मंगलवार, 11 नवंबर 2014

‘रंगरसिया’

अरुण माहेश्वरी



आज राजा रविवर्मा के जीवन पर आधारित केतन मेहता की फिल्म ‘रंगरसिया’ देखी। जब मांसलता और अनहद का मेल हो तो उससे उत्पन्न गूंज की मादकता कितनी रंगीन, कामनाओं से लबरेज, कितनी खूबसूरत हो सकती है, इसका एक गहरा अहसास हुआ। पूरी फिल्म के दौरान एक प्रकार की विभोरता छायी रही। धर्म की कूपित कुदृष्टि की छवियां भी उसमें कोई खलल नहीं पैदा कर पायीं।

सचमुच, क्या विडंबना है कि सत्य, शिव और सुंदर के हर योग को धर्म के दुर्वासाओं के कोप से गुजरना ही पड़ता है। लेकिन मजे की बात यह है कि हर बार धर्म संस्थान की दशा किसी विदूषक से कम दयनीय नहीं होती। ‘रंगरसिया’ में भी यही हुआ। रविवर्मा एक साधारण स्त्री को देवी बनाते हैं और धर्म के ठेकेदार उसे वैश्या। कला सुन्दरता की सृष्टि करती है और धर्म कुरूपता और कलुष की। इन खलनायकों के पास अंत में सिवाय शारीरिक हमलें करने के और कुछ बचा नहीं रह जाता।

रवि वर्मा ने देवी देवताओं के चित्र बनाएं और छापेखाने के जरिये उन्हें घर-घर तक पहुंचाया। जो देवता मंदिरों में कैद थे उन्हें हर गली-नुक्कड़ तक फैला दिया। उनसे जुड़ी कथाओं को चाक्षुस करके उन पर मुट्ठी भर पंडों-पुजारियों की इजारेदारी को तोड़ डाला।

देवताओं को किसी वैरागी ने नहीं, सौन्दर्य के उपासक, कामनाओं के धनी एक कलाकार ने मुक्त किया। दो दिन पहले ही एक पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए हमने गम की खुशी के महान शायर गालिब के इस शेर को याद किया था :

नफस न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खेंच
अगर शराब नहीं, इन्तिजार-ए-सागर खेंच।

वे कहते हैं, अंजुमन-ए-आरजू अर्थात कामनाओं की महफिल के बाहर सांस लेना भी हराम है। कामनाएं गालिब का गौरव थी। रविवर्मा का और किसी भी सच्चे कलाकार का गौरव है। एक ऐसे गर्वोन्नत चरित्र को रणदीप हूडा ने इस फिल्म में जिस तरह जीया है और केतन मेहता ने पूरी फिल्म को रविवर्मा के रंगों में जिस दक्षता के साथ रंगा है; कामनाओं के संगीत के जिन स्वरों से मांसल अनुभवों के अनहद को गूंज दी है, उसकी जितनी सराहना की जाए, कम है। रविवर्मा की देवी सुगंधा स्त्री थी, इसीलिये उसने आत्म-हत्या कर ली, लेकिन उसकी यही पराजय रविवर्मा के जीवन की कहानी का अंग बन कर हर जीवित इंसान को हसरतों के गौरव के अहसास से समृद्ध करती रहेगी। नंदना सेन ने सुगंधा के रूप में आदमी की कामनाओ की अप्सराओं को मूर्त किया है।

रवि वर्मा के कलाकार की आत्मलीनता और इसके चलते उनके सामने आने वाली सामाजिक-नैतिक मुसीबतें अनायास ही कला जगत के बारे में हमें रवीन्द्रनाथ की कही बात की याद दिला देती है। कला का आनंददायी रस-तत्व ‘‘ किसी खास आधुनिक या सनातनी फार्मूले से तैयार नहीं होता। कई बार आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक रूढि़वाद जाग कर रससृष्टिशाला में डिक्टेटरी करने आ जाता है, दण्डधारी बाहर से शासन करता है, ...उनके तकमें जिन लोगों को प्रिय लगते हैं वे रसराज्य के बाहर के लोग है, वे हुजूम वाले हैं... रस की गहन, अभावनीय कही जाने वाली प्रकृति किसी उत्तेजित सामयिकता के कानूनों के अधीन नहीं होती। उसका प्रगट होना या न होना मानव स्वभाव की जिस गहरी विशिष्टता से जुड़ा होता है, उसपर कोई भी स्पष्ट राय नहीं दे सकता। अपनी प्रकृति की गहन सर्जनात्मक प्रेरणा से मनुष्य अपने ही खिलौनों को बनाता और तोड़ता रहता है।’’

बिल्कुल ताजा संदर्भों में देखें तो यह फिल्म मकबूल फिदा हुसैन, उनकी कला-कृतियों और उनके साथ संघ परिवार के लोगों के दुव्‍​र्यवहार के दुखद अनुभवों को जीवित कर देती है।





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें