बुधवार, 30 अप्रैल 2014

इस डर को क्या नाम दें


अरुण माहेश्वरी

जनसत्ता 30 अप्रैल, 2014 : नरेंद्र मोदी कॉरपोरेट और राजनीति के मेल की उपज हैं। पूंजी की निर्मम ढंग से सेवा के सिवाय इस मेल का न कोई धर्म है न संप्रदाय। हर बीतते दिन के साथ यह बात साफ होती जा रही है। मोदी की अब तक की राजनीति का यही सार-तत्त्व है। भाजपा का पूरा प्रचार, इस पर खर्च किया जा रहा अरबों रुपया, उसके पीछे खड़े भारत के सभी बड़े-बड़े इजारेदार घराने इसी बात के प्रमाण हैं। मोदित्व अर्थात मुसोलिनी का फासीवाद अर्थात कॉरपोरेटवाद।

हिटलर का एक मूल मंत्र था कि सत्ता में आने के लिए समाज के हर तबके से उसकी हर समस्या के समाधान का वादा करो, क्योंकि विजयी से बाद में कभी कोई जवाब मांगने की हिम्मत नहीं करता। वह पार्लियामेंट में गया था बहस करने के लिए नहीं, बहस को ही खत्म कर देने के लिए; संसदीय प्रणाली का सम्मान करने के लिए नहीं, संसद को ही नष्ट कर देने के लिए। उसने युद्ध शुरू करने के पहले अपने सहयोगियों से कहा था-युद्ध के प्रारंभ के लिए मैं एक प्रचारमूलक तर्क तैयार करूंगा। यह कभी मत सोचो कि वह सच है या नहीं, विजेता से बाद में कोई नहीं पूछेगा कि उसने सच कहा था या नहीं। युद्ध छेड़ने और चलाने में ‘सहीपन’ का कोई मतलब नहीं है, सिर्फ जीत का मतलब होता है।

बाहुबलियों द्वारा चुनाव लूटने की सचाई को हम पिछले चालीस सालों से देश के विभिन्न हिस्सों में देखते आए हैं। इस बार धनबलियों ने पूरे देश का चुनाव लूटने की योजना तैयार की है। मोदी की चुनावी सभाओं में कैमरों की मदद से भीड़ को कई गुना बढ़ा कर तो दिखाया ही जाता है, भीड़ का भारी शोर भी पहले से डब किया हुआ होता है। धनबलियों द्वारा लोगों के मतों पर डाका ही फासीवादी कॉरपोरेटवाद है और मोदी उसी के प्रतिनिधि हैं। यह भारत के जनतंत्र को कॉरपोरेट घरानों की खुली चुनौती है।

‘इकोनॉमिस्ट’ पत्रिका के एक ताजा अंक के मुखपृष्ठ पर मोदी की तस्वीर है और यह सवाल किया गया है कि ‘क्या नरेंद्र मोदी को कोई रोक सकता है?’ आगे, अंक में भारत के चुनाव पर दो पन्नों के लेख में इसी सवाल के उत्तर की तलाश की गई है। इस लेख में कांग्रेस सरकार की विफलताओं और उसके शासन में फैले राजनीतिक भ्रष्टाचार का विश्लेषण किया गया है। मोदी के राजनीतिक इतिहास, आरएसएस से उनके संबंध, उनके अंदर भरा हुए मुसलिम-विद्वेष और गुजरात के दंगों के समय उनकी भूमिका का भी उल्लेख है। साफ कहा गया है कि उन दंगों में मोदी के खिलाफ सबूत इसलिए नहीं मिल पाए हैं क्योंकि सबूतों को बाकायदा नष्ट कर दिया गया है।

इन सभी स्थितियों का आकलन करते हुए ‘इकोनॉमिस्ट’ की साफ राय है कि मोदी भारत के समाज में एक भारी विभाजनकारी तत्त्व साबित होंगे। इसीलिए पत्रिका का कहना है कि गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनने के आसार न दिखने के बावजूद ‘हम भारत के लोगों से अपेक्षाकृत कम बुरे विकल्प की सिफारिश करेंगे।’

‘इकोनॉमिस्ट’ का यह भी कहना है कि मोदी में आधुनिकता, ईमानदारी या न्यायप्रियता जैसा कुछ भी नहीं है। भारत को इससे बेहतर मिलना चाहिए। इस लेख में ‘इकोनॉमिस्ट’ ने राजग के घटकों से यह अपील भी की है कि उन्हें मोदी के बजाय किसी दूसरे को अपना प्रधानमंत्री चुनना चाहिए। ‘इकोनॉमिस्ट’ का कहना है कि मोदी प्रधानमंत्री बन सकते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे इसके लायक हैं।

हम भी उन लोगों में नहीं हैं जो कांग्रेस और भाजपा को एक ही तराजू पर तौलते हैं। कांग्रेस का नव-उदारवाद देश की अनेक बीमारियों की जड़ में होने के बावजूद वह अब भी जन-दबावों के सामने खुली है। इसके विपरीत, मोदी के नेतृत्व की भाजपा नव-उदारवादी नीतियों को पूरी निष्ठुरता और निर्दयता के साथ लागू करने वाली पार्टी है। उसने गुजरात में इसका परिचय दिया है। अब तो भारतीय जनता पार्टी अतीत की कोई विस्मृत हो चुकी पार्टी है। जो सामने है, वह तो मोदी-पार्टी है, जिसका लक्ष्य मोदी सरकार का गठन करना है। मोदी के अलावा इसमें दूसरा कोई नेता नहीं है।

विष-बुझे भाषणों के साथ अब मोदी अपने असली रंग में आ गए हैं। गुजरात का झूठ क्या खुला, मोदीजी का विकास का ढकोसला भी बंद हो गया! पहले मोदी की विकास की रट से कुछ लोगों को सुखद आश्चर्य हुआ था। कुछ को लगा कि आगे की राजनीति अब सिर्फ विकास पर होगी। लेकिन यह भ्रम इतना अल्पजीवी साबित होगा, यह कम लोगों ने ही सोचा था!

भाजपा-विरोधी दलों को पाकिस्तान का एजेंट घोषित करने के बाद अब मोदी ने राष्ट्र के संविधान की आधारशिला पर आक्रमण करना शुरू कर दिया है। जम्मू के अपने भाषण में उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध फिर उसी धर्मयुद्ध की हुंकार भरी, जो आरएसएस अपने जन्म के समय से ही करता रहा है। अगर इसी प्रकार चलता रहा तो जल्द ही अपनी वीरता का बखान करते हुए वे 2002 पर अपने गर्व-बोध की घोषणा करेंगे। संघी भाषा में वे उसे गुजरात के विभिन्न इलाकों में मुसलिम-बस्तियों के रूप में मौजूद सभी छोटे-छोटे पाकिस्तानों को उजाड़ने को महान ‘देशभक्तिपूर्ण’ काम कहेंगे। उनकी जुबान पर जल्द ही फिर राम जन्मभूमि, काशी, मथुरा की बातें भी आने लगेंगी। आरएसएस के मूलभूत सिद्धांत पर वे हिंदुओं के सैन्यीकरण की, अल्पसंख्यकों को अराष्ट्रीय मानने और उनके साथ तदनुरूप आचरण करने की बात भी करने लगें तो इस पर अचरज नहीं होना चाहिए।

नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से हम जिन खतरों की बात करते हैं, वे अभी से सामने आने लगे हैं। वे अपने असली मंतव्यों को जितना हीछिपाने की कोशिश करते हैं, उतने ही प्रबल रूप में उनका असली चेहरा सामने आ जाता है। आरएसएस की विचारधारा में जो संघ का समर्थक नहीं है, वह हिंदू नहीं है, पाकिस्तान का एजेंट है। नरेंद्र मोदी उसी कट््टरता को दोहरा रहे हैं। इसके पीछे उनका आत्म-विश्वास बोल रहा है या किसी प्रकार की घबराहट है, यह विचार का दूसरा विषय है। किसी भी वजह से क्यों न हो, आज उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों को रुपयों और मालिकों की धौंस के बल पर इतनी बुरी तरह से कस कर रख दिया है कि आडवाणी तक इस माध्यम से गायब हैं। प्रेस और माध्यमों की स्वतंत्रता पर यह हमला आपातकाल के दिनों की यादों को ताजा कर देता है। मोदी हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक बड़ा खतरा हैं।

आरएसएस का कोई संविधान नहीं था। उसे सरदार पटेल ने जबर्दस्ती उस समय गोलवलकर पर दबाव डाल कर तैयार करवाया था, जब गांधीजी की हत्या के बाद गोलवलकर जेल में थे। संविधान न होने का आरएसएस वालों का तर्क होता था कि हिंदू संयुक्त परिवार का भी क्या कोई संविधान होता है! यह तो एक अलिखित, सदियों की परंपराओं से स्वत: निर्मित संविधान है। परिवार के प्रमुख कर्ता की इच्छा सर्वोपरि होती है, उसे कोई चुनौती नहीं दी जा सकती। हास्यास्पद ढंग से वे संघ के अवतरण को ईश्वरीय काम मानते हुए गीता के श्लोक को भी उद्धृत करते थे: ‘यदा यदा हि धर्मस्य...’

भाजपा ने भी अपना मुखिया चुन लिया है। उसकी इच्छा और कथन ही घोषणापत्र है, क्योंकि उसे कभी चुनौती नहीं दी जा सकती है। ऊपर से, मोदी तो साक्षात ईश्वर भी है- हर हर मोदी! महादेव का नया अवतार! फिर कैसा घोषणापत्र, कैसा संविधान!

