शनिवार, 26 मार्च 2016

आधुनिकता, लोकतंत्र और राष्ट्र का निर्माण : एक वामपंथी परिप्रेक्ष्य


अरुण माहेश्वरी ने यह लेख इसी 18 मार्च को इलाहाबाद में सुप्रसिद्ध कथाकार, उपन्यासकार और संपादक मार्कण्डेय की पुण्य तिथि पर उनकी स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में पेश किया था। लेख की प्रस्तुति के पहले उन्होंने कहा कि – 

सबसे पहले तो मैं इस कार्यक्रम के आयोजकों के प्रति आभार व्यक्त करता हूं कि उन्होंने मार्कण्डेय जी की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में शिरकत करने का हमें मौका प्रदान किया। जब दुर्गा सिंह जी ने इस कार्यक्रम में शामिल होने का निवेदन किया था, तब बिना यह जाने कि इसमें चर्चा का विषय क्या होगा, मैंने तत्काल अपनी सहमति दे दी थी। क्योंकि मुझे लगा था कि हमारे लिये चर्चा के विषय से भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है इस कार्यक्रम में शामिल होना। 


दरअसल, यह हमारी कुछ व्यक्तिगत अनुभूति का मामला है, जिसे मैं आप सबके साथ भी साझा करना चाहूंगा। पिछले दिनों, बनारस की एक पत्रिका का चंद्रबली सिंह पर विशेषांक निकला था। संपादक महोदय ने मुझे उस अंक में लिखने को कहा। मैंने एक लेख लिखा - हमारे महासचिव चंद्रबली सिंह। अपने उस लेख की शुरूआत कुछ इस प्रकार की  - “चंद्रबलीजी पर लिखना है।कलमके संपादक-मंडल के एक वरिष्ठ सदस्य पर। वरिष्ठ तो हमारे लिये सभी थे। इतने वरिष्ठ कि आज उनमें से कोई भी साथ देने के लिये इस धरती पर नहीं है।सचमुच पीछे के इतने बड़े शून्य को देख कर बहुत बार घबड़ाहट होती है। दोस्ती मूर्ख से की जा सकती है, ज्ञानी से की जासकती है। एक-समान सोचने-समझने वाले से की जा सकती है, हमेशा मतभेद रखने वाले से भी की जासकती है। समवयस्कों के अलावा अपने से कम और बड़ी उम्र के लोगों से भी की जासकती है। पूरी मित्र-मंडली का इन्द्रधनुषी रूप हो सकता है। लेकिन ऐसी इकरंगी विलक्षणजनों की मित्र-मंडली जिसमें आपकी तुलना में सिर्फ उम्रदराज और वयोवृद्ध जनों का ही शुमार हो, एक समय कितनी त्रासद हो सकती है, आपको कितना अकेला और अनेक सम-वयस्कों के लिये लगभग असंप्रेष्य बना कर छोड़ सकती है, आज चंद्रबलीजी पर लिखते वक्त कुछ ऐसा ही महसूस हो रहा है। एक-एक कर अब तक अपने इन सभी वरिष्ठ मित्रों की श्रद्धांजलियां लिख चुका हूं। भैरवप्रसाद गुप्त, चन्द्रभूषण तिवारी, इसराइल, हरीश भादानी, मार्कण्डेय और अब चंद्रबलीजी पर लिखना पड़ रहा है।कलमके इस संपादक-मंडल के रथ का जो अविस्मरणीय सारथी था - कामरेड बी. टी. रणदिवे - उनको गुजरे भी 22 साल बीत गये हैं।

