सोमवार, 16 दिसंबर 2013


अरुण माहेश्वरी

इतिहास में व्यक्ति’ - विमर्श और ज्योति बसु

यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी कि मई 1996 में केंद्र में संयुक्त मोर्चा सरकार के गठन के समय तीसरे मोर्चे की सभी पार्टियां ज्योति बसु को भारत का प्रधानमंत्री बनाने के लिये पूरी तरह से एकमत थी। ज्योति बसु के बारे में वे किसी भी रूप में अनजान रही हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। बसु एक कम्युनिस्ट नेता है, इसे वे अच्छी तरह से जानती थी और इससे जुड़ी दूसरी विशेष बातों का भी उन्हें निश्चित तौर पर पूरा अहसास था। पूंजीवादी राज्य और उसकी भूमिका को लेकर कम्युनिस्टों की अपनी कुछ खास अवधारणाएं रही हैं, जिनके साथ सामान्यत: पूंजीवादी पार्टियों का मेल बैठना मुश्किल होता है। इसके अलावा जो लोग भी सीपीआई(एम) और उसके तब तक के कार्यक्रम से वाकिफ थे, उन्हें सीपीआई(एम) की अपनी भीतरी बाधाओं का भी थोड़ा अहसास था। इन सबके बावजूद, जब यह बात उठी कि उन परिस्थितियों में प्रधानमंत्री पद और सरकार के नेतृत्व के लिये ज्योति बसु से  बेहतर दूसरा कोई विकल्प नहीं हो सकता और तीसरे मोर्चे के सभी दलों की ओर से उस पर जिस प्रकार का दबाव डाला गया, उससे हमारे सामने अन्य बातों के अलावा एक दूसरा महत्वपूर्ण विचारधारात्मक सवाल भी चुनौती बन कर खड़ा होगया कि क्या किसी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी में नेता के व्यक्तित्व की भी अपनी कोई भूमिका होती है? इसने एकबारगी इतिहास और व्यक्ति के संबंधों से जुड़े विश्व राजनीति के समूचे विमर्श को हमारे सामने खड़ा कर दिया।

ज्योति बसु के उस सर्व-सम्मत चयन से उठे सवाल का कि ज्योति बसु क्यों, एक सरल और काफी हद तक सही जवाब यह हो सकता था कि ज्योति बसु के नाम को मिली वह मान्यता दरअसल उस पार्टी को मिली मान्यता थी, जो तब 20 वर्षों से लगातार पश्चिम बंगाल की तरह के भारत के एक औद्योगिक राज्य में सत्ता पर थी तथा भारत के अन्य दो राज्यों, केरल और त्रिपुरा में भी  राजनीति की मुख्यधारा बनी हुई थी। जन-मानस में ज्योति बसु को इसी पार्टी का पर्याय माना जाता है। संयुक्त मोर्चा की पार्टियों के आग्रह के पीछे निश्चित तौर पर यह सच कहीं कहीं जरूर काम कर रहा था।

पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु के नेतृत्व में वाममोर्चे का लगातार दो दशकों से अधिक का शासन सारी दुनिया में संसदीय जनतंत्र के इतिहास की जैसे एक विरल घटना है, उसी प्रकार एक पूंजीवादी राज्य और संविधान के तहत किसी कम्युनिस्ट पार्टी को इतने लंबे काल तक सत्ता में बने रहने देना, वह भले किसी अंग राज्य में ही क्यों हो, दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन के लिये कम विस्मयकारी और महत्वपूर्ण अनुभव नहीं है। इसीप्रकार, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के लगभग पर्याय समझे जाने वाले व्यक्तित्व को देश के पूंजीवादी-सामंती दलों के एक समूह द्वारा देश का सर्वोच्च प्रधानमंत्री का पद सौंपने की पेशकश भी अपने आप में एक अनोखी और अकेली घटना थी। संसदीय जनतंत्र वाले किसी भी संघीय राज्य की केंद्रीय सत्ता में कम्युनिस्टों को शामिल करने की पेशकश के तो और भी कुछ उदाहरण मौजूद है, लेकिन अत्यंत अल्पमत में होने पर भी सरकार की कमान किसी कम्युनिस्ट नेता को सौंपने की कोई दूसरी नजीर नहीं मिलती।
इस अनूठे और अपने किस्म के अकेले घटना-क्रम की तहों में जाने के लिये, बहुत संक्षेप में ही क्यों हो, भारत के आधुनिक राजनीतिक इतिहास और उसमें कम्युनिस्टों की भूमिका पर यहां थोड़ा सा दृष्टिपात करना उपयोगी होगा।
यदि हम भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास को देखें तो पायेंगे कि आजादी के पहले तक का यह इतिहास राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्य शक्ति, राष्ट्रीय कांग्रेस के साथएकता और संघर्षका इतिहास रहा है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष और भारत को आजाद करने के लक्ष्य के प्रति कम्युनिस्ट पार्टी की अटूट निष्ठा ही कांग्रेस के साथ उसकेएकता और संघषके संबंधों का प्रमुख आधार थी। कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के बाद, ब्रिटिश शासन के दमन से बचने के लिये, शुरू के अनेक वर्षों तक कम्युनिस्ट पार्टी के लोग कांग्रेस के अंदर से ही काम किया करते थे। आजादी के बाद, एक अत्यंत छोटे से काल (1948-1950) मेंयह आजादी झूठी हैके नारे और तेलंगाना आंदोलन के साथ व्यापक विद्रोह के जरिये पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता को पलट कर उस पर कब्जा जमाने की लड़ाई के अतिरिक्त, देखा जाए तो, भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन की मुख्य-धारा का लगभग 6 दशकों का इतिहास वास्तव अर्थों में भारत में जनतंत्र और संविधान की रक्षा के लिये संघर्ष का इतिहास ही रहा है।पूंजीवाद के आम पतन के युग में बुर्जुआ द्वारा फेंक दिये गये जनतंत्र के झंडे को उठाने का दायित्व सर्वहारा और उसकी कम्युनिस्ट पार्टी का है’, और क्रांति के चरण के रूप में जनता के जनवाद की पूरी समझ इस काल में भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का दिशा-निर्देश करती रही है। आजादी के बाद कांग्रेस दल ने जिस प्रकार से आजादी की लड़ाई की प्रतिश्रुतियों को ठुकराया, उस पृष्ठभूमि में संविधान की रक्षा का संघर्ष और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। कांग्रेस ने जमींदारी उन्मूलन के वादे से दगा की, भाषाई राष्ट्रीयताओं को स्वीकारने में हिचकिचाहट दिखाई, राज्य के संघीय ढांचे को कभी भी समुचित रूप में विकसित नहीं होने दिया, अर्थ-व्यवस्था में साम्राज्यवादी पैठ को कायम रखा और इसप्रकार स्वतंत्रता के आधार को कमजोर किया। यहां तक कि राज्य के धर्म-निरपेक्ष चरित्र और जनतांत्रिक संस्थाओं को भी कमजोर करने में प्रत्यक्ष भूमिका अदा की। सर्वोपरि, एक लंबे काल तक एकदलीय तानाशाही का रूझान कांग्रेस के चरित्र का अभिन्न हिस्सा बना रहा।
और भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कांग्रेस दल और उसकी सरकार के सर्वसत्तावादी और तानाशाहीपूर्ण रूझानों का सबसे अधिक और प्रत्यक्ष शिकार भारत के प्रमुख दलों में कम्युनिस्ट पार्टी, उसमें भी खास तौर पर सीपीआई(एम) को बनना पड़ा है। कम्युनिस्ट पार्टी पर पाबंदी, केरल में ईमएस की पहली सरकार को जनतंत्र-विरोधी साजिशों के जरिये गिराये जाने से लेकर कभी चीन का, तो कभी पाकिस्तान का जासूस बता कर कम्युनिस्ट नेताओं को वर्षों जेल में बंद रखने, और ‘67 से ‘77 के पूरे काल में पश्चिम बंगाल में खेला गया केंद्रीय ाड़यंत्रों, राज्यपाल के पद के दुरुपयोग और हत्या की राजनीति का पूरा खेल, पुन: त्रिपुरा में अलगाववादियों के साथ मिल कर कम्युनिस्टों को सत्ता से हटाने की घिनौनी साजिशों का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। सन् ‘75 के आंतरिक आपातकाल को पश्चिम बंगाल में ‘72 से ‘77 तक अद्‍​र्ध-फासिस्ट शासन की श्रंखला की ही आगे की कड़ी कहा जा सकता है।
इन तमाम प्रतिकूलताओं से लंबे संघर्ष का ही परिणाम है कि पूंजीवादी संसदीय जनतंत्र को अपना अंतिम लक्ष्य मानने के बावजूद सीपीआई(एम) काल क्रम में भारत में संसदीय जनतंत्र और भारतीय संविधान के मूलाधाराेंं की रक्षा के लिये संघर्ष की एक प्रमुख पार्टी बन गयी। सीपीआई(एम) की इसजनतंत्र-रक्षकनयी लोकप्रिय छवि ने बहुतेरेक्रांतिकारियोंको कितना ही बेचैन और विस्मित क्यों किया हो, भारतीय राजनीति में सीपीआई(एम) का यह नया अवतार काफी तात्पर्यपूर्ण रहा है और विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन के लिये निश्चित तौर पर एक नया अनुभव कहा जा सकता है। कहना होगा कि जब मई ‘96 में ज्योति बसु को भारत के प्रधानमंत्री पद की जबर्दस्त पेशकश की गयी थी, तब उसकी पृष्ठभूमि में इस राजनीतिक सच, और ज्योति बसु के रूप में उसके मूर्त व्यक्तित्व की निश्चित तौर पर निर्णायक भूमिका थी।