इमाम बुखारी से सोनिया गांधी की यह अपील कि सेक्युलर वोटों में विभाजन नहीं होना चाहिए, आगामी चुनाव के सारे समीकरणों को बदल देने वाला एक ‘मास्टर स्ट्रोक’ साबित हो सकता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बुखारी के नियंत्रण में कोई वोट है या नहीं। फर्क पड़ता है सोनिया गांधी की इस अपील से। यह मतदाताओं के बड़े हिस्से के मन के तारों को छेड़ सकता है। भाजपा ने नरेंद्र मोदी को सामने लाकर सभी सांप्रदायिक तत्त्वों को इकट्ठा करने का काम शुरू किया था, इसका माकूल जवाब सभी धर्मनिरपेक्ष ताकतों की एकता ही हो सकता है। सोनिया गांधी ने यही आह्वान किया है। जिनको रामदेव जैसे धार्मिक नेताओं का उपयोग करने में जरा भी हिचक नहीं होती, वे इमाम बुखारी से सोनिया गांधी के मिलने और उनसे अपील करने पर इतना भड़क क्यों गए?

धर्मगुरुओं को लेकर हमेशा से राजनीति करने वाले आरएसएस और भाजपा के नेता जब इमाम बुखारी से सोनिया गांधी के मिलने और उनसे निवेदन करने पर भड़कते हैं तो उनका मिथ्याचार देखते बनता है।
सन 2002 में गुजरात में मारे गए हजारों बेकसूर आज भारत के लोगों से इंसाफ  मांग रहे हैं। हमेशा बढ़-चढ़ कर अपनी डींग हांकने वाले नरेंद्र मोदी 2002 का जिक्र आते ही एकदम मौन हो जाते हैं। मोदी की यह सायास चुप्पी क्या कहती है? यह इस बात का संकेत है कि खुदा न खास्ता इस चुनाव में अगर उनको कुछ अधिक सीटें मिल गर्इं तो वे यह खुल कर दावा करेंगे कि भारत के लोगों ने 2002 के जनसंहार पर मोहर लगा दी है।

यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि आगामी चुनाव में भारत में फासीवाद के खिलाफ एक फैसलाकुन लड़ाई होगी। एबीपी न्यूज वाले भाजपा केनेताओं से पूछ रहे थे कि मोदी की कथित लहर रुक क्यों गई है? चुनाव परिणाम बताएंगे कि लहर तो कोरी मीडिया की माया थी, आंख खुलते ही इसे खत्म होना था। भाजपा का दुर्भाग्य यह है कि वह खुद इस माया का शिकार हो गई। अभी से उसके समर्थन में ज्वार के बजाय भाटे का दौर शुरू हो गया है। यह बात सिर्फ नेताओं के आने-जाने की नहीं है, आम समर्थकों के मोहभंग की है ।

मोदी और भाजपा में बढ़ रही स्पर्श-कातरता (एक प्रकार का छुई-मुईपन)- कहीं किसी भी कोने से उनके विरोध का कोई स्वर सुनाई न देने पाए, इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद के सभी उपायों के प्रयोग के प्रति अति-तत्परता- दरअसल जनतंत्र के बुनियादी उसूलों के खिलाफ  है। लेकिन, यही आगामी चुनाव में उनकी पराजय का भी संकेत है।

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

चीन : एक नयी चुनौती


अरुण माहेश्वरी


हम नहीं जानते चीनी विशिष्टता वाले समाजवाद ने दुनिया के वर्तमान समाजवादी आंदोलन को कितना बल पहुंचाया है। इसके तहत चीन का आधुनिकीकरण हुआ है। आज भी वह प्रक्रिया जारी है। जोसेफ स्टिग्लिज जैसे अर्थशास्त्री कहते हैं, दुनिया का भविष्य निर्भर करता है अमेरिका की तकनीकी खोजों और चीन के शहरों पर। आज चीन की 55 प्रतिशत आबादी शहरी होगयी है और अनुमान है कि 2030 तक 70 प्रतिशत हो जायेगी। अर्थात 100 करोड़ लोग शहरों के निवासी हो जायेंगे।

जाहिर है कि इससे वहां की जनता का जीवन मान जरूर सुधरा है। लेकिन साथ ही कई नयी प्रकार की समस्याओं का भी जिक्र किया जा रहा है। इसमें सबसे बड़ी और पहली समस्या बढ़ती हुई सामाजिक विषमता की समस्या है। अभी से यह लातिन अमेरिका के देशों के स्तर तक पहुंच गयी बताते हैं। यही भ्रष्टाचार का भी उत्स है। कानूनी-गैरकानूनी किसी भी प्रकार से इकट्ठा किया गया बेशुमार धन स्वाभाविक गति से ही सुरक्षा की तलाश में देशी-विदेशी अंधेरी गुहाओं तक पहुंच जाता है। विदेशी बैंकें चीन से आने वाले धन से लबालब हो रही है। अतिरिक्त मूल्य की तरंग से पैदा होने वाली अतिरिक्त, फिर भी सदा अतृप्त मौज की तरंगों का सिलसिला।



इसके अलावा, पर्यावरण, शहरी बस्तियों और दूसरे सामाजिक तनावों की समस्याएं तो है ही।

यही है चीन की कम्युनिस्ट पार्टी(सीपीसी) के महासचिव और राज्य के प्रमुख सी जिन पिंग का  ‘चीनी सपना’। 12वीं कांग्रेस का चीन में सर्वत्र गूंजता नारा - ‘चीनी सपना’। शहर के लोगों को संपत्ति के अधिकार दे दिये गये हैं, लेकिन देहात के लोगों की जमीन की लूट अबाध रूप में जारी है। सारी स्थानीय(प्रादेशिक) सरकारों की आय का वही तो प्रमुख स्रोत है। खेती की जमीन डेवलेपरों को सौंप कर धन बंटोरने का सबसे आसान रास्ता, अर्थात, ग्रामीण जनता के दरिद्रीकरण से हो रहा आदिम संचय । फिर भी सी जिन पिंग का कहना है - ‘‘हम गहरे जल के क्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं। अब बाजार की ताकतों को ही निर्णायक भूमिका अदा करने देना होगा।’’

चीन की इस सामाजिक सचाई का हश्र क्या है, कहना मुश्किल है। सालों पहले ग्राम्शी ने सोवियत संघ के समाजवाद के बारे में कहा था कि यह समाजवाद नहीं है - उस अर्थ में तो कत्तई नहीं है जैसा कि समाजवाद की एक सर्वसुखदायी भव्य प्रतिमा से बताया जाता है। ‘‘यह सर्वहारा के नेतृत्व के तहत विकसित हो रहा मानव समाज है।’’ और इसी आधार पर उन्होंने यह आशा व्यक्त की थी कि एक बार यदि सर्वहारा वर्ग संगठित हो जाता है तो सामाजिक जीवन समाजवादी तत्वों से समृद्ध होगा, आज की तुलना में सामाजीकरण की प्रक्रिया तेज और सटीक दिशा में होगी। समाजवाद एक दिन में नहीं आता, यह एक अनवरत प्रक्रिया है, स्वतंत्रता के लक्ष्य की ओर कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया, जो नागरिकों के बहुमत, संगठित सर्वहारा द्वारा नियंत्रित होती है।

समाजवाद अर्थात स्वतंत्रता के लक्ष्य की ओर एक संगठित प्रयत्न। समानता और न्याय इसी स्वतंत्रता के अविभाज्य अंग। सोवियत संघ समस्या में पड़ा क्योंकि सर्वहारा वर्ग को कम्युनिस्ट पार्टी में और पार्टी को नेता के कठपुतलों वाले गिरोह में बदल दिया गया।
आज का चीन संभवत: ऐसी ही किसी प्रक्रिया से गुजर रहा है। कथित तौर पर ‘सर्वहारा के नियंत्रण में मानव समाज के विकास की प्रक्रिया’। लोग कहते हैं, चीन उन गल्तियों को नहीं दोहरा रहा है, जो गल्तियां सोवियत संघ में की गयी थी। हम नहीं जानते इसे कैसे परखा जाए। सोवियत संघ में हुई भूलों में एक बड़ी भूल बताते हैं - राज्य और व्यक्ति के अधिकारों के बीच सही संतुलन का अभाव । चीन की सरकार इस संतुलन को कैसे साध रही है, कहना मुश्किल है। अखबारों पर सरकारी नियंत्रण आज भी पूरी तरह से कायम है। इंटरनेट की तरह के विरोध के नये माध्यमों को लेकर राज्य और प्रतिवादी स्वरों के बीच चूहे-बिल्ली के खेल के समाचार रोज पढ़ने को मिलते हैं।

इन सबके परे, उल्टा हम यह देख रहे है कि चीन की शासन प्रणाली ने सारी दुनिया में संसदीय जनतंत्र की शासन प्रणाली को प्रश्नों के घेरे में ला खड़ा किया है। पश्चिम की तमाम पत्र पत्रिकाओं में चीन के हवाले से शासन के आदर्श रूप को लेकर गंभीर बहस चल रही है। एक खासे तबके को संसदीय प्रणाली जटिल और धीमी लगने लगी है और इसकी तुलना में चीन की प्रणाली तत्काल और दृढ़ निर्णय लेने और निर्णयों पर फौरन अमल करने की दृष्टि से कही ज्यादा सक्षम जान पड़ती है। दुनिया का कॉरपोरेट जगत इस प्रभावी और क्षिप्र प्रणाली पर मुग्ध है और अमेरिका सहित संसदीय जनतांत्रिक देशों में इससे सीखने और इसकी शक्ति को अपनाने पर बल दे रहा है।

यह कहना मुश्किल है कि शासन प्रणाली के बारे में चीन की इस नयी चुनौती से पश्चिमी देशों की सरकारें किस प्रकार के प्रशासनिक सुधारों की दिशा में कदम उठाने के लिये प्रेरित होगी। यह बात अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन जो एक बात अभी आईने की तरह साफ है वह यह कि चीन की सरकार से प्रेरित होकर दुनिया में कहीं भी समतावादी या समाजवादी विचारों का प्रसार नहीं हो रहा है। कहीं भी चीन के चलते यह बात बहसतलब नहीं है कि समाज से गैर-बराबरी खत्म होनी चाहिए, न्यायपूर्ण समाज बनना चाहिए। स्वतंत्रता वाला पहलू तो बहुत दूर की बात है। कहने का तात्पर्य यह कि आज का चीन दुनिया को समानता, न्याय और स्वतंत्रता के विचारों के लिये जरा भी प्रेरित नहीं कर रहा है।

इसके विपरीत, चीन एक ऐसी शासन प्रणाली का उदाहरण बना हुआ है जो जनता की कम से कम भागीदारी पर टिकी हुई पूरी शक्ति के साथ निर्णयों पर अमल करने वाली प्रणाली है और जिसमें जनता के प्रतिवाद और आक्रोश को काबू में रखने की भरपूर सामथ्र्य है। शायद इसीलिये कॉरपोरेट जगत इसको लेकर उत्साही है - वित्तीय पूंजी के साम्राज्य के निर्माण की एक सबसे अनुकूल प्रणाली। वह दुनिया के संसदीय जनतंत्रवादियों को इससे सीखने, इसे अपनाने पर बल दे रहा है।

इसीलिये, सवाल है कि क्या आज का चीन दुनिया में समाजवादी आंदोलन का नहीं, कॉरपोरेट शासन की प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है? सौ करोड़ का शहरी उपभोक्ता और उसपर शासक पार्टी की यह प्रतिज्ञा कि बाजार को निर्णायक भूमिका अदा करने देंगे - बहुराष्ट्रीय निगमों को और क्या चाहिए!