कहना होगा, यह हमारा सौभाग्य या दुर्भाग्य, कुछ भी क्यों रहा हो, बहुत कम उम्र में ही हमें सिर्फ और सिर्फ, अपने से उम्र में बहुत बड़े और परिपक्व मित्रों का ही साथ मिला। और इसीलिये, शुरू से साहित्य और विचारधारा के मसलों पर हमारे मानदंड कुछ इतने ऊंचे बनें कि समवयस्क लेखकों के साथ सही अर्थों में कोई संवाद ही कायम नहीं हो पाया। और, हमारे इन वयोवृद्ध मित्रों में मार्कण्डेय जी का स्थान तो और भी ज्यादा विशेष था। इसराइल साहब और हरीश भादानी हमारे परिवार के सदस्य थे, लेकिन मार्कण्डेय भाई तो बहुत कम, कभी-कभीकलमके संपादक-मंडल की बैठक के लिये कोलकाता आया करते थे। इसके बावजूद, यह सच है कि हमारे इन उम्रदराज मित्रों में मार्कण्डेय भाई ही शायद अकेले थे, जिनकी हमारे परिवार के हर सदस्य, यहां तक कि हमारे तब छोटे-छोटे बच्चों के मन में भी आज तक उनकी एक विशेष छवि बनी हुई है। मार्कण्डेय भाई उनके पिता के एक श्रद्धेय मित्र के नाते भी उनके संस्कारों का एक अभिन्न हिस्सा है।

जब भी मैं सोचता हूं कि आखिर मार्कण्डेय भाई में ऐसा क्या था, जो दूसरों की तुलना में उनके व्यक्तित्व को कुछ विशेष और आकर्षक बना देता था, तब मित्रों, अनायास ही मुझे आज का विषय उनके संदर्भ में भी बहुत प्रासंगिक दिखाई देने लगता है - आधुनिकता, लोकतंत्र और राष्ट्र (व्यक्तित्व) निर्माण।

एक ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए हुए मार्कण्डेय भाई में सामंती मिजाज की कभी कितनी भी ठसक क्यों रही हो, शिक्षा और साहित्य के संस्कारों से उनका पूरी तरह आधुनिक कायांतर हो गया था। हर प्रकार के पिछड़ेपन के बोझ से कोसों दूर, ज्ञान, बुद्धि और विवेक के प्रति गहरा आग्रह रखने वाला उनका एक ऐसा संवेदनशील व्यक्तित्व था, जिसके प्रभाव से उनके अपने आस-पास का परिवेश अप्रभावित नहीं रह सकता था। इस सचाई को उनकी एक-एक कहानी, उनके उपन्यास, उनकी वैचारिक टिप्पणियों और उनके संपादकीय कौशल के साथ ही उनकी भाषा और तर्क की पूरी संरचना से देखा जा सकता है।

मैं तो कहूंगा कि एक मसीजीवी लेखक से जुड़ी हुई तमाम प्रकार की प्रतिकूलताओं के बीच भी उन्होंने अपने खुद के परिवार को, अपने बच्चों को जिस प्रकार शिक्षित, जागरूक और संवेदनशील नागरिक के संस्कारों के साथ तैयार किया, उसमें भी इस सचाई को देखा जा सकता है।

मार्कण्डेय भाई ने वर्षों तककथापत्रिका का संपादन किया। उनकी संपादन-योजनाएं उनके व्यक्तित्व में गहरे तक बैठी लोकतांत्रिक चेतना के सबसे बड़े उदाहरण हैं। अपने उपन्यासअग्निबीजमें आजादी के ठीक बाद भारत के गांवों में तैयार हो रही नई पीढ़ी के चार चरित्रों के माध्यम से उन्होंने हमारी सामाजिक संरचना में हो रहे परिवर्तनों का जो खाका खींचा है, उससे हमारे देश के आगे के कई दशकों के सामाजिक विकास की कहानी के तमाम सूत्रों को पकड़ा जा सकता है। उन्होंने बिल्कुल सही, उस उपन्यास की परिकल्पना एक बृहद-त्रयी के रूप में की थी। उसमें इसकी संभावना के सारे संकेत साफ दिखाई देते हैं। वे इस काम को नहीं कर पायें, इसके पीछे जरूर उनकी अपनी कुछ विवशताएं रही होगी। वह एक भिन्न पहलू है।

मार्कण्डेय भाई ही है जोगुलरा के बाबासे शुरू करकेमहुए का पेड़’, ‘हंसा जाई अकेला’, ‘माई’, ‘मिस शांता’, ‘सूर्यासे होते हुएबीच के लोग’, ‘गनेसीऔरप्रिया सैनीतक की कहानियों की हमें यात्रा करा सकते थे। यह अनुभवों का एक विशाल क्षितिज था और आदमी के मनोविज्ञान के जाने कितने शेड्स। हर कहानी में एक आधुनिक संवेदनशील कथाकार के रूप में उनकी मौजूदगी साफ दिखाई देती है।

