रविवार, 28 फ़रवरी 2016

‘हमें न्यायालय में पूरी आस्था है !’


कन्हैया को बंदी बने पंद्रह दिन बीत गये हैं।

उसे जब गिरफ्तार करके दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत में पेश किया गया और कुछ गुंडा वकीलों ने उस पर और पत्रकारों पर हमला किया तब सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करके पटियाला हाउस अदालत की सुनवाई को रुकवा दिया था। सुप्रीम कोर्ट के इस हस्तक्षेप से ऐसा लगा था कि जैसे वह कन्हैया, एक नागरिक के प्रति हो रहे प्रकट अन्याय के प्रति अपनी संवेदनशीलता का परिचय दे रहा है।

लेकिन दो दिन बाद, जब पूर्व एडवोकेट जैनरल सोली सोरबजी ने सुप्रीम कोर्ट में कन्हैया की जमानत की अर्जी पेश की तब सुप्रीम कोर्ट की पूर्व की संवेदनशीलता पर न्याय प्रक्रिया की परंपरा और शील का प्रश्न भारी साबित हुआ। कन्हैया की अर्जी को अस्वीकारते हुए निर्देश दिया गया कि वह इस प्रकार, अब तक के स्वीकृत कायदों का उल्लंघन करते हुए सीधे अपने हाथ में इस मामले को नहीं ले सकता। इससे एक गलत संदेश जायेगा कि नीचे की अदालतें नागरिक को न्यायिक सुरक्षा प्रदान करने में असमर्थ है। इसीलिये कन्हैया को दिल्ली हाईकोर्ट में अर्जी देने के लिये कहा गया।

इसप्रकार, न्याय से ज्यादा महत्वपूर्ण होगई न्याय की प्रक्रिया। शास्त्र की आत्मा ज्ञान से निकल कर कर्मकांड में प्रविष्ट हो गई !

बहरहाल, दिल्ली हाईकोर्ट में कन्हैया की अर्जी लगाई गई। इसीबीच, दिल्ली पुलिस का जो कमिश्नर खुले आम कह रहा था कि वह कन्हैया की जमानत का विरोध नहीं करेगा, अचानक उसने अपने चरित्र के अनुसार रंग बदल लिया। जेएनयू के और दो छात्रों ने आत्म-समर्पण किया और उनके साथ बैठा कर पूछ-ताछ करने के नाम पर कन्हैया को फिर जेल से उठा कर एक दिन के लिये पुलिस थाने में रखा गया। जहां तक जेल हिरासत का सवाल है, कहते हैं कि देशद्रोह का अभियुक्त होने के नाते उसे उसी सेल में रखा गया है जिसमें फांसी के पहले अफजल गुरू को रखा गया था।

अर्थात, कन्हैया न सिर्फ हिरासत में है, बल्कि वह बाकायदा सजा की तमाम यातनाओं को भी भोग रहा है। सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप और कानून की प्रक्रिया के प्रति निष्ठा कन्हैया को इस अन्याय और यातना से बचाने के मामले में अब तक कुछ नहीं कर पाए हैं।

कल, सोमवार को, हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई होगी। इसके परिणाम के बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कहना मुश्किल ही लगता है। कौन जाने, सरकार और पुलिस उसे देश का नम्बर एक दुश्मन बताने के लिये कौन सी नई कहानी तैयार कर लें ! उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा की ऐसी-ऐसी धाराएं जड़ दें कि उसे जमानत देना अदालत के बूते के बाहर की बात हो जाए। देश की बाकी जनता को आज्ञाकारी पशु बने रहने का संदेश देने के लिये एक साधारण नागरिक के खिलाफ राज्य की पूरी शक्ति को यदि झोंक दिया गया तो कोई क्या कर सकता है !
सचमुच, आज चिड़ियों और एक बहेलिये की कहानी याद आती है। चिडि़यों ने यह सीख लिया था कि बहेलिया आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, लेकिन हम फंसेंगे नहीं। इसके बावजूद, जब बहेलिये ने जाल बिछाया तो इसी सीख को रटते-रटते सारी चिड़ियाएं उस जाल में फंसती चली गई।

हमारे नागरिक समाज में भी लोग ‘हमें न्यायालय में पूर्ण आस्था है’ रटते-रटते ही न्यायिक प्रक्रिया की जटिलताओं के जाल में फंस कर नाना प्रकार की सजाएं भुगतते रहते हैं। जैसे आज कन्हैया भुगत रहा है। यही हमारी नियति है ।

हम भी यही कहेंगे - हमें न्यायालय में पूरी आस्था है।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

संसद में बजट पेश किये जाने की पूर्व बेला में विचार का एक बिंदु :


हमारे मित्र अजय तिवारी ने लिखा - "यूरोप फिर भयानक मंदी से घिर रहा है। 2008 की मंदी पूरी तरह ख़त्म हुई नहीं थी और यह नया दौर आन पड़ा।उनके अब तक के प्रयोग अल्पकालिक सिद्ध हुए हैं। ... मेरी राय यह है कि संकट पूँजीवादी वितरण प्रणाली की देन है। वह सामाजिक पूँजी को समेटकर क्रमशः कुछ लोगों के हाथ में इकठ्ठा करती जाती है। इसीसे विषमता जन्म लेती है। जब तक कोई व्यवस्था इस विषमता को घटाने का रास्ता नहीं निकालती तब तक इन ऊपरी उपायों से कोई लाभ होनेवाला नहीं है।"

इस पर हमने लिखा -
"यह अति-उत्पादन और मुनाफ़े की आम दर में गिरावट का संकट है जिसका पूँजीवाद के पास इलाज नहीं है । सामाजिक विषमता वाली बात आपने बिल्कुल सही कही है, लेकिन इसे दूर करने की बात ग़ैर-पूँजीवादी बात होगी । पूँजीवाद की तो चालक शक्ति है यह वैषम्य । अमेरिका में 1930 से 1970 के काल में आयकर में वृद्धिमान (progressive) दर को लागू करके और न्यूनतम मजूरी को लगातार बढ़ा के इस विषमता पर अंकुश लगाया गया था । कैनेडी के काल में अधिकतम आय पर 92 प्रतिशत आयकर हो गया था । और यही चार दशक अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था का स्वर्णिम युग रहा जब बेरोज़गारी नहीं रही और आर्थिक विकास की दर सबसे ज्यादा हो गई ।