सोवियत शासन प्रणाली कमोबेस ऐसी ही थी। फिर भी वह दुनिया पर अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती दे रही थी। उसने संसदीय जनतांत्रिक नव-स्वाधीन देशों में विकास के गैर-पूंजीवादी रास्तों की तलाश को उत्प्रेरित किया था। इन्हीं कारणों से कॉरपोरेट विश्व उसका हमेशा कट्टर शत्रु बना रहा। चीन में आज लगभग वैसी ही शासन प्रणाली होने पर भी फर्क यह है कि वह अमेरिका का किसी भी अर्थ में प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि काफी हद तक साझीदार है। वह खुद अमेरिकी पूंजी का एक प्रमुख रमण-स्थल है।

क्या इस फर्क को ही हम मान लें कि चीन वह गलती नहीं कर रहा जो सोवियत संघ ने की थी !

मीर का एक शेर है : 
क्या कहे कुछ कहा नहीं जाता
और चुप भी रहा नहीं जाता     

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

गाब्रियल गार्सिया मार्केस *

अरुण माहेश्वरी


सारी दुनिया को अपने उपन्यासों से मुग्ध कर देने वाले नोबेलजयी ‘जादूई’ लेखक गाब्रियल गार्सिया मार्केस हमारे बीच नहीं रहे। वे पिछले कुछ दिनों से बीमार थे। हाल ही में नीमोनिया के इलाज के लिये उन्हें मेक्सिको के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 1999 में उनको कैंसर हुआ था, फिर भी उनकी लेखनी कभी बंद नहीं हुई। सन् 2004 में उनका अंतिम उपन्यास ‘मेमरीज आफ माई मेलनकोली व्होर्स’ आया। कल (17 अप्रैल 2014) मेक्सिको स्थित अपने घर में उन्होंने अंतिम सांस ली।
मार्केस की स्मृतियों के प्रति आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम यहां अपने मित्रों के साथ अपने उस लेख को साझा कर रहे हैं जो लगभग बीस साल पहले उनके जीवन और साहित्य पर पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की पत्रिका ‘धूमकेतु’ के लिये लिखा गया था।



मार्केस परिवार

सन् 1982, जब मार्केस को नोबेल पुरस्कार मिला था, पूरी दुनिया के साहित्य और पाठकों की दुनिया में मार्केस के नाम की एक सुनामी आयी थी। लेकिन लातिन अमेरिका इसके काफी पहले ही इस नाम के रंग में रंग चुका था। यह किसी भी लेखक के लिये सपने से कम नहीं है कि लेखकीय जीवन की थोड़ी सी अवधि में ही उसकी किसी कृति की 25-30 लाख प्रतियां बिक जाए। ‘सियेन एनोस द सोलेदाद’ (वन हन्ड्रेड ईयर्स आफ सालिच्यूड), 1967 में प्रकाशित हुआ, जब मार्केस 40 साल के भी नहीं हुए थे, और जब इसी उपन्यास पर 1982 में उन्हें नोबेल मिला तब तक इसकी कितनी प्रतियां बिक चुकी थी और उसके एक-एक चरित्र पर कितने शोध हो चुके थे, इसकी गिनती नहीं हो सकती थी।
गाब्रियल गार्सिया मार्केस का जन्म लातिन अमेरिकी देश कोलंबिया के उत्तर-पश्चिम हिस्से के एक छोटे से गांव अर्काटिका में सन् 1928 में हुआ था। घने जंगलों के बीच की इस छोटी सी बस्ती के दिन तब से फिरने लगे थे जब 1910 में बहुराष्ट्रीय यूनाइटेड फ्रूट कंपनी ने केलों और फलों के उन सघन बगानों में अपना खूंटा गाड़ा था। गाब्रियल की नानी दीना ट्रैंक्विलीन की स्मृतियों में, तब अनजाने चेहरों का एक भारी तूफान उस क्षेत्र में आया था। केलों की आमदनी से भाग्योदय की ललक ने वहां की सड़कों पर तंबू ताने औरतों-मर्दों के ढेर लगा दिये थे। उस समय इस बस्ती का क्या कहना था ! केले के बगानों के मालिक नोटों से अपने सिगार सुलगाया करते थे। लेकिन, गौर करने लायक बात यह है कि वह भारी तूफान भी इस दुर्गम क्षेत्र और उसके मूल निवासियों को उनके रहस्यमय अतीत और उनके अंतर में बसी मान्यताओं और विश्वासों से मुक्त नहीं कर पाया था।
गाब्रियल का बचपन इसी क्षेत्र के एक सबसे पुराने, सम्मानित परिवार, उनके नाना कर्नल मार्केस के घर में बीता था।
गाब्रियल गार्सिया के पिता थे - गाब्रियल इलीजियो गार्सिया। आर्थिक तंगी ने उन्हें कार्तागेना विश्वविद्यालय में डाक्टरी की पढ़ाई छोड़ कर एक टेलिग्राफ ऑपरेटर के रूप में अर्काटका आने के लिये मजबूर किया। कहते हैं कि इस शहर में आने के बाद इलीजियो गार्सिया को अनायास ही कर्नल मार्केस की बेटी लुइसा भा गयी। शहर की दूसरी लड़कियों से ज्यादा गंभीर, संजीदा और सुंदर लुइसा शहर के सबसे सम्मानित परिवार की बेटी भी थी। इलीजियो ने लुइसा से बिना कोई बात किये सीधे उसके पिता कर्नल मार्केस के सामने लुइसा से शादी करने का प्रस्ताव रख दिया। एक अजनबी के इस औचक प्रस्ताव से अचंभित कर्नल मार्केस को यह अपनी खानदानी शान और शोहरत की हेठी लगा। उन्होंने इलीजिया के प्रस्ताव को फौरन ठुकरा कर लुसिया को दूसरे तटवर्ती शहरों की लंबी यात्रा पर भेज दिया ताकि इलीजिया उससे कोई संपर्क न साध सके। लेकिन इलीजिया, तारघर का कर्मचारी, शहर दर शहर लुइसा को अपने संदेश भेजता रहा। अन्तत: इलीजिया की जिद ने कर्नल मार्केस को हार मनवा ही ली।
शहर के सर्वजनप्रिय और सम्मानित व्यक्ति कर्नल मार्केस ने जवानी के दिनों में बड़े-बड़े सामंतों, चर्च और और अपनी एक नियमित सेना द्वारा समर्थित कोलंबिया की संरक्षणवादी सरकार के खिलाफ संघवादी उदारपंथियों और स्वतंत्रचेता लोगों के गृहयुद्ध में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। 1899-1902 के इस युद्ध में सैकड़ों लोग मारे गये थे। गैरिबाल्डी और फ्रांसीसी प्रगतिशीलों की परंपरा में नौजवान उदारपंथियों की एक पूरी पीढ़ी ने लाल कमीज और झंडों के साथ इस लड़ाई में हिस्सा लिया था और भारी कुर्बानियां दी थी। तटवर्ती क्षेत्रों में चली इस लड़ाई के लिये कर्नल मार्केस को कई खिताब मिलें। उदारवादी कमांडर जैनरल रैफेल उराइब के नेतृत्व में लड़ी गयी इस लड़ाई में कर्नल मार्केस की भूमिका ने अर्काटका के इस सबसे पुराने परिवार की ख्याति को और भी बढ़ा दिया था।