कथामें उन्होंने विभिन्न विषयों पर जो परिचर्चाएं आयोजित की वह एक तर्कशील संपादक की गहरी सूझ-बूझ का परिचय देती है। उन परिचर्चाओं में ईएमएस नंबुदिरिपाद से लेकर गुरू गोलवलकर तक को शामिल करके साहित्य और विचारों की दुनिया में जिस प्रकार के एक जनतांत्रिक विमर्श की जरूरत की जमीन तैयार की गई थी, वह शायद आज भी विरल है। युवा लेखन का विषय हो, या उच्च शिक्षा का, धर्म या कोई और विषय, ‘कथाकी परिचर्चाओं से ही उस पत्रिका का एक अलग और विशेष चरित्र निर्मित हुआ था। साहित्य की अन्य पॉलिमिक्स दूसरी बात है।

मैं इन प्रसंगों पर अभी बहुत विस्तार से जाना नहीं चाहता क्योंकि आज के विषय पर मैंने विशेष तौर पर जो आलेख तैयार किया है, वह सीधे साहित्य के विषयों से संबंध नहीं रखता है। फिर भी, मार्कण्डेय भाई के लेखन के प्रसंग में अपने एक नितांत व्यक्तिगत अनुभव का उल्लेख करके इस चर्चा को मैं विराम दूंगा और अपने आलेख पर आजाऊंगा।

यह प्रसंग है उनके उपन्यासअग्निबीजका। उस उपन्यास की हमने कई प्रतियां मंगाई थी और उनके मिलते ही हमारे परिवार में सबलोगों ने उसे बड़े मन से एक-दो रात में ही पढ़ डाला था। मेरे अलावा मेरे पिता, इसराइल साहब, सरला और मेरी बहन दुर्गा, सबने पढ़ा और शायद सबने उपन्यास के अंत के प्रसंग तक आते-आते, जहां श्यामा की बेमेल शादी और उसकी विदाई का चित्र आता है, अपने अकेलेपन में खूब आंसू भी बहाये थे। इसके बाद ही, हम लोगों ने पारिवारिक तौर पर तय किया कि क्यों इस उपन्यास पर एक घरेलू गोष्ठी की जाए। एक दिन तय करके हम सब बैठ गयें, और उपन्यास के बारे में अपने-अपने विचार पेश करने लगे।

मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस घरेलू गोष्ठी में, जब मेरे बोलने का समय आया, मैंने, उपन्यास के भावनात्मक प्रभाव को दरकिनार करते हुए, उसकी तीखी आलोचना की थी। आलोचकीय जोम में मैंने जोर देकर कहा कि आज के काल में भारत की ग्रामीण पृष्ठभूमि में कोई उपन्यास आए और उसमें भूमि-संघर्ष का जिक्र तक हो - यह साफ तौर पर लेखक की चेतना के अभाव का सूचक है। आप जानते ही है कि वह ऐसा समय था जब कृषि क्रांति के सवाल भारतीय राजनीति के केंद्र में थे। बाकी दूसरों ने मेरी राय का विरोध भी किया। आज भी याद है, सरला ने खास तौर पर विरोध किया था। लेकिन इस बहस-मुबाहसे के बाद ही मुझे इस उपन्यास परनया पथपत्रिका के लिये लिखना था। मित्रों, मैं कहना चाहूंगा कि जब मैं उस उपन्यास पर लिखने बैठा, मेरे जीवन का वह पहला अनुभव था, जब उपन्यास के एक-एक पात्र मेरे सामने जीवित खड़े होगये। आजादी के ठीक बाद का गांव का वह पूरा परिवेश, गांधी आश्रम के इर्द-गिर्द तैयार हो रही नयी जिन्दगियां - सबके सब साक्षात हो उठे और एक-एक कर सब अपने होने का, अपने जीवन और परिवेश की सचाई का प्रमाण पेश करने लगे। जिस उपन्यास को, विषय और परिवेश की वजह से ही मैं अपनी आलोचकीय बुद्धि से गलत मान रहा था, उसके पात्र उपन्यास के एक-एक ब्यौरे के पक्ष में ऐसी दलीलें देने लगे कि पहले से सोची-समझी मेरी सारी बातें मुझे ही पूरी तरह से तंतहीन, सारहीन दिखाई देने लगी। पूरे चार दिन तक मैं सो नहीं पाया, बीमार होगया। और अपनी पहले की धारणा के बिल्कुल विपरीत मैंने उस उपन्यास की एक ऐसी लंबी समीक्षा लिखी, जिस पर मार्कण्डेय भाई ने मुझे पत्र लिखा कि इस उपन्यास को लिखते वक्त मैं खुद जिस मनोदशा में था, तुम्हारी समीक्षा ने उसे जैसे मेरे सामने फिर से एक बार जीवित कर दिया है। और, पहली बार मुझे पता चला कि जीवन का यथार्थ किस प्रकार सोच के तमाम बने-बनाये ढांचों को तोड़ डालता है, बशर्ते आप उस यथार्थ से सामने आने वाली आवाजों को सुनने के लिये तैयार हो। एक यथार्थवादी लेखक हमेशा अपनी वैचारिक सीमाओं का अतिक्रमण करता है, ‘अग्निबीजकी समीक्षा लिखते वक्त मैंने इस सचाई को अपनी धड़कनों पर महसूस किया था।