बहरहाल, मई ‘96 की उस पेशकश को सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी ने ही नहीं स्वीकारा। इस पर केंद्रीय कमेटी में काफी बहस हुई और मतदान के जरिये उस पेशकश को ठुकरा देने का फैसला किया गया। यहां उस फैसले पर किसी प्रकार की टिप्पणी करना उचित नहीं होगा। गंभीर विमर्श के दौरान निश्चित तौर पर इसके सभी राजनीतिक-सांगठनिक पक्षों को, लाभ-नुकसान के हिसाब को देखा गया होगा।
तथापि, बाहर में जो चर्चाएं चली, उसमें जो तर्क सुनाई दिये, उनमें मुख्य तर्क यह था कि संसद का गणित सीपीआई(एम) के अनुकूल नहीं था; ऐसी अवस्था में वह सरकार या तो चल नहीं सकती थी, या वह पूंजीवादी-सामंती दलों के हाथ का खिलौना, एक स्टूज गवर्नमेंट भर होती जो बुर्जुआ के इशारों पर चलते हुए उसी के कार्यक्रम पर अमल करने के अलावा विशेष कुछ नहीं कर सकती थी। इसके अलावा कांग्रेस दल पर उस सरकार की निर्भरशीलता ने सबको और ज्यादा शंकित कर रखा था। कांग्रेस दल का अतीत, और खास तौर पर सीपीआई(एम) के साथ उसके संबंधों का सच कोई भूल नहीं पा रहा था। निश्चित तौर पर सीपीआई(एम) के भीतर का एक तबका पुस्तक की, अर्थात सीपीआई(एम) के तब तक स्वीकृत संविधान की बाधाओं से भी चालित था। उस काल में पार्टी कार्यक्रम की धारा 112 पर हुई भारी चर्चा को इसका प्रमाण कहा जा सकता है।
इन सब बातों के अतिरिक्त सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न देश की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति के विश्लेषण का भी था जिसे यहां विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है। सन् ‘91 से ‘96 तक अल्पमत की सरकार चलाने के बाद ‘96 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई थी और लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने 13 दिनों की सरकार बनायी, जो संसद में बहुमत साबित कर पाने के कारण गिर गयी। तभी कांग्रेस के सहयोग से तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने का सवाल उठा था। इसमें सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती देश की सर्वोच्च सत्ता पर सांप्रदायिक ताकतों के काबिज होने को रोकने की, साहसपूर्वक देश की राजनीति के एजेंडे को बदल कर उसे सांप्रदायिकता और जातिवाद के दलदल से निकालने की भी थी।
उस समय दिल्ली और अलीगढ़ के कई ख्यातनाम बुद्धिजीवियों ने एक ज्ञापन देकर सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी से कहा था कि  सीपीआई(एम) के नेतृत्व में वामपंथी ताकतों को सिर्फ भाजपा को सत्ता से बाहर रखना ही नहीं, बल्कि उससे भी अधिक महत्वपूर्ण, भाजपा की हाल की सफलताओं के कारणों को दूर करने की एक जरूरी भूमिका अदा करना होगा। आज आम जनता को राहत देने के सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम के बारे में उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता और इच्छा को अमल में लाने की जरूरत है, ताकि उदासीनता और नकारात्मकता के वातारण से उबरा जा सके और जनता कोघोटालोंतथारथयात्राओंके युग से अंतिम रूप में मुक्ति पाने के लिये उत्साहित किया जा सके। जरूरत है एक नयी शुरूआत के लिये दृढ़ पहलकदमी की, तथा वामपंथ यह कर सकता है।
और उनका जवाब देते हुए प्रो.एजाज अहमद नेइकानामिक एंड पॉलिटिकल वीकलीके 1 जून 1996 के अंक में एक लेख लिखा: ‘इन आई आफ स्टार्म लेफ्ट चूजेज अपने इस लंबे लेख में प्रो. अहमद ने ज्योति बसु को रॉबिन हुड समझने के पार्टी के फैसले का समर्थन करते हुए केंद्रीय सत्ता पर भाजपा के आने मात्र से फासीवाद के अवतरण की आशंका को कोरा बतंगड़ बताया था। प्रधानमंत्री बने ज्योति बसु की नियति की तुलना उन्होंने ऐसे सितारे से की जो चमक की एक कौंध दिखा कर टूट कर शून्य में विलीन हो जाता है। वह सरकार बुर्जुआ के हाथ की कठपुतली होती, इसे और मूर्त रूप में बताते हुए प्रो. अहमद ने लिखा कि जब चिदंबरम की तरह के व्यक्ति वित्त मंत्रालय संभालते, और लालू-मुलायम जैसे संगी-साथी होते, तब किसी जन-हितकारी कार्यक्रम पर अमल करना अथवा धांधलियों की कालिख से बच पाना असंभव होता।संवैधानिक राज्यके संकट औरसत्ता हथियाने पर उतारू विद्रोही मजदूर वर्गकी अनुपस्थिति में फासीवाद के आगमन की आशंका को उन्होंने कोरी कल्पना की उपज बताया और ग्राम्शी का उद्धरण देते हुए लिखा कि ऐसी परिस्थिति में लगातार पराजयों से थके व्यक्ति को इतिहास का विवेक नहीं, इतिहास से समर्थित होने की आस्था संचालित करने लगती है और आस्था से चालित आदमी उतावलेपन में मरने-मारने पर उतारू हो जाता है।
प्रो. अहमद ने अपने लेख में इटली के 1976 के चुनाव का उदाहरण दिया जिसमें वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ने चुनाव मे जीत के आसार को देखकर देश भर में इस नारे के साथ प्रचार चलाया कि  हमें दो तिहाई बहुमत दो, अन्यथा हम सरकार नहीं बनायेंगे। इसके पीछे उनका तर्क यह था कि बिना दो-तिहाई बहुमत के वे लंबे काल तक सरकार नहीं चला पायेंगे और इसीलिये कोई वास्तविक परिवर्तन लाने में भी सफल नहीं होंगे।