रैफेल उराइब

जब गाब्रियल इलीजियो गार्सिया और लुइसा के पहले बेटे गाब्रियल गार्सिया मार्केस का जन्म हुआ तो अपने पुराने पारिवारिक रिश्तों को फिर से पटरी पर लाने के लिये ही उन्होंने उसे लालन-पालन के लिये नाना कर्नल मार्केस के घर पर ही रख देने का निर्णय लिया। और, यही वह जगह थी जहां गाब्रियल गार्सिया मार्केस अर्काटका शहर के अतीत के साथ गहराई से जुड़े एक परिवार के परिवेश में संस्कारित हुए। मार्केस जब सिर्फ आठ साल के थे, तभी नाना की मृत्यु होगयी, वे अपने पिता के परिवार में वापस चले गये। फिर भी, खुद मार्केस स्वीकारते हैं, और उनका पूरा साहित्य भी इस बात का गवाह है कि शुरू के इन आठ सालों में ही उनमें जो संस्कार पड़ें, वे सारी उम्र उनके मानस के गठन में एक अहम भूमिका अदा करते रहे।
एक समृद्ध अतीत की परंपराओं से आच्छादित कर्नल मार्केस के परिवार में साठ की उम्र को पार कर चुके कर्नल मार्केस और उनके नाती गाब्रियल के अलावा सब औरतें ही औरतें थीं - नानी, मौसी, ताई। गाब्रियल पर बूढ़े नाना का साया रहता था। औरतें घर के काम-काज में लगी रहती। नानी हर रोज भूत-प्रेत की अजीबोगरीब कहानियां सुनाया करती थी। उस बूढ़ी औरत के लिये जैसे जीवित और मृत लोगों के बीच कोई फर्क ही नहीं था। जिंदगी के अंतिम दिनों में उनकी आंखों की रोशनी कम हो गयी थी। मार्केस कहते हैं कि आंखों के बढ़ते धुंधलके ने इस फर्क को और भी धुंधला कर दिया था। वे अक्सर मृतात्माओं से बतियाती रहती। हर रात गाब्रियल को अपने पास बैठा कर इन मृतात्माओं की कहानियां सुनाती। कभी इस घर में चाचा लेजारो और चाची पेत्रा हुआ करते थे, जो काफी पहले ही चल बसे थे। नानी गाब्रियल से कहती थी, ‘‘तुम अगर उठे तो पेत्रा और लेजारो अपने कमरों से बाहर आजायेंगे। ’’
गाब्रियल ने लिखा है कि नानी की उन कहानियों का उनपर इतना असर है कि पचास साल बाद, अब भी जब वे रोम या बैंकाक के किसी होटल में अकेले आधी रात में जग जाते हैं तो एक क्षण के लिये बचपन का वह डर, अंधेरे में भटकते मृत परिजनों का डर दिमाग में कौंध जाता है।
ऐसे परिवार में, पांच साल की उम्र में ही गाब्रियल की अपने बूढ़े नाना से अनोखी दोस्ती सी होगयी थी। गाब्रियल अब भी उन दिनों की प्रिय स्मृतियों को अपने अंदर बड़े चाव से संजोये हुए हैं। नाना के गृहयुद्ध के किस्से आज भी उनके लिये ताजा है। नाना अपने नाती को वे सारी कहानियां बड़े धैर्य से सुनाया करते और एक-एक सवाल का जवाब देते थे। कभी किसी सवाल का जवाब न सूझने पर कहते - ‘‘आओ देखे, शब्द-कोश में इसके बारे में क्या कहा गया है।’’ यहीं से गाब्रियल में इतनी सारी पहेलियों को बुझाने वाली इस धूल से सनी मोटी पुस्तक (शब्दकोश) के प्रति गहरे सम्मान के संस्कार पड़ गये।
गाब्रियल जब आठ साल के थे, नाना की मृत्यु होगयी। इसके साथ ही गाब्रियल के बचपन का अंत होगया। अर्काटका से भी नाता टूट गया। 22 साल बाद मां के साथ अर्काटका आयें अपने नाना के घर को बेचने के लिये।
गाब्रियल को 13 साल की उम्र में पढ़ाई के लिये सुदूर राजधानी शहर आल्तीप्लानो भेज दिया गया था। नौका और रेल की आठ दिनों की लंबी यात्रा के बाद गाब्रियल जब आल्तीप्लानो पंहुचे, वह उनके लिये एक बिल्कुल दूसरी दुनिया थी। कैरेबियन के इस किशोर के लिये ‘‘स्कूल एक सजा और वह बर्फीला शहर किसी यातना से कम नहीं था।’’ संतोष की सिर्फ एक जगह थी - पढ़ाई। इर्द-गिर्द के निराशाजनक यथार्थ से भाग कर गाब्रियल किताबों की दुनिया में खोने लगा। उसका सौभाग्य रहा कि उसे साहित्यिक मित्रों की एक अच्छी सोहबत मिली। उसकी इस मंडली में नौजवान कोलंबियन कवि रूबेन दारिओ, फ्वान रेमोन फिमेन्स शामिल थे। पेरू के पाब्लो नेरुदा से प्रभावित होकर उन्होंने ‘‘पियेद्रा या सेलो’’ नामक एक मंडली का गठन किया। सभी रोमांटिक और पुरातनपंथियों के लिये चुनौती बन चुकी यह मंडली उनका जम कर मजाक उड़ाया करती थी। मार्केस उसके बारे में कहते हैं, ‘‘वे उस वक्त के आतंकवादी थे, लेकिन उनसे यदि न मिला होता तो मैं लेखक बन पाता, यह निश्चय के साथ नहीं कह सकता हूं।’’


बोगोता
माध्यमिक की पढ़ाई के बाद गाब्रियल कानून की पढ़ाई के लिये बागोता के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में भर्ती हुए, लेकिन कविता का चस्का नहीं छूटा। कानून की धाराओं के बजाय कविता, कविता और सिर्फ कविता पढ़ा करते थे। उपन्यासों में रुचि तब पैदा हुई जब एक रात उन्होंने काफ्का का ‘मेटामॉरफोसिस’ पढ़ा। इसके दूसरे दिन ही उन्होंने अपनी पहली कहानी लिखी। कानून की पढ़ाई पीछे छूटने लगी। पिता की इच्छा थी कि बेटा विश्वविद्यालय की डिग्री ले ले, लेकिन उन्होंने जल्द ही यह कह कर हथियार डाल दिये कि ऐसे बेटे से कोई उम्मीद करना व्यर्थ है।
न दाढ़ी की परवाह, न कपड़ों का होश - गाब्रियल आवारागर्दों की तरह कहवाघरों में भटकने लगे। अब कविताएं नहीं, उपन्यास चाटा करते थे - दास्तोवस्की, टालस्टाय, डिकेन्स, 19वीं सदी के फ्रांसीसी लेखक फ्लाबर्ट, स्टेंघल, बाल्जाक, जोला - सबको घोट डाला।
बागोता से 20 साल की उम्र में गाब्रियल तटीय शहर कार्तागेना लौटे। फिर एक बार कैरेबियन की हवा और धूप को अपने में महसूस किया और कार्तागेना से निकल रहे अखबार ‘अल यूनिवर्सल’ के धूलसने दफ्तर में उप-संपादक की नौकरी करने लगे। बागोता के अनोखे स्वच्छंद जीवन में गाब्रियल को बहुत कुछ जानने, लिखने का मौका मिला। यहीं वे युनानी साहित्य से, खास तौर पर सोफोकल्स से परिचित हुए। किर्केगार्द और क्लाडेल को जाना। युनानी साहित्य के बाद अंग्रेजी साहित्य के सफे भी उनके सामने खुलने लगे। ज्वायस, वर्जीनिया वुल्फ और विलियम फाकनर। कार्तागेना के बाद एक और तटवर्ती शहर बैरनकिल्ला में साहित्य के पागल लोगों की संगत में उनके साहित्य को पढ़ा, जाना।
गाब्रियल मार्केस कहते हैं :
‘‘यह उनके जीवन का एक पूरी तरह से अनोखा काल था, ऐसा काल जिसमें न सिर्फ साहित्य की बल्कि जिंदगी की भी मैंने खोज की। हर रोज हम सुबह होने तक पीते रहते और साहित्य पर बातें करते रहते। हर रात मुझे कम से कम दस ऐसी किताबों का पता चलता जिन्हें मैंने नहीं पढ़ा था। अगले दिन ही वे किताबें मुझे उपलब्ध भी हो जाती थी।’’
इन ढेर सारे अनुभवों के बाद जब मार्केस अपनी मां के साथ अर्काटका आएं, तब उनके पास न सिर्फ कहने के लिये बेशुमार सामग्री हो गयी थी बल्कि किशोर वय से लेकर तब तक जिन लेखकों के साथ उन्होंने अकेले में अपने दिन गुजारे थे, उनसे यह भी सीख लिया था कि इन अनुभवों का बयान कैसे किया जाए।
मार्केस की नानी ने केले के मुनाफे से भाग्योदय करने के लिये आये अर्काटका में मनुष्य रूपी जिस कूड़े के तूफान का जिक्र किया था, वही बिंब उड़ते पत्तों के तूफान ‘ला लो जारस्का’ (लीफ स्टार्म) के रूप में उनके पहले उपन्यास का आधार बना। यह उपन्यास अर्काटका से लौट कर बैरनकिल्ला में ‘अल हेराल्डो’ के संपादकीय कार्यालय में एक प्रकार के मौन उन्माद के साथ कई रातें जग कर एक रौ में लिखा गया था। पहला उपन्यास लेकिन उनके आगे के सोपानों के सारे संकेतों को समेटे हुए। ‘वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ सालिच्यूड’ में जिस मैकोन्डो के अलग-थलगपन की स्मृतियां है, उसकी अच्छी-खासी झलक इस पहले उपन्यास में ही मिल चुकी थी। लेकिन लेखक की पहचान बनी इस पांचवे उपन्यास के प्रकाशन के बाद, जब बाजार में इसकी प्रतियां जोर-शोर से बिकने लगी। पहले लातिन अमेरिका में और फिर सारी दुनिया में।

लेकिन, प्रसिद्धी के पहले का, अर्थात पांचवे उपन्यास तक पहुंचने का सफर मार्केस के लिये उतना ही कष्टदायी रहा, जैसा आम तौर पर सभी लेखकों का जीवन सफर हुआ करता है। ‘लीफ स्टार्म’ को प्रकाशित कराने में पांच साल लगे थे। अव्वल तो प्रकाशक छापने को ही तैयार नहीं होता, ऊपर से अजीबोगरीब नुक्ताचीनी। ‘लीफ स्टार्म’ को खारिज करते हुए स्पैनिश आलोचक ग्वीलेमों द तोरे ने उस पर तीखी टिप्पणी की कि उन्हें इस उपन्यास में सिवाय एक काव्यात्मक निवेदन के कुछ भी ऐसा नजर नहीं आता जिसके लिये इसे प्रकाशित करने की सिफारिश की जाए। लेखक को उनकी मुफ्त सलाह थी कि वह लेखन के बजाय किसी और पेशे को चुन ले तो उसके लिये भला होगा। मजबूरन, 1955 में मार्केस को अपने दोस्तों की मदद से बोगातो के एक छोटे से प्रैस से उसे खुद को छपाना पड़ा। स्थानीय पत्रिकाओं में उपन्यास की प्रशंसा हुई।
एक पत्रकार के रूप में मार्केस की पहचान बनने लगी थी। ‘अल एसपेक्टाडोर’ के पृष्ठों पर मार्केस की समाचार-कहानियों और टिप्पणियों की ओर लोगों का ध्यान जाने लगा था। इसी सिलसिले में उन्होंने यूरोप के कई देशों की यात्राएं की। मार्केस का वैचारिक रूझान समाजवादी था। कोलम्बिया के तानाशाह रीजस पिन्लि्ला ने ‘अल एसपेक्टाडोर’ पर प्रतिबंध लगा दिया। तब मार्केस पैरिस में रह रहे थे। कोलम्बिया से चेक आने बंद होगये तो पैरिस प्रवास अखरने लगा। मार्केस ने गरीबी बैरनकिल्ला में भी देखी थी, लेकिन वहां बहुत सारे दोस्त और शुभाकांक्षी थे। लेकिन पैरिस! बेहद निर्दयी! मार्केस का दूसरा उपन्यास ‘अल कोरोनेल नो टियेन क्विसन लॉ एस्क्रिबा’ ( नो वन राइट्स टू द कर्नल) इसी काल के अनुभवों की उपज है, जो 1961 में प्रकाशित हुआ।