सत्तर के दशक में वियतनाम युद्ध में पराजय और जर्मनी तथा जापान की तरह की युद्ध में पराजित शक्तियों की अर्थ-व्यवस्था में आए नये उभार और उनके द्वारा अमेरिकी उत्पादों को दी गई भारी चुनौती ने अमेरिका में एक प्रकार की पस्त-हिम्मती पैदा की और चार दशकों के बाद रेगन का रिपब्लिकन शासन आगया । रेगन ने आयकर की वृद्धिमान दरों के सूत्र को उलट दिया और न्यूनतम वेतन में वृद्धि पर रोक लगाने की कोशिश की । आयकर की अधिकतम दर को सिर्फ 28 प्रतिशत पर बाँध दिया गया । अमेरिका फिर क्रमश: बढ़ती हुई सामाजिक ग़ैर-बराबरी के चलते अंत में आर्थिक गतिरोध में फँसता चला गया ।

क्लिंटन और ओबामा के काल में आयकर की अधिकतम दर बढ़ कर 40 प्रतिशत पर गई, न्यूनतम मजूरी बढ़ कर फिर दस डालर प्रति घंटा हो गई, लेकिन इन्होंने भी वृद्धिमान दर के फ़ार्मूले को लागू नहीं किया । ओबामा ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य की अपनी योजना पर अडिग रह कर आम लोगों को थोड़ी अतिरिक्त राहत देने का काम किया है । आज डेमोक्रेटिक पार्टी में बर्नी सैंडर्स इसी बात पर कि वह आयकर में वृद्धिमान दर को लागू करेगा और न्यूनतम मजूरी को पंद्रह डालर प्रति घंटा पर ले जायेगा, हिलैरी क्लिंटन को कड़ी टक्कर दे रहा है । सैंडर्स का कहना है कि अमेरिका इस ग़ैर-बराबरी से थक गया है । संभव है कि इस बार क्लिंटन किसी तरह सैंडर्स की चुनौती का मुक़ाबला कर ले, लेकिन उसकी बातों ने अमेरिका के पचास साल से नीचे के मतदाताओं पर गहरा असर डालना शुरू कर दिया है । और, इस बात को लंबे दिनों तक दबा कर रखा नहीं जा सकेगा ।
कहना न होगा, अगर अमेरिका में फिर से चार दशक पहले की भावना विजयी होती है तो यह सारी दुनिया के लिये एक सबसे बड़ी ख़बर होगी । यह उस मिथक को तोड़ती है कि पूँजीपतियों को तमाम छूट देकर ही अार्थिक विकास मुमकिन है । बल्कि आर्थिक विकास और ख़ुशहाली की रामवाण दवा सामाजिक ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करना है ।

अगर ऐसा होता है तो फिर कभी किसी को मुकेश अंबानी की तरह सात हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च करके पाँच लोगों के परिवार के लिये एक घर बनाने की अश्लीलता के प्रदर्शन का मौक़ा नहीं मिलेगा । "

सवाल है कि क्या मोदी सरकार भारत की तरह के सबसे भयंकर ग़ैर-बराबरी से ग्रस्त समाज में सुधार के लिये ऐसे किसी वृद्धिमान आयकर के सूत्र और न्यूनतम मजूरी में वृद्धि तथा अधिकतम वेतन की सीमा तय करने के किसी रास्ते पर विचार भी करने के लिये तैयार है ?

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

अंबर्तो इको नहीं रहे


आज की दुनिया के एक सर्वाधिक चर्चित विचारक, दार्शनिक, उपन्यासकार, भाषाशास्त्री, साहित्यकार और जीवन के सभी क्षेत्रों में चिरस्थायी से दिखाई देने वाले सभी मूल्यों पर प्रश्न उठाने वाले इटली के एक प्रमुख सार्वजनिक बुद्धिजीवी अंबर्तो इको हमारे बीच नहीं रहे। मृत्यु के समय उनकी उम्र चौरासी साल थी।

दुनिया के आधुनिक बौद्धिक जगत के बारे में अगर कोई कुछ भी खबर रखता है तो ऐसा माना जा सकता है कि वह इको के नाम से जरूर ही परिचित होगा। और, जो आज के जीवंत बौद्धिक विमर्शों में रुचि रखते हैं, वे तो इको के लेखन की कत्तई अवहेलना नहीं कर सकते हैं।

इको का नाम आज दुनिया के उन दो-चार गिने-चुने नामों में से एक है जिनके विचारों के आकर्षण ने घोषित तौर पर विचारधारा और इतिहास के अंत की बंद गली के आखिरी छोर तक पहुंचा दिये गये समय में भी विचार और विचारवानों की प्रतिष्ठा को बनाये रखने में एक अहम भूमिका अदा की हैं। इटली के इस अध्यापक-विचारक ने दुनिया भर में ठस और कल्पनाशून्य मान लिये जा रहे अध्यापकों की जमात को ताउम्र शोध और सभ्यता-विमर्श के नये से नये पहलू के साथ जुड़ कर एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी की सार्थक भूमिका अदा करने का रास्ता दिखाया था। उसने विश्वविद्यालयों में ज्ञान-चर्चा की कर्मकांडी जड़ता को तोड़ा था।

इटली - यूरोपीय रिनैसांस और ज्ञानप्रसार आंदोलन का हृदय-स्थल, ईसाई धर्म और उससे जुड़े तमाम धर्मशास्त्रीय विमर्शों का एक केन्द्रीय स्थान, कैथोलिक चर्च के मुख्यालय वैटिकन का देश, मुसोलिनी के फासीवाद की प्रयोगशाला, बेनडेट्टो क्रोचे की तरह के सौन्दर्यशास्त्रीय चिंतक की कर्मभूमि और अंतोनियो ग्राम्शी जैसे महान मार्क्सवादी विचारक का देश। अंबर्तो इको को आज के युग के एक ऐसे दार्शनिक-विचारक की प्रतिष्ठा मिली थी जिसमें इटैलियन ज्ञान-मीमांसा की जैसे अब तक की तमाम धाराएं एक साथ प्रवाहित हो रही हो, और सब एकमेक होकर चिंतन के किसी नये उत्कर्ष का उदाहरण पेश कर रही हो।