जाहिर है कि प्रो.अहमद की दलील थी कि भारत के कम्युनिस्टों ने भी इसी प्रकार के यथार्थबोध का परिचय दिया और अपने को निश्चित बदनामी या प्रतिक्रांतिकारी विद्रोह में मारे जाने की नियति से बचा लिया।

जो भी हो, इतिहास के पूरे क्रम का कभी भी कोई पहले से पूरी निश्चयात्मकता के साथ बयान नहीं कर सकता। चूंकि इतिहास खुद को हूबहू दोहराता नहीं है, इसलिये ऐतिहासिक दृष्टांत भी पूरी तरह से विश्वसनीय निदेशक नहीं हो सकते। एक स्थिति किसी भी शक्ति के राजसत्ता तक जाने के पहले की होती है, और एक स्थिति राजसत्ता हासिल कर लेने के बाद होती है। राजसत्ता की तमाम प्रकार की सांस्थानिक बाधाओं के बावजूद, जैसे फासिस्ट ताकतें अपनी शक्ति के विस्तार के लिये उसके भरपूर प्रयोग का रास्ता निकाल लेती है, वैसी ही संभावनाएं क्रांतिकारी ताकतों के लिये भी बनी रहती है। प्रतिद्वंद्विता के जरिये विकास की पूरी अवधारणा के ग्राम्शी के प्रभुत्ववादी सिद्धांत में जोखिम उठा कर विशेष ऐतिहासिक अवसरों का इस्तेमाल करने की साहसपूर्ण क्रांतिकारी कार्यनीति का कोई स्थान नहीं है। इस रास्ते पर यदि चला गया होता तो रूस की नवंबर क्रांति कभी भी संभव नहीं होती।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से पश्चिमी यूरोप की कम्युनिस्ट पार्टियांप्रभुत्व हासिल करनेके इसी मंत्र को साध रही है। कोरिया, क्यूबा, वियतनाम में क्रांतियां संपन्न हुई, इंडोनेशिया, चिले, इरान आदि में प्रतिक्रांतियां हुई, लेकिन यूरो-कम्युनिज्म अपनेप्रभुत्व-विस्तारकी आंख-मिचौली का खेल खेलते हुए आराम से साम्राज्यवाद का अंग बना रहा। वहां का मजदूर वर्ग भी नव-उपनिवेशवादी जाल से प्राप्त लूट के धन का मामूली अंशीदार बन कर साम्राज्यवाद के साथ किसी तरह निबाह करता रहा।