पैरिस के बाद पत्रकार मार्केस काराकस गये। हर रात लिखने का सिलसिला चलता रहा। वहीं ‘ल्यूनेरल्स द लॉ ग्रांडे’ (बिग मामाज फ्यूनरल) लिखा। वहां से बोगोतॉ, क्यूबा की न्यूज एजेंसी ‘प्रेंसालातिला’ के कार्यालय में काम करने गये। बोगातॉ की एक साहित्यिक पत्रिका में ‘नो वन राइट्स टू द कर्नल’ प्रकाशित हुआ। पत्रिका के संपादक महोदय ने इसके प्रकाशन के लिये लेखक से न तो अनुमति ली और न ही उसके एवज में मानदेय के तौर पर कुछ दिया। कई प्रकाशकों द्वारा अस्वीकृत पांडुलिपि को प्रकाशित करके उसने लेखक पर भारी अहसान किया था ! स्थानीय समीक्षकों ने इस कृति की प्रशंसा की। बागोतॉ में एक और उपन्यास लिखा - ‘लॉ माला होरा’ (इन ईविल अवर)। इस उपन्यास को एक तेल कंपनी, एस्सो कोलंबिया द्वारा दिया जाने वाला राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।
मार्केस की यह सफलता बहुत मामूली सफलता थी। पुस्तक की थोड़ी सी प्रतियां प्रकाशित हुई थी और मामूली सी रॉयल्टी मिली थी। किताब थोड़े से पाठकों तक पहुंच पायी थी। कोलंबिया के बाहर तो दूर की बात, कोलंबिया में ही करीब के मित्रों के अलावा उनके बारे कोई भी अधिक कुछ नहीं जानता था। उन्हें एक प्रकार का आंचलिकतावादी लेखक समझा जाता था। बोगोतॉ का कुलीन तबका लोगों को उनके खानदान और पहनावे के आधार पर स्वीकृति दिया करता था। मार्केस जब उन्हीं की तरह के अच्छे होटलों में रहने और देश-विदेश घूमने की हैसियत वाले होगये, तभी इस कुलीन, बुर्जआ के घरों के दरवाजे उनके लिये खुल पाये थे और तब उन्हें ‘वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ सालिच्यूड’ के वामपंथी विचारों, फिदेल कास्त्रो से मार्केस की मित्रता पर भी कोई ऐतराज नहीं रह गया।
यूनिवर्सिटी आफ वेराक्रुज प्रैस ने मेक्सिको में 1962 में उनका उपन्यास ‘बिग मामाज फ्यूनरल’ प्रकाशित किया। ‘प्रेन्सा लातिना’ ने संवाददाता के रूप में गाब्रियल को न्यूयार्क भेज दिया। दिन में एक संवाददाता और रात में लेखक के तौर पर उनकी दोहरी जिंदगी जारी रही। उसी समय क्यूबा में हुए फेर-बदल के चलते ‘प्रेन्सा लातिना’ सी इस्तीफा दे दिया। अपनी पत्नी और बेटे के साथ, जेब में सिर्फ सौ डालर लिये, वे न्यूयार्क से मेक्सिको रवाना हो गये। मेक्सिको में महिलाओं की एक पत्रिका के उप-संपादक की जिस दिन उन्हें नौकरी मिली, उस दिन उनकी हालत यह थी कि उनके जूते का सोल घिस कर गिर रहा था।
मेक्सिको प्रवास के दौरान उन्होंने अपने मित्र प्लिनियो मेंडोजा को बताया कि वे एक उपन्यास पर काम कर रहे है, जो ‘बोलेरो’ की तरह है। बोलेरो एक लातिन अमेरिकी संगीत का नाम है जिसमें अत्यधिक भावुकता के साथ ही एक प्रकार का तीखापन भी होता है। ‘‘इसकी अतिशयोक्ति में एक प्रकार के विनोद को गूंथा गया है, यह कुछ ऐसा है जिसे सिर्फ हम लातिन अमरीका के लोग ही समझ सकते हैं - ‘बातों को बिल्कुल अक्षरश: न लिया जाना‘।’’ मेंडोजा ने लिखा है कि मेज पर अपनी उंगलियों को सरकाते हुए मार्केस ने कहा था, ‘‘ अब तक अपने उपन्यासों में मैंने बिल्कुल सुरक्षित रास्ता अपनाया था। मैंने कोई जोखिम नहीं उठायी थी । अब मुझे लगता है कि मुझे बिल्कुल धार पर चलना है।... फिर उन्होंने उपन्यास के उस अंश को सुनाया जिसमें एक चरित्र जब अपने को गोली मार लेता है तब उसके खुन की पतली धार जब तक मृतक की मां तक नहीं पहुंच जाती अनेक आड़े-तिरछे रास्तों से होकर पूरा शहर घूम लेती है। पूरी किताब उदात्तता और कुत्सितपन के ठीक बीच तलवार की धार पर चलता है, जैसे बोलेरो।...उसने कहा ‘यह पुस्तक या तो मेरी एक बड़ी उपलब्धि होगी या फिर इससे मेरा दिमाग फटकर बाहर आ जायेगा।’’
यही वह पुस्तक थी - ‘‘वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ सालिच्यूड’’, जिसने सच कहा जाए तो मार्केस की सालों की तपस्या को पूरा किया। मेंडोजा के शब्दों में - 15 साल पहले ‘लीफ स्टार्म’ लिखते वक्त गाब्रियल जिस उषाकाल के उदय की ओर ताका करते थे, लंबी प्रतीक्षा के बाद उसका उदय संभव हुआ।
इस अभूतपूर्व सफलता ने मार्केस के जीवन के ढर्रे को बदल दिया। गरीबी के अभिशाप से वे मुक्त हुए। जिन्दगी ज्यादा अनुशासित होगयी। बोहेमियनपन जाता रहा। मिलने की इच्छा रखने वालों को महीनों प्रतीक्षा करना पड़ता। फिर भी, मेंडोजा का कहना है कि यह सारी प्रसिद्धी कभी भी उनके सर पर चढ़ कर नहीं बोली। अपने मित्रों के लिये वे अब भी वहीं ‘गैबो’, ‘गैबिता’ ही है। पत्नी मर्सीडीज के साथ धनिष्ठता और भी प्रगाढ़ हुई है। दो बेटे हैं, जिनका अपने बाप के साथ अनोखा रिश्ता है। पिता ने उन्हें बिल्कुल बराबरी पर रखा है। मार्केस के काम के औजार है - आधा दर्जन शब्द कोश, ढेर सारे ज्ञान कोश (जिनमें उड्डयन के बारे में कोश भी शामिल है), एक फोटो कापी की मशीन, एक अच्छा सा बिजली का टाइपराइटर और हमेशा पास रहने वाले पांच सौ सादे पन्ने। गरीबी के दिनों की तरह अब वे रात को नहीं लिखते। सुबह नौ से दोपहर के तीन बजे तक नियमित लिखते हैं। अधिकांश समय मेक्सिकों में रहने पर भी घुमक्कड़ी का भारी शौक है।
मेंडोजा लिखते हैं कि गाब्रियल यूरोपीय बुद्धिजीवियों की तरह सैद्धांतिक बयानबाजी नहीं करते। किस्सागोई उनका शगल है। इसीलिये फ्रांसीसी टेलिविजन में साक्षात्कार देने से कतराते हैं क्योंकि वहां अक्सर ‘साहित्य क्या है?’ की तरह के सैद्धांतिक, अमूर्त किस्म के सवाल किये जाते हैं।
मेंडोजा के अनुसार फिदेल कास्त्रो के साथ गाब्रियल की मित्रता के मूल में भी कैरेबियन की भौगोलिक पृष्ठभूमि से जुड़ी हुई जीवन को देखने की खास भाषा और समझ की काफी भूमिका है। अपने क्षेत्र की सामाजिक-जनतंत्रवादी प्रवृत्तियों और प्रगतिशील उदारतावाद से उनका हमेशा घनिष्ठ संबंध रहा है। इसीलिये लातिन अमेरिका के दक्षिणपंथी उनके प्रति शत्रुता की भावना रखते हैं। वे उन्हें कास्त्रो का खतरनाक एजेंट समझते हैं। कहते है, क्यों नहीं वह अपनी सारी संपत्ति गरीबों में बांट देता है। मार्केस को मिली सुख-सुविधाओं पर वे अक्सर छींटाकशी करते रहते हैं। सच्चाई यह है कि ‘‘पैसों के मामले में मार्केस बहुत उदार है क्योंकि इसे उन्होंनें किसी के शोषण से नहीं, अपने टाइपराइटर के बल पर अर्जित किया है।’’
मेंडोजा मार्केस की रचनाओं में एकाकीपन के स्थायी भाव का उल्लेख करते हुए कहते हैं, यह एकाकीपन अर्काटका में नाना के घर बिताये बचपन, पैसे न होने से बोगोतॉ की ट्रामों में कविता के साथ बिताये गये रविवार के दिन, रहने की और कोई जगह न होने पर बैरनकिल्ला की वेश्याओं के कोठों पर गुजारे दिनों के एक नौजवान के लंबे अनुभवों से उनके पीछे लगा हुआ है। विश्व-प्रसिद्ध हो जाने पर भी अब तक यह एकाकीपन उनसे चिपका हुआ है। पार्टियों की शामों में वे अक्सर अकेले हो जाते हैं। मेंडोजा लिखते है, ‘‘कर्नल आर्तियानों बुवेन्दिया (वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ सालिच्यूड का एक केंद्रीय चरित्र - अ.मा.) जिन बत्तीस लड़ाइयों में पराजित हो गया था, उसने उन्हें तो जीत लिया, लेकिन बुवेन्दियाओं की तमाम पीढि़यां जिस अटल प्रारब्ध से अभिशप्त है, मार्केस आज भी उससे बंधे हुए हैं।’’