कहना होगा, मार्कण्डेय भाई का यही गहरा यथार्थ बोध, उन्हें अपने समकालीन अन्य कइयों से विशिष्ट बनाता था।

आज हम जिस विषय में चर्चा कर रहे हैं, वह भी हमारे यथार्थ जीवन की ही एक बड़ी चुनौती के तौर पर हमारे सामने आया है। अपने आलेख में विचार के क्रम में मैंने इस विषय से जुड़े अब तक के वामपंथी सोच के कई ढांचों को ढहते हुए देखा है। यह भीजीवन जैसा है’, Life as it exists से पैदा होने वाली चुनौती का ही एक परिणाम है। उम्मीद है, यहां उपस्थित हमारे मित्र इसे समझेंगे।आलेख पेश करने के पहले की इस भूमिका के अंत में मैं मार्कण्डेय भाई की कहानियों के एक संकलन ‘सहज और शुभ’ की भूमिका में कही गई उस बात को दोहराना चाहूंगा जो उन्होंने एक लेखक के नाते खुद के बारे में लिखी थी - ‘‘अपनी दृष्टि, गति और समय के बीच कोई ऐसा संतुलन खोज रहा हूं, जहां स्थितियों के परिवर्तित होने का बोध हो सके - ऐसा बोध, जिसे इंद्रियां तक महसूस करने लगें। ...मेरे लिए रचनात्मक प्रक्रिया का सत्य इसी आत्म-संघर्ष का परिणाम है, अन्यथा मैं लेखक न होकर एजिटेटर बन गया होता; क्योंकि जो दिखाई देता है, उसे स्वीकार करते हुए भी, उसी को पूर्ण सत्य मान लेने का अर्थ है, अपनी दृष्टि को सर्वथा मौलिक, परिशुद्ध तथा स्थिर मान लेना, साथ ही यह भी स्वीकार कर लेना कि जीवन वैसा ही रहेगा, जैसा दिखाई पड़ रहा है। ’’)




अरुण माहेश्वरी

मित्रों, 
इसी इलाहाबाद नगर में दो साल पहले जनवादी लेखक संघ का अंतिम राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। उस सम्मेलन का उद्धाटन किया था प्रभात पटनायक ने। उनके इस उद्घाटन भाषण का सार-संक्षेप सम्मेलन के कुछ दिनों बाद ही एक लेख की शक्ल में जनसत्ता के 22 फरवरी 2014 के अंक में प्रकाशित हुआ - ‘नव उदारवाद से उपजी चुनौतियां। इस लेख की प्रतिक्रिया में हमने अपने ब्लाग ‘चतुर्दिक’ पर एक लेख लिखा - ‘हम भी इक अपनी हवा बांधते हैं : प्रसंग वर्गीय राजनीति’। 