इसके अलावा जो बात पश्चिमी यूरोप की परिस्थितियों में चल गयी और चल रही है, उसे तीसरी दुनिया के देशों में चलाने का अर्थ व्यापक जनता की पहले से चली रही भंयकर दुर्दशा को स्थायी बनाने के अलावा और कुछ नहीं होगा।आस्था से चालित आदमी के उतावलेपनके समानांतर हीकर्म सिद्धांतका मनोविज्ञान भी क्रांतिकारियों के लिये कम बड़ी चुनौती नहीं है। चीन के प्रसिद्ध कथाकार की विश्व-प्रसिद्ध कहानी क्यू की आत्मकथामें आक्यू का वह मनोविज्ञान जो भौतिक जीवन की लगातार पराजयों को अपनी नैतिक विजयों में तब्दील करके अंत में फांसी के फंदे तक चले जाने की अस्वाभाविक हरकतें कर बैठता है, उसमेंकर्म सिद्धांतका भाग्यवाद और भोला उतावलापन, दोनों के मिश्रण को देखा जा सकता है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने इन आक्यूओं को ही लंबे मार्च में उतार कर उन्हें शोषण के जूएं से मुक्त किया था।

दरअसल, एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न पहलकदमी का होता है। जिस देश में कांशीराम-मायावती, लालू और मुलायम सिंह सरीखे नेताओं के पीछे दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के हुजूम चल पड़ते हैं; जहां की 30 प्रतिशत आबादी गरीबी की सीमा-रेखा के नीचे वास करती है तथा जहां दुनिया के सबसे ज्यादा निरक्षर और कुपोषित जन वास करते हैं, वहां वेस्ट मिनिस्टर संसदीय व्यवस्था के मानदंडों से तमाम राजनीतिक निर्णयों को मापना; यहां के अनुुभवों की तुलना इटली और पुर्तगाल की कम्युनिस्ट पार्टियों के द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद के काल के निर्णयों से करना, भारत के क्रांतिकारी आंदोलन में संसद के अंदर और बाहर के संघर्षों के बीच कें संबंधों की समझ को पूरी तरह से - करने के अलावा और कहीं नहीं ले जायेगा।

इस बात को समझने के लिये एक विपरीत उदाहरण काफी मददगार हो सकता है। यह भारत की तरह के देश में ही मुमकिन है कि संसद, अदालत और तमाम वैधानिक संस्थाओं की नग्न अवहेलना करते हुए यहां 400 वर्ष पुरानी बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया। कई अर्थों में भारतीय समाज का यथार्थ एक उबलता हुआ यथार्थ है। इसमेंप्रभुत्व-विकासकी बारीकियों को कातना किनारे बैठ कर नजारा भर देखने वालेसंसदवादको पालने-पोसने के अलावा और कहीं नहीं ले जा सकता। भारत की तरह के अनगिनत विरोधाभासों से घिरे समाज को बदलने की लड़ाई में साहसपूर्ण नेतृत्व और क्रांतिकारी जोखिम की बड़ी भूमिका हो सकती है।