मार्केस की रचनाशीलता में उनके परिवार की स्मृतियों की काफी बड़ी भूमिका रही है। मां के साथ अपने संबंधों को वे बहुत ही गंभीर किस्म का बताते हैं। वे कहते हैं कि मैं अपनी मां को हर बात कह सकता हूं। मेरे तमाम चरित्रों की रूह को मां से अच्छी तरह कोई नहीं पहचानता। ‘वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ सालिच्यूड’ की उर्सूला में वे अपनी मां की कई विशेषताओं की झलक की बात कहते हैं। उर्सूला के बारे में उनका कहना है कि उर्सुला मेरे लिये एक आदर्श नारी पात्र है, इस अर्थ में कि एक नारी के बारे में मैं जो सोचता हूं, उसमें वे सारी चीजें मौजूद है। मेंडोजा से अपनी बात-चीत में वे कहते हैं कि मरेी मां की उम्र जितनी बढ़ रही है, वह जैसे उतनी ही ज्यादा उर्सुला में ढलती जा रही है। नाना के घर पर अनेकों स्त्रियों के बीच बिताये बचपन के कारण मार्केस अभी भी औरतों के मध्य ही स्वयं को अधिक सुरक्षित महसूस करते हैं।’’
मार्केस अक्सर लोगों से अपनी मां की कठोर गरीबी भरी पुरस्कार-विहीन जिंदगी की चर्चा किया करते हैं। मां के चरित्र को उन्होंने अपने उपन्यास ‘क्रानिकल ऑफ अ डेथ फोरटोल्ड’ में लिया है। हमेशा मां की बातें करते रहने पर एक बार पिता ने मजाक में अपने एक मित्र से कहा था कि ‘‘वह एक ऐसा चूजा है जिसकी पैदाइश में मुर्गे की कोई भूमिका नहीं है।’’ गाब्रियल कहते हैं कि दरअसल पिता को उन्होंने कभी जाना ही नहीं। नाना के घर से आठ साल की उम्र में जब मां-बाप के साथ रहने आया तो मेरे मस्तिष्क पर नाना छाये हुए थे। पिता की प्रकृति नाना से बिल्कुल विपरीत थी। नाना उदारपंथी थे, पिता संरक्षणवादी। दोनों के व्यक्तित्व, दुनिया के प्रति नजरिया, बच्चों के साथ संबंध बिल्कुल अलग-अलग थे। उसी वक्त पिता से मन में जो दूरी बन गयी, वह कभी पट नहीं पायी, यद्यपि पिता से कभी किसी बात पर झगड़ा भी नहीं हुआ।
मार्केस की पत्नी मर्सीडीज सकर कस्बे की है जहां दोनों परिवार कई वर्ष रह चुके थे। मार्केस जब छुट्टियों में घर आते थे, अक्सर मर्सीडीज से मुलाकात हुआ करती थी। तेरह साल की उम्र में ही खेल-खेल में मार्केस ने उससे शादी की बात कह दी थी। मर्सीडीज से अपनी शादी को वे एक खयाली पुलाव के धीरे-धीरे यथार्थ में बदलने की स्वाभाविक घटना मानते हैं। मेंडोजा ने अपनी पुस्तक में मार्केस से जो अन्तिम प्रश्न किया है कि आपको अपनी जिंदगी में कौन सबसे दिलचस्प व्यक्ति लगता है तो मार्केस का जवाब था - मेरी पत्नी मर्सीडीज।
नाना के उदारतावादी विचारों के संस्कार ने मार्केस में विद्रोही विचारों के बीज डालें। स्कूल में ऐेसे शिक्षक मिले जो मार्क्सवादी रूझान के थे। ‘‘बीजगणित के शिक्षक घंटी बजने के बाद ऐतिहासिक भौतिकवाद पढ़ाया करते थे, रसायनशास्त्र के शिक्षक लेनिन की किताबें पढ़ने दिया करते थे और इतिहास के शिक्षक वर्ग संघर्ष के बारे में बताया करते थे।’’ मार्केस कहते हैं कि जब स्कूल से निकला तो मुझे ‘‘उत्तर और दक्षिण का ज्ञान नहीं था, लेकिन मुझमें दो गहरे विश्वास थे। एक यह कि अच्छज्ञ उपन्यास यथार्थ का काव्यात्मक प्रस्तुतीकरण होता है, तथा दूसरा यह कि मानवता का फौरी भविष्य समाजवाद में है।’’
बाद के दिनों में मार्केस कुछ दिनों तक कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े भी रहे। उन्होंने कभी भी क्यूबा को सोवियत-नक्षत्र नहीं माना, जो इस अमेरिकी महादेश में सबसे ज्यादा प्रचारित बात थी। उनकी मान्यता रही है कि अमेरिका के शत्रुतापूर्ण और बैरी रुख के कारण लंबे अर्से तक क्यूबा की क्रांति को आपात स्थिति में रहना पड़ा है। अमेरिका के फ्लोरिडा तट से मात्र 90 मील की दूरी पर किसी वैकल्पिक प्रशासन व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन ’’लातिन अमेरिका का भविष्य लातिन अमेरिका में ही निर्धारित होगा, कहीं और नहीं। इसके अलावा और कुछ भी सोचना एक यूरोपियन जिद है।’’


मार्केस का फिदेल कास्त्रो से बहुत दोस्ताना संबंध है। फिदेल उनके उपन्यासों के अच्छे पाठकों में एक हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति मितेरां से भी मार्केस के दोस्ताना संबंध है।
राजनीति के विभिन्न संदर्भों में बात करते हुए अंत में मेंडोजा जब उनसे पूछते हैं कि आप अपने देश में कौन सी सरकार देखना पसंद करेंगे तो मार्केस का दो-टूक जवाब था -‘‘ ऐसी सरकार जो गरीबों को खुशहाल कर सके।’’

* गाब्रियल गार्सिया मार्केस का यह जीवन-परिचय प्लिनियो अपुलेमो मेंडोजा की विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ‘द फ्रैगरेंस ऑफ गुआवा’ (अमरूद की सुगंध) के आधार पर लिखा गया है। यह पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की पत्रिका ‘धूमकेतु’ के जनवरी-मार्च 1992 के अंक में प्रकाशित हुआ था। मेंडोजा ने अपनी पुस्तक मार्केस से जुड़े संस्मरणों, स्वतंत्र गवेषणा और उनसे हुई बातचीत के आधार पर तैयार की थी।

‘लेखक की रसोई’

गैब्रियल गार्सिया मारक्वेज, दुनिया के महान कथाकारों-उपन्यासकारों का शायद आखिरी स्तंभ, आज ढह गया। सारी दुनिया के कहानी प्रेमी लोग उनकी मृत्यु पर शोक मना रहे है। अब कौन सुनायेगा, इतने धीरज के साथ आदमी के जीवन के रहस्यों की रोमांचक कथाओं को ! नानी-दादी की कहानियों के दिन तो कभी के लद चुके थे। लिखित पाठों ने कथा की न जाने कितनी पर्तों को महसूस करने का दरवाजा खोला था। लेकिन अब, उसकी जगह, आंखों के सामने से तत्काल गुजर जाने वाले दृश्यों ने क्या लेना शुरू किया है, ठहर कर लुत्फ लेने, दूसरों की कथा को खुद जीने का मौका ही जैसे छीन लिया जा रहा है। मारक्वेज ने इसीलिये अपने सबसे अधिक बिकने वाले उपन्यास ‘वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ सालिच्यूड’ पर किसी को कोई फिल्म बनाने की अनुमति नहीं दी, जबकि इसके एवज में उन्हें करोड़ों डालर की कीमत देने के लिये लोग तैयार थे। वे अपने पाठ को किसी सगुण रूप में ढाल कर स्थिर और एकार्थी बना देने के लिये तैयार नहीं थे।
बहरहाल, लगभग 20 साल पहले हमने उनके एक लंबे साक्षात्कार ‘लेखक की रसोई’ का हिंदी अनुवाद किया था। यह साक्षात्कार किसी भी लेखक के लिये लेखन के प्रशिक्षण शिविर से कम महत्वपूर्ण नहीं है। उसे हम यहां अपने मित्रों के साथ साझा कर रहे हैं।






















बुधवार, 16 अप्रैल 2014

दमघोंटू बासीपन

इन दिनों ‘टाइम्स नाउ’ सहित दूसरे सभी चैनलों पर चलने वाली राजनीतिक बहसें चूस कर फेंके जा चुके गन्ने के भूसे से रस निकालने की किसी बुभुक्षु की बदहवासी जैसी लगती है। मोदी का गुणगान श्लील-अश्लील की हदों के पार चला गया है। वामपंथी एक सिरे से नदारद है। ‘आप’ वाले भी अब दिखाई नहीं देते।
स्टूडियों के इस दमघोंटू बासीपन से अलग एनडीटीवी में रवीश कुमार के ‘प्राइम टाइम’ जैसे कुछ कार्यक्रम जमीन से उठे होने के कारण कुछ आकर्षण बनाये हुए हैं। दूसरे चैनलों में तो स्टूडियो के बाहर की रिपोर्टिंग के पूरे समय को खरीद कर मोदी ने बाहर की ताजी हवा के आने की खिड़कियां भी बंद कर दी है।

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

बीमारी की जड़ है - ‘सांस्कृतिक प्रदूषण के धर्म-निरपेक्ष चूहे’ !