प्रभात ने अपने इस लेख में कहा था कि नाना कारणों से संगठित क्षेत्र में रोजगार में कटौती, पूर्ण रोजगार के बजाय ठेका प्रणाली, आउटसोर्सिंग, निजीकरण आदि से श्रमबाजार के लचीलेपन के कारण काम पर लगे मजदूरों और बेरोजगारों की रिजर्व फौज के बीच के फर्क का मिट जाने और फलत: मजदूरों की हड़ताल करने, सौदेबाजी करने की ताकत का कम होने से मजदूर वर्ग की संरचना में हो रहे बदलावों ने वर्गीय राजनीति को, दूसरे शब्दों में वामपंथी या कम्युनिस्ट राजनीति को कमजोर किया है। लेख के अंत में उन्होंने आह्वान था कि मजदूरों को संगठित करके ‘‘ लोकतंत्र पर नव उदारवाद के हमले को रोकना और लोकतंत्र की हिफाजत से आगे समाजवाद के संघर्ष तक जाने के लिये नव उदारवादी वर्चस्व को नकारना और नव उदारवादी विचारों के खिलाफ प्रति-वर्चस्व गढ़ने का प्रयास करना एक शर्त है। विचारों के इस संघर्ष में लेखकों की केंद्रीय भूमिका है।’’ 

प्रभात के इस लेख पर प्रतिक्रिया में हमने जो लिखा, मित्रो, मैं उसे यहां विस्तार के साथ दोहराना चाहूंगा, क्योंकि हम जो देखते हैं वह, हम क्या जानते हैं और क्या मानते हैं, उससे प्रभावित होता है। इसीलिये  हम आज जिस आधुनिकता और लोकतंत्र को अपने विचार का विषय बनाये हुए हैं, उसके बारे में, मेरे अनुसार, प्रभात पटनायक के लेख पर चर्चा से कुछ बहुत बुनियादी चीजें साफ होगी, ताकि इन विषयों और इनसे जुड़ी अवधारणाओं पर हम आगे कभी अमूर्त ढंग से, जीवन और विचारधारा के ठोस प्रश्नों को दरकिनार रखते हुए चर्चा नहीं कर रहे होंगे।

हमने प्रभात के लेख पर लिखा था कि -
प्रभात पटनायक के इस ‘प्रति-वर्चस्व’ को तैयार करने की बात में गौर करने की चीज यह है कि  ये सारी बातें वे एक ऐसे देश के संदर्भ में कह रहे थे, जिस देश में आज भी 65 प्रतिशत से ज्यादा आबादी कृषि-निर्भर है। भारत में जिस ‘वर्गीय राजनीति’(वामपंथी या कम्युनिस्ट राजनीति) को वे मजदूर वर्ग की संरचना में बदलाव या उसकी हड़ताल करने अथवा सौदेबाजी की ताकत के कम होने की वजह से कमजोर होता हुआ बता रहे हैं, उसने भारत के राजनीतिक इतिहास में शायद ही कभी सिर्फ मजदूर वर्ग की शक्ति के बूते अपनी स्थिति को मजबूत किया होगा, क्योंकि शुद्ध संख्या की दृष्टि से ही भारत में संगठित मजदूरों की संख्या कुल आबादी में इतनी नगण्य रही है कि सिर्फ उसके बल पर यहां कभी किसी राजनीतिक शक्ति का विकसित होना संभव नहीं रहा है। भारत में वामपंथी राजनीति का अब तक जो भी विस्तार हुआ है, कहना न होगा, उसका सीधा संबंध कृषि क्रांति के मुद्दों से, अथवा नागरिक के संवैधानिक और जनतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई से रहा है। यह हमारे देश की ठोस सचाई है और जब भी हम अपने वर्तमान को सही रूप में जान लेते हैं तभी हम अतीत से जुड़े सभी विषयों पर सही प्रश्न उठा सकते हैं।

लेकिन चूंकि, वामपंथी सामान्य बुद्धि (common sense) में ‘वर्गीय राजनीति’ अर्थात कम्युनिस्ट राजनीति का मतलब माना जाता है - मजदूर वर्ग की राजनीति, इसीलिये  प्रभात पटनायक ने अन्य पक्षों को नजरंदाज करते हुए और साथ ही भारत सहित सारी दुनिया में उपलब्ध मजदूर वर्ग और समाजवाद संबंधी विपुल ऐतिहासिक तथ्यों की आलोचनात्मक दृष्टि से बिना कोई जांच-पड़ताल किये इसी ‘सामान्य बुद्धि’ की बातों को लगभग आस्था की बात की तरह दोहरा कर कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी के अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली।  