हम सभी जानते हैं कि सीपीआई(एम) ने अपनी परवर्ती कोलकाता कांग्रेस में और बाद में त्रिवेंद्रम के विशेष सम्मेलन में पार्टी के कार्यक्रम को अद्यतन बना कर केंद्रीय सरकार के मसले पर निर्णय लेने में पुस्तक की बाधा से खुद को मुक्त कर लिया और भविष्य में परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण और निर्णय के लिये कहीं ज्यादा लचीलेपन की स्थिति तैयार कर ली। इसके साथ ही सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ संघर्ष में सहयोगियों के चयन के बारे में भी समझ को और साफ किया गया। लेकिन, पार्टी के सन् 96 के फैसले के बाद ज्योति बसु ने जो कहा किबस छूट गयी है’, वह हवा में ऐसे कई प्रश्नों को छोड़ गया है, जिन पर आगे भी हमेशा विचार-विमर्श जारी रहेगा।

इनमें से ही एक मूलभूत प्रश्न इतिहास और उसमें व्यक्ति की भूमिका के बारे में भी बनता है। क्या यह भूमिका इतनी सरल-रेखीय और एकतरफा होती है कि इतिहास का हर मुकाम अपने व्यक्तित्वों का निर्माण कर लिया करता है। वरंच, इतिहास और व्यक्ति का संबंध भी द्वंद्वात्मक होता है और व्यक्ति कई परिघटनाओं (Phenomenon) के समुच्चय के रूप में विकासमान ऐतिहासिक प्रक्रिया की किसी एक प्रमुख परिघटना का पर्याय या प्रतीक बन कर समूचे इतिहास को नयी दिशा में निर्देशित करने का महत्वपूर्ण कारक बन जाता है।

इसके अलावा, जैसे हम विश्व इतिहास की पूरी प्रक्रिया के अंतर्विरोधों और उनमें सबसे प्रमुख और सबसे गौण अंतर्विरोधों का विश्लेषण कर अपने तात्कालिक और दूरगामी राष्ट्रीय कामों को निर्धारित करते हैं, ठीक वैसे ही क्या किसी राष्ट्र विशेष के इतिहास के अंतर्विरोधों में प्रमुखता और गौणता का तर्क लागू नहीं होता है ? अगर ऐसा नहीं होता क्रांति के अलग-अलग चरणों की बात करना ही निरर्थक होता। अंतर्विरोधों की यह प्रमुखता और गौणता ऐतिहासिक प्रक्रिया की अलग-अलग परिघटनाओं और चरणों, दूसरे शब्दों में कहे तो निर्मितियों, का कारक बनती है। इसीलिए सदा क्रांति के अंतिम लक्ष्य की कसौटी पर प्रत्येक परिघटना में क्रांतिकारी पार्टी की भूमिका को तय नहीं किया जा सकता है। किसी निश्चित और सीमित लक्ष्य की कार्यनीति को मूलभूत क्रांतिकारी रूपांतरण या वर्गीय शासन के प्रति दृष्टिकोण के आधार पर हमेशा स्वीकृत अथवा खारिज नहीं किया जा सकता है।बुर्जुआ के स्टूजका तर्क संप्रदायिक फासीवाद या एकदलीय तानाशाही के खिलाफ संघर्ष के कार्यक्रम पर लागू नहीं किया जा सकता है, वैसी स्थिति में तो और भी नहीं जब हमारी क्रांति के चरण के रूप में जनता की जनवादी क्रांति के चरण की बात कही जा रही है, जिसके सतरंगे संगी-साथियों में एक निश्चित स्थान राष्ट्रीय बुर्जुआ का भी माना गया है।