यह महज एक संयोग ही है कि वे लगभग पंद्रह साल पहले एक बार भारत आए थे और दिल्ली में हमें उन्हें देखने का मौका मिला था। तभी से हमारे निजी पुस्तकालय में एक-एक कर उनकी कई पुस्तके शामिल होती चली गई और किसी भी गंभीर लेखन की तैयारी के वक्त उनकी किताबों से गुजरना हमारे नियमित अभ्यास का हिस्सा बन गया। कहते हैं इको के दो निजी पुस्तकालयों में लगभग पचास हजार के करीब किताबें हैं।

इको का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास रहा है - द नेम ऑफ द रोज। एक मठ में मिली चौदहवीं सदी की पाण्डुलिपि पर आधारित किताब की रोमांचक कहानी। सात दिनों में विभाजित किताब की कहानी, जिसका हर दिन पूजा-अर्चना की वेलाओं में बंटा हुआ है।

कल हम रवीश कुमार के कार्यक्रम में दिखाये गये टीवी के जगत के अंधेरे की चर्चा कर रहे थे। इस उपन्यास के ‘अंतिम पृष्ठ’ के पहले का अध्याय है - NIGHT (रात)। इस अध्याय के शीर्ष पर लिखा हुआ है - NIGHT In which the ecprosis takes place, and because of excess of virtue the forces of hell prevail। (कयामत की रात जिसमें पूण्यों के अतिरेक के कारण नर्क की ताकतें छा जाती है।) हम अभी ऐसी ही ‘पूण्यात्माओं’ के अधीन रह रहे हैं।

इस उपन्यास के प्राक्कथन का पहला वाक्य है -In the beginning was the Word and the Word was with God, and the Word was god. (शुरू में शब्द था, शब्द ईश्वर के पास था, ईश्वर शब्द था।) ‘शब्द ब्रह्म’ के इस एक कथन के साथ ही हम इस उपन्यास की धारा में उतर पड़े थे।

हेगेल ने कहा था - शब्द वस्तु की हत्या है। जो भगवान अपने दैविक जगत के सारे ताम-जाम को छोड़ कर मनुष्य रूपों में अवतरित होते हैं, जब उनकी मृत्यु होती हैं, अर्थात जब वे अपनी जगह छोड़ने लगते हैं, प्रेरणादायी नहीं रह जाते, तब उनकी मृत्यु हमें विचारों की श्रृंखला से काटने के बजाय शब्द की चरम शक्ति से जोड़ती है। बौद्धिकता हमेशा प्रभु-सत्ताओं की मौत का जश्न मनाती है।

बहरहाल, इको की मृत्यु नि:संदेह दुनिया के बौद्धिक जगत की एक बड़ी क्षति है। हम उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

यहां हम वीकीपीडिया के उस लिंक को दे रहे हैं जिसमें इको के जीवन और कृतित्व के बारे में विस्तृत तथ्य दिये हुए हैं।

Umberto Eco - Wikipedia, the free encyclopedia
Umberto Eco OMRI (Italian: [umˈbɛrto ˈɛːko]; born 5 January 1932, died 19 February 2016) was an Italian semiotician, essayist, philosopher, literary critic, and novelist. He is best known for his groundbreaking 1980 historical mystery novel Il nome della rosa (The Name of the Rose), an intellectual…
EN.WIKIPEDIA.ORG

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

‘‘यह अंधेरा ही आज के टीवी की तस्वीर है’’



http://www.ndtv.com/video/player/prime-time/prime-time-that-we-can-hear-what-we-say/404451

क्या जुल्मतों के दौर में भी गीत गाये जायेंगे ?
हां, जुल्मतों के दौर के ही गीत गाये जायेंगे!

बर्तोल्त ब्रेश्त की ये अमर पंक्तियां जैसे आज हमारे सामने मूर्त हो गई थी जब आज सुबह की शांति में हमने इंटरनेट के जरिये रवीश कुमार के कल (19 फरवरी) के प्राइम टाईम के एपिसोड को देखा। देखा नही - बल्कि उसके कतरे-कतरे को पूरी तल्लीनता से पीया ; ठहर-ठहर कर, लगातार सोचते हुए उस संयत-संतुलित आवाज की ध्वनि के नाद को अपनी धड़कनों पर जीया।

भारत में अमिताभ बच्चन की आवाज को एक जादूई प्रभाव पैदा करने वाली आवाज कहते हैं। लेकिन सच की आवाज का जादू क्या होता है, आज इसे रवीश की आवाज से जाना।

जी पी देशपांडे का एक प्रसिद्ध नाटक है - आंधार यात्रा। यह रवीश कुमार की अंधेरे की यात्रा है, जगमग रोशनी के अंधेरे के खिलाफ घुप अंधेरे की रोशनी की यात्रा। एक काले स्क्रीन पर उभरते कुछ शब्द और आदमी को अंदर तक हिला देने वाली एक पटकथा के वाचन की यात्रा। यह अंधेरा हमारे वर्तमान समय का अंधेरा है - खास कर टीवी के जगत का अंधेरा है। एक ऐसा अंधेरा जिसमें एंकरों के रूप में टीवी की दुनिया के सारे भूत, पिशाच, डायन, डाकिनों के साथ ही उल्लू और घुग्गु नाचा करते है - हॉ, हुआ करते-करते। जैसे सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया... और सबका सरदार - अर्नब गोस्वामी ! यह काला स्क्रीन ही टीवी जगत की सच्ची तस्वीर है।

रवीश कुमार के इस कार्यक्रम को मैं कोरी क्लासिक ऊंचाई का कार्यक्रम नहीं कहना चाहता। ‘क्लासिकल’ के साथ ढेर सारे भ्रमों और झूठों का बोझ जुड़ गया है। यह लगातार एक ही चीज को रटे जाने, दोहराये जाने का पर्याय बन गया है। प्राचीन काल से दोहराये जा रहे पाठों, रागों और धुनों का दोहराव - बस मामूली हेर-फेर के साथ। लेकिन रचनाशीलता इस दोहराव की पथरीली जमीन में पड़ने वाली दरारों से पैदा होती है। वह यथास्थिति के खिलाफ आदमी की संघर्षशीलता से पैदा होती है। रवीश की यह प्रस्तुति मनुष्य की इसी श्रेष्ठ रचनाशीलता का उदाहरण है।

