अपने ही समकालीन कथाकार भीष्म साहनी, अमरकांत, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, और यहां तक कि निर्मल वर्मा को भी शामिल कर सकते हैं ? नई कहानी की इस दूसरी परंपरा के रचनाकारों को निश्चित रूप से पाप-बोध का ऐसा दंश नहीं सता रहा है। मुर्दा भोग की अनुभूतियों वाली निष्ठुर सम्पृक्तिहीनता की भाषा में मानवीय संवेदनाओं का कोई स्थान नहीं हुआ करता है। इसीलिये अतीत, वर्तमान और भविष्य के सैकड़ों वर्षों में जीने वाले जीवित चरित्रों की बुनावट को यह दृष्टि भला कैसे स्वीकार कर सकती है !

जरा इन कोणों से भी अपनी आत्म-समीक्षा कीजिये, उदय प्रकाश की रचनाओं का मर्म समझ में आ जायेगा।

आपका
अरुण माहेश्वरी
सीएफ-204, साल्ट लेक,
कलकत्ता - 700 064

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