इस बात को ठोस उदाहरण के जरिये समझने के लिये हम इंदिरा गांधी की एकदलीय तानाशाही और आंतरिक आपातकाल के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व के आंदोलन के प्रति सीपीआई(एम) के दृष्टिकोण को ले सकते हैं। उस आंदोलन में जनसंघ वालों के शामिल होने के बावजूद, सीपीआई(एम) ने उसमें शामिल होने से किसी प्रकार का परहेज नहीं किया। पुन:, 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार को वामपंथियों और भाजपा, दोनों का बाहर से समर्थन मिला हुआ था। इसका अर्थ यह कदापि नहीं था कि किसी भी चरण में सीपीआई(एम) ने भाजपा के सांप्रदायिक फासीवाद के साथ कोई समझौता किया हो, अथवा उसे समझने में भूल की हो। यह सब एक खास राजनीतिक परिघटना के अपने सीमित लक्ष्यों को साधने की कार्यनीति का हिस्सा था, जिसे बिना साधे आगे की किसी रणनीति के बारे में सोचा नहीं जा सकता था।

यह सही है कि ’96 के वक्त संयुक्त मोर्चा की पार्टियों ने संयुक्त मोर्चा सरकार को नेतृत्व देने के लिये सीपीआई(एम) को नहीं, ज्योति बसु को न्यौंता था। लेकिन उपरोक्त चर्चा से ही यह साफ है कि ज्योति बसु सिर्फ व्यक्ति नहीं, भारत में जनतंत्र की रक्षा और विस्तार के लिए संघर्ष की उस पूरी परिघटना के प्रतिनिधि थे जिसमें सीपीआई(एम) की भी एक नेतृत्वकारी भूमिका रही है। इन परिस्थितियों में व्यक्ति को प्रमुखता दी गयी या पार्टी को, यह प्रश्न गौण हो जाता है। तात्कालिक लक्ष्य ही यदि संसदीय जनतंत्र की रक्षा हो तो वह व्यक्ति के जरिये पूरा हो, अथवा पार्टी के जरिये, संसदीय जनतंत्र के अलावा दूसरे मानदंडों पर इस लक्ष्य की कार्यनीति को नहीं परखा जा सकता है।

दरअसल, ऐसे मौकों पर कुछ चूक इतिहास में व्यक्तित्वों की भूमिका की एक बहुत साफ समझ के अभाव से भी हो जाती है। 18वीं सदी के राजनीतिक चिंतक जबकिशोर राजकुमारकी शिक्षा-दीक्षा के बारे में शोध-प्रबंध लिखते थे, तो वह इतिहास को समझने के लिहाज से अकारण या निरर्थक नहीं होता था। माक्‍​र्सवाद ने इतिहास में व्यक्ति की भूमिका के बारे में अतिरंजनाओं को अस्वीकारा, लेकिन माक्‍​र्स ने हीफ्रांस में वर्ग संघर्ष (1848 से 1850 तक), ‘लुई बोनापार्ट की 18वीं ब्रुमेरमें, तथा एंगेल्स नेइतिहास में बल प्रयोग की भूमिकामें बिस्मार्क के बारे में और लेनिन ने स्तोलीपिन और केरेंस्की की नीतियों की चर्चा करते वक्त उन चरित्रों की व्यक्तिगत विशिष्टताओं का जितना बारीकी से अध्ययन किया, वह भी अकारण नहीं था। इन अध्ययनों से इतिहास का प्रवाह उतना ही ंरूपायित हुआ था, जितना कि इतिहास के प्रवाह के अध्ययन से उसमें व्यक्तियों की भूमिका प्रकाशित होती है। और तो और, लेनिन ने अपने आखिरी दिनों मेंकांग्रेस के नाम पत्रवाले कुछ बहुचर्चित दस्तावेजों में स्टालिन और ट्राटस्की के व्यक्तिगत गुण-दोषों पर जो टिप्पणी की थी, वह क्या समाजवादी क्रांति के राजनेताओं के गुणों और विशिष्टताओं के अध्ययन की समस्या का परिप्रेक्ष्य पेश नहीं करती?
प्लेखानोव ने अपने प्रसिद्ध प्रबंध इतिहास में व्यक्ति की भूमिका के प्रश्न के बारे मेंं में व्यक्ति के संदर्भ में इतिहास की भौतिकवादी अवधारणाओं पर विस्तार से चर्चा करते हुए लिखा है कि  परिस्थितियों के क्रम पर गहरा असर डालने के लिये विशेष प्रतिभा वाले व्यक्ति को दो शर्तों को पूरा करना जरूरी होता है। पहली शर्त यह कि उस प्रतिभा को खुद को दूसरे किसी भी व्यक्ति की तुलना में एक निश्चित युग की सामाजिक जरूरतों के अनुरूप बनाना होगा : नेपोलियन में उसकी सामरिक प्रतिभा के बजाय बिथोभेन की तरह का संगीत का गुण होता, तो वह कभी भी सम्राट नहीं बन पाता। दूसरा, वर्तमान सामाजिक व्यवस्था उस व्यक्ति को उस विशेष काल के लिये जरूरी प्रतिभा और उपयोगिता हासिल करने के रास्ते में बाधक बने। वही नेपोलियन एक जीर्ण-शीर्ण जनरल या कर्नल बोनापार्ट बन कर मर गया होता यदि फ्रांस में पुरानी व्यवस्था और 75 वर्षों तक कायम रह गयी होती। (George Plekhanov, Selected Philosophical Works, Vol. 4, Page- 309)