हमें आज भी याद है सन् 1975 के आंतरिक आपातकाल की। निष्ठुर सेंसर अधिकारियों ने अखबार के पन्नों पर से रवीन्द्रनाथ तक को उड़ा दिया था। तब कई अखबार कई दिनों तक बिना किसी अक्षर या तस्वीर की सजावट वाले रिक्त स्थानों के साथ प्रकाशित हुए थे। उन दिनों हम माकपा के हिंदी साप्ताहिक ‘स्वाधीनता’ से जुड़े हुए थे। आपातकाल की घोषणा के ठीक बाद प्रकाशित हुए ‘स्वाधीनता’ के अंक के पहले पृष्ठ से लेकर अंदर के कई पृष्ठों पर खाली जगह छोड़ दी गई थी। ‘स्वाधीनता’ का वह अंक आज भी हमें उसके शब्दों-तस्वीरों से लदे हुए अंकों से कहीं ज्यादा प्रेरणादायी, और प्रिय भी लगता है।

कहना न होगा, सन् ‘75 के आंतरिक आपातकाल के दिनों में अखबारों के इसी रिक्त स्थान ने कल के रवीश कुमार के कार्यक्रम में अंधेरे का रूप ले लिया था। इसे हमारी स्मिृतियों से कभी कोई पोंछ नहीं सकेगा।

यह अंधेरा दौलतमंदों, ब्लैकमेलरों, बिकाऊ और अपराधी एंकरों की जकड़ में कसमसाते हमारे टेलिविजन के आभासी जगत में पसरे हुए अंधेरे की तस्वीर है।

अपने प्रत्येक मित्र से हमारा यह आंतरिक आग्रह है कि यदि आप आज भी एक बेहतरीन, स्वस्थ, संवेदनशील, न्यायपूर्ण और मानवीय समाज के निर्माण के प्रति अपनी आस्था को बनाये हुए हैं तो रवीश कुमार के इस कार्यक्रम के वीडियो को जरूर शेयर करें। इसे देश के कोने-कोने तक गूंजाएं, ताकि हमारे मन-मस्तिष्क, हमारी सोचने की ताकत पर छाये हुए टेलिविजन के जगत के अंधेरे को छांटा जा सके, इसके जघन्य एंकरों के सच को सब लोग जान सके, उन्हें धिक्कार सके, उनका परित्याग कर सके।

रवीश कुमार को इस शानदार स्क्रिप्ट और उसकी उतनी ही अर्थपूर्ण प्रस्तुति के लिये अशेष धन्यवाद। उनके इस कार्यक्रम को टीवी कार्यक्रमों के एक सर्वश्रेष्ठ कार्यक्रम के तौर पर हमेशा याद रखा जायेगा।  


http://www.ndtv.com/video/player/prime-time/prime-time-that-we-can-hear-what-we-say/404451

हार्पर ली नहीं रही


'To Kill a Mockingbird' उपन्यास की किंवदंती लेखिका हार्पर ली नहीं रही । पचपन साल पहले एक काले परिवार को नस्लवादियों की घृणा से बचाने की लड़ाई लड़ने वाले छोटे से क़स्बे के वक़ील ऐटिकस फ़िंच की लड़ाई की अमर कहानी कहानी कहने वाली हार्पर ली के इस उपन्यास की अब तक चार करोड़ से ज्यादा प्रतियाँ बिक चुकी है । इस उपन्यास को पुलिजर पुरस्कार भी मिला था ।
आज जब हम भारत में काला कोट पहने वकीलों को देशभक्ति की आड़ में सांप्रदायिक नफ़रत के ज़हर को उगलते हुए देखते हैं, तब इस अमेरिकी लेखिका का जाना और भी दुखजनक लगता है । उन्होंने सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले एक वक़ील की कहानी कहके सारी दुनिया को न्याय और बराबरी का संदेश दिया था ।
ली नयासी साल की हो चुकी थी । आज ही अमेरिका के अलबामा के मोनरेविले में अपने घर के निकट के एक नर्सिंग होम में उनकी मृत्यु हुई ।
हम उन्हें आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।

अभूतपूर्व कृषि संकट

आज हम एक अभूतपूर्व कृषि संकट के मुहाने पर पहुंच चुके हैं। प्रतीकों और लफ्फाजियों में जीने वाली मोदी सरकार गांवों में अकाल और सूखे का भी नया नामकरण करके इसकी विकराल सचाई को छिपाने में लगी हुई है। इस सरकार के विशेषज्ञ अब अकाल को अकाल नहीं, डेफिसिट अर्थात घटती कह रहे हैं और इसकी भी कई श्रेणियां बना दी है - कम घटती, थोड़ी ज्यादा घटती, अधिक घटती। लेकिन इन्हें पता नहीं है कि आदमी के जीवन का वास्तविक संकट इन नये-नये नामों से नहीं टला करता।
हरियाणा में जाट आरक्षण के नाम पर जो हंगामा मचा हुआ है, उसकी पृष्ठभूमि में इस देशव्यापी कृषि संकट की आहटों को भी सुना जा सकता है। कहां का आक्रोश कहां निकले, कहना मुश्किल होता है।

हरियाणा को संभालने फौज

जल रहे हरियाणा को संभालने फौज जा रही है।
जेएनयू के प्रकरण में संघ परिवारियों की ओर से छात्रों के खिलाफ प्रचार के लिये कुछ फौजियों को उतारा गया था।
टेलिविजन चैनलों पर सरकारी प्रवक्ता के तौर पर पूर्व सैनिक अधिकारियों को अक्सर उतारा जाता है।
इन सब संदर्भ में याद आती है ‘लुई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रुमेर’ में कार्ल मार्क्स के इस विश्लेषण की, जब वे लिखते हैं - ‘‘ इस प्रकार समय-समय पर फौजी बारिक और पड़ाव का दबाव फ्रांसीसी समाज के मस्तिष्क पर डाल कर उसे ठंडा कर देना; इस प्रकार तलवार और बंदूक को समय-समय पर न्यायाधीश और प्रशासक, अभिभावक और सेंसर बनने देना, उन्हें पुलिसमैन और रात के संतरी का काम करने देना ; इस प्रकार फौजी मूंछ और फौजी वर्दी को समय-समय पर, ढिंढोरा पीट कर, समाज की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता एवं समाज का उपदेष्टा घोषित करना - यह सब करने के बाद क्या अंत में यह लाजिमी न था कि फौजी बारिक और पड़ाव, तलवार और बंदूक, मूंछ और वर्दी को एक दिन यह सूझ पैदा होती कि क्यों न अपने शासन को सर्वोच्च घोषित करके एक ही बार में समाज का उद्धार कर दिया जाये तथा नागरिक समाज को अपना शासन आप करने की चिंता से सब दिनों के लिए मुक्त कर दिया जाये ?’’
कितनी गहरी चेतावनी छिपी हुई है मार्क्स के इस कथन में हमारे लिये। हमारे शासक दल का सेना पर ज्यादा से ज्यादा आश्रित होना हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था के लिये कैसे-कैसे खतरे पैदा कर सकता है, सोच कर डर लगता है।