अरुण माहेश्वरी


मौजूदा घिनौनेपन के प्रति अक्सर दिखाई देने वाले रोष की गहरी और सच्ची भावना की आड़ के साथ की जाने वाली कुछ टिप्पणियां इतनी सनसनीखेज, उत्तेजक, विरोधाभासों से भरी, तिरस्कारपूर्ण आलोचना तथा कटु व्यंग्यों की मांसपेशीय शैली का ऐसा उदाहरण होती है कि वे न चाहते हुए भी अनायास ही किसी को बहस में खींच ले सकती है। डा. शंभुनाथ की इधर की कुछ अखबारी टिप्पणियों ने हमारे साथ कुछ ऐसा ही किया है।

यद्यपि मैं उनके पूरे लेखन से जरा परिचित हूं। यह सब उनका स्थायी भाव है। फिर भी, इन अखबारी टिप्पणियों से लगता है कि उनमें तर्क और सोच की आखिरी लौ भी बुझ गयी है, और क्षण विशेष की सफलता और सनसनी की कामना वाली अहम्मन्यता के अधकचरेपन के चलते आगे सामान्य नैतिक तत्व का अवलोप भी अवश्यंभावी है।

आज(13 अप्रैल), रविवार के जनसत्ता में उनकी टिप्पणी ‘सांप्रदायिक उफान में’ उपरोक्त सभी गुणों-अवगुणों का एक और क्लासिक उदाहरण है।

मसलन् इस टिप्पणी का प्रारंभ वे करते हैं :‘‘धर्म में कीचड़ लगने में सैकड़ों साल लगे होंगे, पर धर्म-निरपेक्षता में कुछ ही दशकों में ही काफी कीचड़ जम गया।’’

आप शंकित होंगे कि क्या धर्म-निरपेक्षता कुछ दशकों का ही मामला है! नहीं, पांचवी पंक्ति में ही शंभुनाथ कह देते हैं : ‘‘भारत की सैकड़ों साल की धर्म-निरपेक्ष परंपरा से कुछ भी नहीं सीखने...।’’ फिर भी, धर्म अपवित्र हुआ सैकड़ों सालों में धर्म-निरपेक्षता कुछ दशकों भर में! बूझिये इसे पहेली को!

आगे लिखते हैं, ‘‘एलीट अहंवाद की वजह से ही उत्तर भारत के लोगों में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ी है।’’
‘एलीट’, शंभुनाथ की नफरत का पुराना लक्ष्य, - अंग्रेजी पढ़ने-बोलने वाला तबका - ‘सांस्कृतिक प्रदूषण का चूहा’। जनसत्ता में ही पहले अपने एक लेख में वे इस चूहे को मार डालने का आह्वान कर चुके हैं।
वे कहते हैं, ‘‘यह सिर्फ हताशा नहीं, एक महान विश्वास के टूटने का नतीजा है।’’ मोहभंग का नतीजा। मुक्तिबोध की पैरोडी करते हुए कामरेडों से सवाल करते है, इस ‘मोहभंग’ में पार्टनर तुम्हारा क्या योगदान है? और, एक ऐसे नतीजे पर पहुंच जाते हैं, कि आज की लूट, हत्या, फरेब, घोटालों, किसानों की वंचना आदि सबके लिये सबसे अधिक कोई जिम्मेदार है तो वे हैं - ‘धर्म-निरपेक्ष महारथी’। मानो, धर्म-निरपेक्षता = नव-उदारवाद!

दुश्चिंता नरेंद्र मोदी की, और प्रचार उसीके सबसे बड़े झूठ का!

टिप्पणी आगे भी इसीप्रकार की मांसपेशीय शैली में कहती है, ‘धर्म-निरपेक्षता का राजनीतिक अस्त्र के रूप में’ क्यों इस्तेमाल किया गया, और जो बुद्धिजीवी गुजरात के दंगों के बाद मुखर हुए, उन्होंने आगे क्या किया, सांप्रदायिकता को रोक क्यों नहीं पायें !

एक नया, न समझ में आये वैसा, द्वैत खड़ा करते हैं - लेखकों और बुद्धिजीवियों का द्वैत। कहते हैं : ‘‘बुद्धिजीवियों की दुनिया लेखकों से काफी बड़ी होती है।’’ और बुद्धिजीवियों के बारे में फिर उसीप्रकार, ‘एलीट’ वाले उत्तेजक तिरस्कापूर्ण लहजे में संकेत देते हैं - ‘बुद्धिजीविता परजीविता में बदल’ गयी है और इसका कारण है - मोबाइल और इंटरनेट और इनसे चिपका हुआ ‘तकनीकी बुद्धिवाद’। इस बारे में उनका सबसे दिलचस्प मूल्य निर्णय है - ‘‘सोशल साइट पर हमेशा उसका कब्जा होता है, जिसके पास भयानक पूंजी है।’’
पूंजीवाद में जीवन का ऐसा कौन सा क्षेत्र है जिसपर पूंजी का प्रभुत्व न हो ! तभी तो पूंजीवाद है। लेकिन जैसे गरीबी का अर्थ सिर्फ गरीबी नहीं होता, पुराने समाज को उलट देने की विध्वंसकारी ताकत भी होता है, उसी प्रकार, हर क्षेत्र के अपने अंतर्विरोध और उनकी द्वंद्वात्मक गतिशीलता होती है।

वे ‘वैश्वीकरण’ को इस बात का श्रेय देते हैं कि उसके चलते ‘‘संप्रदायवाद को विषैले दांत छिपाने पड़ रहे हैं।’’ इसका और विखंडन करें तो पता लगेगा - धर्म-निरपेक्ष ताकतों का नव-उदारवाद सांप्रदायिकता को बढ़ाता है, नरेंद्र मोदी का नव-उदारवाद उसके विष पर पर्दा डालता है।

इस अनोखी टिप्पणी का आगे का हिस्सा कहता है नरेंद्र मोदी को अगर कोई रोकेगा तो स्थानीय ताकतें रोकेगी, ‘संभ्रांत’ केंद्र नहीं।

इसी एक बात से लगता है कि शंभुनाथ भारत के राजनीतिक इतिहास से कितनी बुरी तरह कटे हुए हैं। उन्हें इस बात का अंदाज ही नहीं है कि भारत में 1989 के बाद से ही, अर्थात पचीस साल पहले से केंद्र में मोर्चा सरकारों का दौर शुरू हो चुका है। इन पचीस सालों में किसी भी एक पार्टी को संसद में बहुमत नहीं मिला है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों को मिला कर भी 50 प्रतिशत मत नहीं मिलते हैं।

इस टिप्पणी का अंत वे ‘सांस्कृतिक प्रदूषण के चूहों’ अर्थात एलीट, अर्थात तकनीकी बुद्धिवादी, अर्थात नॉलेज सोसाइटी वाले अर्थात मोदी के सत्ता पर आने पर भारत छोड़ देने की बात करने वाले ‘समर्थ-संपन्न’ कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति पर अपनी कटुता का विष उगलते हुए ‘प्राचीन कूपमंडुकता’ और ‘अति-आधुनिक कूपमंडुकता’ के शब्दाडंबर और तर्कहीनता की नयी सनसनी के साथ करते हैं।

हम जानते हैं, हमारी इस प्रतिक्रिया के प्रत्युत्तर में हमें शुद्ध गालियों और गर्जनाओं का सामना करना पड़ सकता है, जैसा पहले हो चुका है। लेकिन हमें यह कहने में जरा भी हिचक नहीं कि शंभुनाथ को ऐसी समस्याओं से निबटने में जरा भी संकोच नहीं होता, जिनके बारे में उनका बुनियादी ज्ञान तक नहीं है।