कहने का तात्पर्य यह है कि ‘96 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश मात्र किसी एक व्यक्ति या प्रतिभा को मिली स्वीकृति नहीं थी, वह एक समय विशेष की सामाजिक जरूरतों और उसमें सबसे अधिक उपयुक्त साबित होने लायक व्यक्ति और उसके पीछे की पार्टी को स्वीकृति थी। वह काम देवगौड़ा अथवा गुजराल की तरह के बेपेंदी के व्यक्तित्वों से मुमकिन नहीं था, जिनके साथ कांग्रेस को किसी भी प्रकार का खेल खेलने में रत्ती भर भी चिंता नहीं हुई, क्योंकि उनकी या उनकी पार्टियों की ओर से भविष्य में भी कभी कांग्रेस को किसी प्रकार की चुनौती मिलने की कोई संभावना नहीं थी।

आज जब ज्योति बसु 90 के आयुवर्ग में है, और वय:जनित कारणों से ही खुद को सभी प्रकार के प्रशासनिक दायित्वों से मुक्त कर चुके हैं, तब बस चली गयी का उनका जुमला विशेष रूप से तात्पर्यपूर्ण जान पड़ता है। 

परिस्थितियां रहे, सेना रहे, फिर भी नेपोलियन की तरह की सामरिक प्रतिभा, जिसे समाज द्वारा स्वीकारने में कोई बाधा हो, रहे, तो कोई सम्राट नहीं बन सकता। नयी परिस्थितियों से पैदा होने वाले नये अवसरों को किसी मीडियोकर लुई बोनापार्ट से भरने के जो त्रासद परिणाम होंगे, इसका कोई भी आसानी से अनुमान लगा सकता है। संभवत: तबआस्था से चालित व्यक्ति का उतावलापनकहीं ज्यादा उजागर होगा।

यह कहना बहुत आसान है कि जहां कोई लेनिन, स्टालिन, माओ या हो ची मिन्ह नहीं होते, वहां सामूहिक नेतृत्व ही कारगर होता है। सच्चाई किंतु यह है कि क्रांतिकारी संघर्ष के किसी भी चरण में क्रांति के महान प्रतिभा-संपन्न जन नेता और सामूहिक नेतृत्व मेंयह नहीं तो वहका फार्मूला काम नहीं आता। दोनो अनिवार्य और प्रतिपूरक होते हैं। इन्हें विकल्पों के रूप में देखना व्यक्ति पूजा या नियतिवादी कठमुल्लापन के दलदल में फंसने के समान हैं।  क्यों नहीं इस पर विचार किया जाता है कि क्रांतियां स्पार्टकस, लिंकन, नेपेलियन, लेनिन, गांधी, माओ, हो ची मिन्ह, फिदेल की तरह की विभूतियों का भी निर्माण करती हैं।

आशा है, ऐतिहासिक भौतिकवाद के दर्शन पर अमल में व्यक्ति की भूमिका के बारे में ज्योति बसु के संदर्भ में की गयी उपरोक्त समूची चर्चा निरर्थक नहीं समझी जायेगी।