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

जे एन यू परिघटना पर लेखकों का बयान


http://jantakapaksh.blogspot.in/2016/02/blog-post_17.html
बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

हम हिन्दी के लेखक देश के प्रमुख विश्वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 9 फरवरी को हुई घटना के बाद से जारी पुलिसिया दमन पर पर गहरा क्षोभ प्रकट करते हैं। दुनिया भर के विश्वविद्यालय खुले डेमोक्रेटिक स्पेस रहे हैं जहाँ राष्ट्रीय सीमाओं के पार सहमतियाँ और असहमतियाँ खुल कर रखी जाती रही हैं और बहसें होती रही हैं। यहाँ हम औपनिवेशिक शासन के दिनों में ब्रिटिश विश्वविद्यालयों में भारत की आज़ादी के लिए चलाये गए भारतीय और स्थानीय छात्रों के अभियानों को याद कर सकते हैं, वियतनाम युद्ध के समय अमेरिकी संस्थानों में अमेरिका के विरोध को याद कर सकते हैं और इराक युद्ध मे योरप और अमेरिका के नागरिकों और छात्रों के विरोधों को भी। सत्ता संस्थानों से असहमतियाँ देशद्रोह नहीं होतीं। हमारे देश का देशद्रोह क़ानून भी औपनिवेशिक शासन में अंग्रेज़ों द्वारा अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ को दबाने के लिए बनाया गया था जिसकी एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक समाज में कोई आवश्यकता नहीं। असहमतियों का दमन लोकतन्त्र नहीं फ़ासीवाद का लक्षण है।
इस घटना में कथित रूप से लगाए गए कुछ नारे निश्चित रूप से आपत्तिजनक हैं। भारत के टुकड़े करने या बरबादी की कोई भी ख़्वाहिश स्वागतेय नहीं हो सकती। हम ऐसे नारों की निंदा करते हैं। साथ में यह भी मांग करते हैं कि इन विडियोज की प्रमाणिकता की निष्पक्ष जांच कराई जाए। लेकिन इनकी आड़ में जे एन यू को बंद करने की मांग, वहाँ पुलिसिया कार्यवाही और वहाँ के छात्रसंघ अध्यक्ष की गिरफ्तारी कतई उचित नहीं है। जैसा कि प्रख्यात न्यायविद सोली सोराबजी ने कहा है नारेबाजी को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता। यह घटना जिस कैंपस में हुई उसके पास इससे निपटने और उचित कार्यवाही करने के लिए अपना मैकेनिज़्म है और उस पर भरोसा किया जाना चाहिए था।
हाल के दिनों में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में ख्यात कवि और विचारक बद्रीनारायण पर हमला, सीपीएम के कार्यालयों पर हमला, दिल्ली के पटियाला कोर्ट में कार्यवाही के दौरान एक भाजपा विधायक सहित कुछ वकीलों का छात्रों, शिक्षकों और पत्रकारों पर हमला बताता है कि देशभक्ति के नाम पर किस तरह देश के क़ानून की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। इन सबकी पहचानें साफ होने के बावजूद पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही न किया जाना इसे सरकारी संरक्षण मिलने की ओर स्पष्ट इशारा करता है। असल में यह लोकतन्त्र पर फासीवाद के हावी होते जाने का स्पष्ट संकेत है। गृहमंत्री का एक फर्जी ट्वीट के आधार पर दिया गया गंभीर बयान बताता है कि सत्ता तंत्र किस तरह पूरे मामले को अगंभीरता से ले रहा है। ऐसे में हम सरकार से मांग करते हैं कि देश में लोकतान्त्रिक स्पेसों को बचाने, अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार की रक्षा और गुंडा ताकतों के नियंत्रण के लिए गंभीर कदम उठाए। जे एन यू छात्रसंघ अध्यक्ष को फौरन रिहा करे, आयोजकों का विच हंट बंद करे, वहाँ से पुलिस हटाकर जांच जेएनयू के प्रशासन को सौंपें तथा पटियाला कोर्ट में गुंडागर्दी करने वालों को कड़ी से कड़ी सज़ा दें।
मंगलेश डबराल
राजेश जोशी
ज्ञान रंजन
पुरुषोत्तम अग्रवाल
असद ज़ैदी
उज्जवल भट्टाचार्य
मोहन श्रोत्रिय
ओम थानवी
सुभाष गाताडे
अरुण माहेश्वरी
नरेंद्र गौड़
बटरोही
कुलदीप कुमार
सुधा अरोड़ा
सुमन केशरी
नन्द भारद्वाज
ईश मिश्र
लाल्टू
कुमार अम्बुज
शमसुल इस्लाम
सुधीर सुमन
ऋषिकेष सुलभ
विनोद दास
राजकुमार राकेश
हरिओम राजोरिया
अनिल मिश्र
नंदकिशोर नीलम
अरुण कुमार श्रीवास्तव
मधु कांकरिया
सरला माहेश्वरी
वंदना राग
मुसाफिर बैठा
अरविन्द चतुर्वेद
प्रमोद रंजन
हिमांशु पांड्या
वैभव सिंह
मनोज पाण्डेय
शिरीष कुमार मौर्य
अशोक कुमार पाण्डेय
वर्षा सिंह
विशाल श्रीवास्तव
उमा शंकर चौधरी
चन्दन पाण्डेय
असंग घोष
विजय गौड़
अरुणाभ सौरभ
देवयानी भारद्वाज
पंकज श्रीवास्तव
कविता
हरप्रीत कौर
अनुप्रिया
राकेश पाठक
संजय जोठे
रामजी तिवारी
कृष्णकांत
मनोज पटेल
देश निर्मोही
प्रज्ञा रोहिणी
दीप सांखला
अमलेंदु उपाध्याय
प्रमोद धारीवाल
अनिल कार्की
देवेन्द्र कुमार आर्य
प्रमोद कुमार तिवारी
अरविंद सुरवाड़े (मराठी)
आलोक जोशी
रोहित कौशिक
मनोज छबड़ा
अमिताभ श्रीवात्सव
ऋतु मिश्रा
कनक तिवारी
ईश्वर चंद्र
नित्यानन्द गाएन
शशिकला राय
पंकज मिश्रा
कपिल शर्मा (सांगवारी)
विभास कुमार श्रीवास्तव
मेहरबान सिंह पटेल 