13.04.2014

रविवार, 13 अप्रैल 2014

डा. भीमराव अंबेडकर और समान नागरिक संहिता


बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर को याद करते हुए सरला माहेश्वरी की पुस्तक ‘समान नागरिक संहिता’ (1997) का एक छोटा सा अंश :
‘‘1985 में शाहबानो मुकदमे के बाद की तनावपूर्ण स्थिति में इस प्रकार की जो तमाम बातें कही जा रही थी, वही बातें नवंबर 1948 की संविधान सभा की बहस के वक्त भी डा. अंबेडकर ने कही थी कि संविधान में इस आशय का जो अनुच्छेद शामिल किया जा रहा है वह केवल एक प्रकार का सुझाव है कि ‘‘राज्य देश के नागरिकों के लिये एक व्यवहार संहिता के निर्माण का प्रयत्न करेगा। यह ऐसे नहीं कहता है कि संहिता के निर्माण के पश्चात राज्य उसे सब नागरिकों पर केवल इसी आधार पर लागू कर देगा कि वे नागरिक है।’’
‘‘इसी संदर्भ में हिंदू कोड बिल के बारे में संसद तथा संसद के बाहर जो बहस खड़ी हुई थी उसका भी उल्लेख किया जाना चाहिए। इस विधेयक पर 1948 से 1951 तक, लगभग तीन साल से भी ज्यादा काल तक तीखी बहस चली थी। उन दिनों कम्युनिस्टों तथा कांग्रेस के भी महिला कार्यकर्ताओं ने हिंदू निजी कानून में सुधार के पक्ष में पूरे देश में बड़ी-बड़ी सभाओं ओर जुलूसों का आयोजन किया था। सांप्रदायिक शक्तियां उस विधेयक के विरुद्ध खुल कर मैदान में उतरी हुई थी। कम्युनिस्ट और कांग्रेस महिला कार्यकर्ताओं के विरुद्ध गंदी-गंदी बातों के प्रचार के अलावा उनपर शारीरिक हमलें भी किये गये। लेकिन उल्लेखनीय है कि 1951 में जब यह विधेयक पारित होने लगा तो उस समय अचानक ही हिंदू सांप्रदायिक शक्तियों के प्रतिनिधियों ने अपने रुख को बदल लिया ओर सारे मामले को एक सांप्रदायिक रंग देते हुए यह कहना शुरू कर दिया कि ‘‘यह यदि हिन्दुओं के लिये अच्छा है तो मुसलमानों के लिये भी अच्छा होगा। हम इसे तभी स्वीकारेंगे जब यह कानून सब पर लागू होगा।’’ उनकी ओर से उक्त कानून में यह प्रमुख संशोधन पेश किया गया कि ‘‘यह संहिता सभी भारतीयों पर, वे किसी भी धर्म, जाति या समुदाय के लोग क्यों न हों, लागू होगी। ’’
‘‘सांप्रदायिक शक्तियों के इस बदले हुए पैंतरे का जवाब देते हुए डा. अंबेडकर ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि ‘‘कल तक जो लोग हिंदू कानून के वर्तमान रूप के सबसे बड़े पहरेदार बने हुए थे, वे ही आज यह कहने लगे हैं कि उन्हें सर्वभारतीय नागरिक संहिता चाहिए। एक कहावत है कि चीते के शरीर के दिखाई देने वाले धब्बे कभी समाप्त नहीं होते और मुझे विश्वास नहीं होता कि जो चीते अब तक, जब भी मैं इस विधेयक को सदन के सामने लाया, मुझ पर झपट्टा मारते रहे हैं, उनकी मानसिकता में अचानक ही अब इतना सुधार होगया है कि वे बिल्कुल क्रांतिकारी बन गये हैं और एक पूरी तरह से नयी संहिता की मांग उठाने लगे हैं। ...हिंदू कोड को तैयार करने में चार-पांच साल लगे हैं। नागरिक संहिता को तैयार करने में दस वर्ष लगेंगे। ...मैं उन्हें कहना चाहता हूं कि इस काम को आधे घंटे में नहीं किया जा सकता।’’
‘‘कहने का तात्पर्य यही है कि नागरिक संहिता को न्याय संगत बनाना जहां शुरू से ही स्वतंत्र भारतीय समाज के न्यायपूर्ण विकास के लिये एक जरूरी बात समझी जाती रही है, वहीं यह भी स्पष्ट है कि सांप्रदायिक शक्तियां इस विषय पर अनेक प्रकार की पैंतरेबाजियों के जरिये सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने की भी कोशिश करती रही है। इसके लिये एक ओर जहां वे निजी कानूनों में हस्तक्षेप को धर्म के क्षेत्र में हस्तक्षेप बता कर उसका विरोध करते रहे हैं, वहीं समान नागरिक संहिता की मांग की आड़ में अन्य संप्रदायों को हमले का निशाना बनाते रहे हैं। सांप्रदायिक शक्तियों का यह खेल आज भी जारी है।’’

सोमवार, 7 अप्रैल 2014

लेखकों की अपील

दिल्ली से लेखकों और बुद्धिजीवियों के एक समूह ने देशवासियों से यह अपील की है कि देश की बहुलता को बचाए रखने और लोकतांत्रिक तथा नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिये आगामी चुनाव में ऐसे किसी भी उम्मीदवार को मत न दें जो सांप्रदायिक और धार्मिक उन्माद फैलाते हैं, अत्याचारी और भ्रष्ट है। उनका साफ कहना है कि ‘‘नरेन्द्र मोदी को इस तरह से पेश किया जा रहा है जैसे उनके पास देश की मौजूदा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सभी चुनौतियों का जवाब हो। अपने ही राज्य में 2002 में तीन हजार से ज्यादा मुसलमानों के संहार में उनकी कथित भूमिका को नजरंदाज किया जा रहा है।...नरेन्द्र मोदी को सख्त फैसले लेने में सक्षम एक शक्तिशाली व्यक्ति के रूप में पेश किया जा रहा है। लेकिन पिछली सदी का इतिहास गवाह है कि ऐसे ही हालात में अलग-अलग देशों के लोगों ने पाध्: ऐसे शक्तिशाली व्यक्ति का विकल्प चुना और उसके नतीजे घातक रहे।’’
‘जनसत्ता’ के आज के अंक में प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार इन लेखकों में नामवर सिंह, गणेश देवी, यूआर अनंतमूर्ति, अशोक वाजपेयी, के सच्चिदानंद, प्रभात पटनायक, बनवारी तनेजा, गीता कपूर, एमके रैना, मंगलेश डबराल, मिहिर पांड्या, अमर फारूकी, नंदिनी मजूमदार, निवेदिता मेनन, पार्थिव शाह, राधावल्लभ त्रिपाठी, रजा हैदर, शबनम हाशमी, अली जावेद, गीतांजलिश्री, अपूर्वानंद, नीलम मानसिंह, समिक बंदोपाध्याय, तेजी ग्रोवर, सदानंद मैनन, विवान संुदरम, सुधीर चंद्र और राजेश जोशी शामिल है।
हम यहां ‘जनसत्ता’ की इस रिपोर्ट का लिंक दे रहे हैं। लेखकों की इस अपील के साथ हम भी अपनी एकजुटता जाहिर करते हैं और देशभर के लेखकों, बुद्धिजीवियों से यह अपील है कि वे सभी न्याय और विवेक की इस आवाज के साथ अपनी आवाज मिलाये।
http://epaper.jansatta.com/254346/Jansatta.com/Jansatta-Hindi-08042014#page/7/2

भाजपा का घोषणापत्र




भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र से उस रहस्य पर से पर्दा उठ गया है कि आखिर वह क्यों मतदान शुरू होजाने के दिन तक प्रसारित नहीं किया गया था। यह घोषणापत्र इस बात का प्रमाण है कि भाजपा ने अंदर ही अंदर इस बार के चुनाव के लिये कोई घोषणापत्र तैयार करने का फैसला कर लिया था। उन्होंने सचमुच यह तय कर लिया था कि जब हमनेप्रधानमंत्रीबना ही दिया है तो फिर अब घोषणापत्र की क्या जरूरत है! क्या हिटलर की कही बातों का भी कोई विकल्प हो सकता है! नरेन्द्र मोदी बोल ही रहे थे तो फिर और क्या चाहिये था। घोषणापत्र के लिये बनायी गयी कमेटी वगैरह तो ऐसे ही थी !

लेकिन जब चारों ओर से घोषणापत्र की गुहारें उठने लगी तो हर मर्ज का इलाज बने बैठे भाजपा दफ्तर में तैनात कट-पेस्ट मास्टरों ने शायद कमान संभाल ली और दो दिनों के अंदर ही, साहब के निर्देश के अनुसार एक घोषणापत्र तैयार करके छाप डाला। और सबतो उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र से मार लिया और उसको भाजपाई  रंग देने के लिये राममंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता का केसरिया घोल मिला दिया।

इन नकलचियों को इतना भी ध्यान नहीं रहा कि भाजपा का यह घोषणापत्र 4 अप्रैल को जारी किया जा रहा है, कि 26 मार्च को। 26 मार्च को तो कांग्रेस का घोषणापत्र जारी किया गया था। कट-पेस्ट करते वक्त उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र की तारीख भी अपने घोषणापत्र में डाल दी।

और तो और, इस घोषणापत्र को जारी करते वक्त नरेन्द्र मोदी का जो भाषण तैयार किया गया, उसमें भी हूबहू सोनिया गांधी के उस भाषण के अंशों को डाल दिया गया जो उन्होंने कांग्रेस का घोषणापत्र जारी करते समय दिया था। थोड़ा सा फर्क सिर्फ यह रहा कि नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण के अंत में दो वाक्य ऐसे कह दिये जिनसे लगता था कि वे घोषणापत्र जारी नहीं कर रहे, ‘प्रधानमंत्रीपद की शपथ ले रहे हैं। उन्होंने कहा कि वे कभी अपने लिये कुछ नहीं करेंगे और कभी भी सत्ता का बदइरादों से प्रयोग नहीं करेंगे।

लगता है भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को इसप्रकार बुंदी का किला फतह करवा कर उनकोप्रधानमंत्रीपद की अतृप्त इच्छा से मुक्त करा दिया है !

सोचने की बात यह है कि मोदी सरकार कांग्रेस का विकल्प होगी या उसकी एक  भद्दी नकल !

वैसे इतिहास में जाकर देखे तो आरएसएस का भी कभी कोई संविधान नहीं था।  उसे सरदार पटेल ने जबर्दस्ती उस समय गोलवलकर पर दबाव डाल कर तैयार करवाया था जब गांधीजी की हत्या के बाद गोलवलकर जेल में थे। संविधान होने का आरएसएस वालों का तर्क होता था कि हिंदू संयुक्त परिवार का भी क्या कोई संविधान होता है! यह तो एक अलिखित, सदियों की परंपराओं से स्वत: निर्मित संविधान है। परिवार के प्रमुख कर्ता की इच्छा सर्वोपरि होती है, उसे कोई चुनौती नहीं दी जा सकती है।

हास्यास्पद ढंग से वे संघ के अवतरण को ईश्वरीय काम मानते हुए गीता के श्लोक को भी उद्धृत करते थे :

‘‘यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:
अभ्युत्थान धर्मस्य: तदात्मानं सृजाम्यहम।।’’

ऐसे में भाजपा का इस चुनाव के लिये कोई घोषणापत्र आना ही स्वाभाविक है उन्होंने मुखिया चुन दिया है। उसकी इच्छा और कथन ही तो घोषणापत्र है, क्योंकि उसे तो कभी चुनौती नहीं दी जा सकती है। ऊपर से, मोदी तो साक्षात ईश्वर भी है - हर हर मोदी ! महादेव का नया अवतार!

फिर कैसा घोषणापत्र, कैसा संविधान। सिर्फ चलेगा, हिटलर का फरमान।


वैसे इस पूरे प्रकरण से वामपंथियों का यह आरोप सही साबित होता है कि कांग्रेस और भाजपा में बुनियादी नीतियों के विषय में रत्ती भर भी फ़र्क़ नहीं है । भाजपा में अतिरिक्त दोष यह है कि वह आरएसएस द्वारा चालित होने के कारण सांप्रदायिक है और नरेन्द्र मोदी गुजरात जन-संहार के लिये एक प्रमुख ज़िम्मेदार व्यक्ति है ।