विचारशून्यता की खाई में कार्यकर्ता


अरुण माहेश्वरी


आरएसएस की हमेशा से एक मूलभूत अवधारणा है कि भारत में हिंदू ही राष्ट्र है, और हिंदू भी सिर्फ वे हैं जो आरएसएस के साथ हैं। आरएसएस के सिद्धांतकार और प्रमुख सरसंघचालक गोलवलकर कहा करते थे कि हिंदुस्थान में राष्ट्र का अर्थ ही हिंदू है। गैर-हिंदुओं के लिये यहां कोई स्थान नहीं है। इस मामले में वे पूरी तरह से हिटलर के इस फार्मूले को मान कर चलते थे कि ‘‘मूलगामी विभेद वाली संस्कृतियों के बीच कभी मेल हो ही नहीं सकता।’’ उनकी साफ राय थी कि गैर-हिंदू इस देश में रह सकते हैं लेकिन सीमित समय तक और बिना किसी नागरिक अधिकार के। उनके शब्दों में -‘‘विदेशी तत्वों के लिये सिर्फ दो रास्ते खुले हैं, या तो वे राष्ट्रीय जाति के साथ मिल जाएं और उसकी संस्कृति अपना लें या जब तक राष्ट्रीय जाति अनुमति दे तब तक उनकी दया पर रहें और जब राष्ट्रीय जाति कहे कि देश छोड़ दो तो छोड़ कर चले जाएं। यही अल्पसंच्यकों के बारे में आजमाया हुआ विचार है। यही एकमात्र तर्कसंगत और सही समाधान है।’’ (एम.एस.गोलवलकर, वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 47.48)

यह है राष्ट्र और राष्ट्रवाद के बारे में आरएसएस की मूलभूत, हिटलर के विचारों से प्रेरित विचारधारा। कहा जा सकता है - आरएसएस का सत्व। बाद के इतिहास में हिटलर का जो जघन्य रूप दुनिया ने देखा और खुद उसकी जो दुर्गति हुई, इसीके चलते आरएसएस और उसका संघ परिवार अपने विचारों के इस ‘शुद्ध’ रूप पर नाना प्रकार के मुलम्मे चढ़ाते रहने के लिये मजबूर होता रहा है। लेकिन यह सच है कि इन्हें जब भी थोड़ी सी अनुकूल परिस्थितियां दिखाई देती है, ये अपने इस मूल रूप की झलक देने से बाज नहीं आते हैं। भारत में सांप्रदायिक दंगों के इतिहास से लेकर, बाबरी मस्जिद को ढहाने और 2002 के गुजरात दंगों, मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस के विस्फोटों की तरह की आधुनिक भारत की सबसे शर्मनाक घटनाओं में संघपरिवार के लोगों की भूमिका कोई छिपी हुई बात नहीं है।

बहरहाल, 2013 में जबसे मोदी जी की सरकार बनी है, संघ परिवार के लोग इस अनुकूल वातावरण में फिर एक बार अपने मूल, दिगंबर रूप में सामने आने के लिये मचलने लगे है। उनकी इधर की तमाम गतिविधियों से, लेखकों-कलाकारों की हत्याओं से लेकर उन्हें अपमानित करने और बीफ की तरह के मुद्दों को उछाल कर मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने,  हर विरोध करने वाले को पाकिस्तान चले जाने की धमकी देने से लेकर उनके नेता, मंत्री तक रोजाना ऐसी-ऐसी बाते कहते हैं जिनकी एक स्वतंत्र, जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष देश में आसानी से कल्पना भी नहीं की जा सकती है। अब फिर एक बार ऐसी स्थिति बन गई है जब आरएसएस के विचार महज कोई विचार, आदमी के अंतर की चीज भर नहीं, बल्कि एक ठोस सचाई बन रहे हैं। सत्ताधारियों द्वारा क्रमश: संघ परिवारियों के अलावा बाकी पूरे देश को देशद्रोही, राष्ट्र-विरोधी करार दिया जा रहा है !

हम जानते हैं कि जब भी कोई विचार इस प्रकार से अति क्षुद्र अर्थों में ठोस रूप लेने लगता है, तब वह बेहद सिकुड़ कर अपने साथ विचारशून्यता की गहरी खाई भी पैदा करता है - एक ऐसी खाई जिसमें आदमी के अंतर की बाकी सारी चीजें गुम हो जाया करती है। उस क्षुद्र व्यवहार के अलावा जो कुछ बचा रहता है वह है - विचारशून्यता की एक गहरी, अंधेरी खाई - उस घनघोर अंधेरेपन का आतंक और संभवत: कुछ दुराग्रही लोगों के लिये ऐसी अंधेरी खाई का आकर्षण भी! ऐसी स्थिति से जुड़े आदमी के लिये वास्तव में यह एक ऐसी भंवर में फंसने की तरह है, जो उससे उसके विचारवान मनुष्वत्व के बोध को छीन कर, उसे खींच कर उसके अपने चरम पतन के तल तक ले जाती है।

इस बात को आरएसएस और संघ परिवार की विचारधारा के संदर्भ के बजाय दूसरे संदर्भों में भी अच्छी तरह से समझा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, कार्ल मार्क्स ने मानव इतिहास के विश्लेषण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि वर्ग-संघर्ष इतिहास की एक प्रमुख चालिका शक्ति है। इसीलिये, इतिहास की इस गति में सचेत भूमिका अदा करने के लिये कम्युनिस्ट पार्टियां वर्ग संघर्ष को तेज करने के उद्देश्य से उत्पीडि़त जनों को संगठित करने और उनकी अधिकार चेतना को बढ़ाने के कामों पर बल देती है। लेकिन दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में यह सचाई बार-बार दिखाई दी है कि अक्सर वर्ग संघर्ष के इस विचार पर अमल करते हुए ‘वर्ग शत्रु’ के सफाये के नाम पर उग्रवादी समूह हत्याओं और लूट-खसोट की राजनीति का रास्ता पकड़ लेते हैं। पार्टी के अंदर के विरोधियों के सफाये तक के लिये इसका प्रयोग किया जाने लगता है। इसे ही कहते हैं इतिहास के अंतर को चालित करने वाले एक विचार को क्षुद्र प्रकार की ठोस कार्रवाई में सिमटा देना। यह विचार पर अमल के नाम पर विचारशून्यता की गहरी अंधेरी खाई को पैदा करने के समान है। और जाहिर है कि इसकी भंवर में फंसा हुआ आदमी अपने विचारवान मनुष्यत्व को गंवा कर सबसे पतित, यहां तक कि हत्यारे, षड़यंत्रकारी का रूप ले सकता है।

इस बात को साहित्य के एक और उदाहरण से भी समझा जा सकता है। नोबेलजयी गैब्रियल गार्सिया मार्केस के जिस उपन्यास ‘वन हंड्रेड ईयर्स आफ सालिच्यूड’ को नोबेल पुरस्कार दिया गया, मार्केस ने करोड़ों डालर के प्रस्तावों को भी ठुकरा कर भी उस उपन्यास पर कभी कोई फिल्म नहीं बनने दी। मार्केस का कहना था कि मैं अपने पात्रों को, खास तौर पर उसकी दादी उर्सुला को, जिसे उपन्यास की नायिका भी कहा जा सकता है, किसी सोफिया लॉरेन या अन्य नायिका की सूरत प्रदान नहीं कर सकता। उर्सुला इस उपन्यास में न जाने कितने-कितने सालों तक जी रही होती है और एक ऐसा चरित्र है जिसके साथ स्पेन के सुदूर गांवों से लेकर लातिन अमेरिका के गांवों तक के लोग अपने अनुभवों को जोड़ लेते हैं। ऐसे में, जैसे ही उसे कोई एक ठोस रूप दिया जायेगा, उसका यह सार्विक आकर्षण हमेशा के लिये खत्म हो जायेगा।

कहना न होगा, आज मोदी शासन में, एक के बाद एक, लगातार अल्पसंख्यकों, दलितों, छात्रों, बुद्धिजीविायों को हमले का निशाना बना कर और सभी भाजपा-विरोधियों को बार-बार राष्ट्र-विरोधी करार कर संघियों के लिये पतन की ऐसी ही एक भंवरनुमा खाई तैयार की जा रही है। इसमें फंसे हुए संघ परिवार के तमाम लोग अभी चरम नफरत के साथ सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों पर भी जिस गंदी जुबान में, भद्दी-भद्दी गालियों के साथ बातें कर रहे हैं, वह इसी सचाई को जाहिर करता है। परिस्थति ने राजनीतिक कार्यकर्ताओं के एक तबके की सूरत को गालियां उगलने वाले उन्मादित लोगों की सूरत में बदलना शुरू कर दिया है।

पता नहीं ये लोग कैसे फिर मनुष्य के अंतर के साथ, उन्माद की दशा से निकल कर अपने होशों-हवास में लौटेंगे!


सीपीआई(एम) में फिर एक बार गहरा आंतरिक संकट


सीपीआई(एम) के पोलिट ब्यूरो की अभी चल रही बैठक में विचार का सबसे महत्वपूर्ण विषय यह है कि पश्चिम बंगाल में वह कांग्रेस के साथ मोर्चा बना कर चुनाव में उतरेगी या नहीं । ख़बरों के अनुसार, कल तक की बैठक में इस पर कोई निर्णय नहीं हो पाया है । यह बैठक आज भी चलेगी । कहा जा रहा है इस विषय में अंतिम निर्णय आगामी कल से शुरू होने वाली केंद्रीय कमेटी की बैठक में ही लिया जा सकेगा ।

अख़बारों से यह भी पता चल रहा है कि सीपीआई(एम) का नेतृत्व इस विषय पर पूरी तरह से बँटा हुआ है । पार्टी के सर्वोच्च निकाय में कितने लोग पक्ष में है और कितने पक्ष में, इसकी भी गणना हो रही है ।

लगता है सीपीआई(एम) फिर एक संकट के मुहाने पर है । किसी भी राजनीतिक पार्टी में इस प्रकार के एक अत्यंत अहम राजनीतिक सवाल पर, जिस पर पार्टी का और देश की भावी राजनीति का भी भविष्य निर्भर करता हो, कोई निर्णय सर्व-सम्मति के बजाय यदि मतदान के ज़रिये लेने की नौबत आजाए तो यह उस पार्टी को निश्चित तौर पर दिशाहीनता के गहरे अंधेरे में धकेल देने की तरह होगा । सीपीआई (एम) इसके पहले भी अंदरूनी जनतंत्र के नाम पर, शुद्ध गुटबाज़ी और मतदान के ज़रिये ऐसे निर्णय लेती रही है जिन्हें ज्योति बसु तक ने ऐतिहासिक भूल कहा था और कम्युनिस्ट आंदोलन के तमाम पर्यवेक्षक जिन्हें भारतीय राजनीति में वामपंथ की बढ़ी हुई अप्रासंगिकता का एक प्रमुख कारण मानते हैं ।

अभी फिर एक बार, सीपीआई (एम) भारत की बहु-राष्ट्रीय सचाई की पूरी तरह से अवहेलना करते हुए पोथी की दासता (पहले पारित किये गये प्रस्ताव के बंधन) और तर्क तथा विवेक के बजाय शुद्ध पक्ष और विपक्ष के संख्या-तत्व के आधार पर निर्णय लेने की यांत्रिकता की चुनौती के सम्मुख है । देखते हैं, राजनीतिक विवेक जीतता है या वही पुरानी नौकरशाही कार्य-प्रणाली वाली यांत्रिकता ।

अंतरीक्ष में गुरुत्वाकर्षण तरंगें अब एक प्रत्यक्ष सचाई है


11 फरवरी 2016। अमेरिका की दो भीमकाय दुरबीनों ने आज गुरुत्वाकर्षण तरंगों को देख लिया और वैज्ञानिकों ने उस तूफान के तुमुल कोलाहल को सुन लिया जो सुदूर अंतरीक्ष के दो ब्लैक होल्स के टकराने और एक दूसरे में घुस जाने से पैदा हुआ और जिसने गुरुत्वाकर्षण तरंगों से बुने गये इस महाअंतरीक्ष के एक कोने के ताने-बाने को फाड़ डाला। सारी दुनिया के भौतिक-शास्त्री रोमांचित है। पिछली 14 सितंबर को ही अमेरिका की दो दुरबीनों को इन तरंगों का पता लग चुका था। आज वे प्रत्यक्ष हुई हैं ।
आज दुनिया को वे चित्र उपलब्ध है जो बताते हैं कि गुरुत्वाकर्षण तरंगों से कैसे काल की गति में फर्क आ जाता है और स्थान का रूप-रंग बदल जाता है। इस नई जानकारी ने न सिर्फ इस बारे में आइंस्टाइन की एक महत्वपूर्ण स्थापना को प्रयोगशाला में प्रमाणित कर दिया है, बल्कि भौतिकी के जगत में अनेक नये प्रयोगों और खोजों का रास्ता खोल दिया है।
आज याद आ रही है 1 जनवरी 2015 की अपनी ही एक पोस्ट की, जिसे हमने उदय प्रकाश को जन्मदिन की बधाई देते हुए लगायी थी। 2015 आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत का शताब्दी वर्ष था और उस समय तक गुरुत्वाकर्षण तरंगों की उनकी बातों को प्रयोगशाला में प्रमाणित करने की संभावना की चर्चा शुरू हो गई थी। अपनी उस पोस्ट में हमने लिखा था - ‘‘आज हमारे प्रिय कथाकार उदय प्रकाश का जन्म दिन है।
“हम सन् 2015 में प्रवेश कर रहे हैं - अर्थात आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता (Theory of general relativity) के सिद्धांत के शताब्दी वर्ष में। सन् 1915 में आइंस्टाइन ने अपने इस सिद्धांत से देश-काल (Space and Time) संबंधी सहस्त्र सालों से चली आरही अटकलबाजियों को पूरी तरह से उलट-पुलट दिया था। ‘हमारा ब्रह्मांड काल की उपज है’, की तरह की कई महत्वपूर्ण बातों के अलावा उन्होंने एक बड़ी बात यह भी कही कि भौतिक पदार्थ की गुरुत्वाकर्षण तरंगों (gravitational waves) से देश-काल का रूप निरंतर बदलता है। पदार्थ के दबाव से देश-काल का रूप बदल जाता है । देश-काल इसके सामने लचीली जेली की तरह होता है । गुरुत्वाकर्षण की ये अदृश्य तरंगे देश-काल के किसी भी स्थिर रूप में दरारें पैदा कर सकती हैं ।
“आइंस्टाइन के अन्य सभी प्रमाणित हो चुके सिद्धांतों के उपरांत आज सारी दुनिया के भौतिकशास्त्री इस गुरुत्वाकर्षण तरंगों के सिद्धांत को भी प्रयोगशाला में प्रमाणित करने में लगे हुए हैं।
“कल्पना कीजिये, इस सापेक्षता सिद्धांत के सामाजिक महत्व की। कार्ल मार्क्स ने ब्रह्मांड की तरह ही पूंजी के ब्रह्मांड को काल की उपज बताया था। और, इतिहास में वर्ग-संघर्ष की भूमिका गुरुत्वाकर्षण की इन्हीं अदृश्य तरंगों की तरह है जो इस ब्रह्मांड में दरार डालती है, इसे बदल देती है।
“यही वजह है कि जो लेखन हाशियों पर पड़ी पराजितों की लड़ाई की तरंगों को अपने दायरे में नहीं लाता, वह जीवन के यथार्थ की गति को पकड़ने में नैसर्गिक रूप से असमर्थ है। कहा जाए तो एक अर्थ में अभिशप्त है। हमारे साथी नीलकांत की शब्दावली में वह मृत-सौंदर्य का पुजारी है।“
तीन साल नहीं हुए । पदार्थ के जिस कण को पहले देखा नहीं गया था, ईश्वर कण (god’s particle) के नाम से मशहूर हिग्सबोसोन को खोज लिया गया और तब भी सारी दुनिया के वैज्ञानिक और विज्ञान-मनस्क लोग इसीप्रकार झूम उठे थे। भौतिकी के क्षेत्र की हर उपलब्धि मनुष्यता की एक ऐसी थाती है जिसकी चमक समय के साथ कभी म्लान नहीं होती। हर बीतते दशक के साथ बड़ी से बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं का महत्व गिरता जाता है। मानव प्रगति की राह में हर राजनीतिक और वित्तीय संकट महज एक क्षणिक ठहराव से ज्यादा मायने नहीं रखते। यहां तक कि महायुद्धों की तरह के आतंक भी कालक्रम में किसी अयर्थाथ से प्रतीत होने लगते हैं। लेकिन भौतिकी के नियम सनातन और सार्विक होते हैं। उनकी खोज मानव मात्र की विजय होती है।
गुरुत्वाकार्षण तरंगों का यह नजारा देखना, महाअंतरीक्ष के अब तक के छिपे हुए एक और रहस्य को भेद पाने के सूत्रों का मनुष्य के हाथों में आना हम सबके लिये बेहद खुशी की एक घटना है। इस जानकारी से दुनिया के अन्य सभी उत्फुल्ल लोगों की भावनाओं के साथ ही हम भी अपने उल्लास की भावनाएं साझा करते हैं।
आज हमारी वसंत पंचमी के मौके पर हम दुनिया के वैज्ञानिकों की इस सौगात का भी जश्न मनाते हैं।
सभी साथियों को वसंत पंचमी की शुभकामनाएं।