मार्क्सवाद, कम्युनिज्म, समाजवाद, पूंजीवाद, मजदूर वर्ग, वर्गीय चेतना और वर्गीय राजनीति आदि से क्या तात्पर्य है और इनका परस्पर क्या संबंध है - आज के जमाने में किसी भी प्रकृत बुद्धिजीवी के लिये यह विषय कोरे विश्वास या आस्था की तरह की चीज नहीं हो सकते हैं कि जिनके बारे में कुछ ‘आप्त वचनों’ की तरह की उक्तियों को दोहरा भर देने से काम चल सकता है। दरअसल, हमारे जेहन में बैठी बहुत सी ऐसी अवधारणाएं होती हैं, उनका ‘दुनिया जैसी है’, अर्थात वास्तविकता से मेल नहीं बैठता है। अक्सर अपने आज के हित में तमाम अवधारणाओं के साथ जुड़े हुए अतीत को धुंधला किया जाता है, उन पर रहस्य के आवरण डाले जाते हैं। सवाल है कि कौन है जो अतीत पर रहस्य का पर्दा डालता है ? वही जो अपने वर्तमान से डरता है। ऐसे रहस्यीकरण का लाभ सिर्फ थोड़े से विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को होता है जो उस इतिहास की खोज में रहते हैं, जिसके सहारे वर्तमान शासकों की भूमिका को सही बताया जा सके। लेकिन एक बुद्धिजीवी के नाते ऐसे किसी रहस्य की बुनावट में हमारा कोई स्वार्थ नहीं हो सकता है। 

1848 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन के बाद के इन लगभग 165 सालों में सारी दुनिया की नदियों से बेहिसाब पानी बह चुका है। मार्क्सवाद तो एक दार्शनिक पद्धति है, लेकिन वर्गीय चेतना, वर्गीय राजनीति, कम्युनिस्ट राजनीति और समाजवाद का खुद का अपना एक अच्छा-खासा इतिहास तैयार हो चुका है। उन देशों में भी जहां की 90 फीसदी से ज्यादा आबादी मजदूर वर्ग की है लेकिन जहां समाजवाद का कोई स्थान नहीं बन पाया है, और उन देशों में भी जहां ‘समाजवादी शासन’ के अंतर्गत ही वास्तव अर्थों में संगठित मजदूर वर्ग का समाज में पदार्पण हुआ है।

मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट राजनीति के अप्रतिम इतिहासकार एरिक हाब्सवाम (1917-2012) की अंतिम पुस्तक है - How to change the world : Marx and Marxism 1840-2011। इस पुस्तक का आखिरी अध्याय है - Marx and Labour (मार्क्स और श्रमिक)। 

यह सच है कि जब भी हम किसी भी व्यक्ति, वर्ग या समुदाय को भी अपना ईश्वर बना लेते हैं, तो जाहिर है कि हम उसे उसके ठोस रूप से अलग, शब्द के मृत रूप में बदल देते हैं। हेगेल लिखते हैं कि शब्द वस्तु की मृत्यु है। तब हमारे सामने प्रश्न रह जाता है कि हम कैसे शब्द में मृत ईश्वर से वास्तव के जीवित ईश्वर तक जाएं। इसका एकमात्र तरीका यह है कि हम ईश्वर के बारे में अपनी सोच में आए इस ऐतिहासिक विवर्तन को ही अपनी यात्रा का प्रस्थान बिंदु बनाने के बजाय खुद ईश्वर के इतिहास के लेखन की दिशा में बढ़ जाएं। देखेंगे कि हम शब्द में मृत ईश्वर से एक जीवित ईश्वर तक पहुंच जायेंगे। 

एरिक हाब्सवाम ने अपनी पुस्तक के इस अध्याय में इतिहास की चालिका शक्ति के रूप में ईश्वर की शक्ल दे दिये गये मजदूर वर्ग को असल में जानने के लिये मजदूर वर्ग और उसके आंदोलन के इतिहास का ब्यौरा देना शुरू कर दिया। उन्होंने  मजदूर वर्ग और कम्युनिस्ट राजनीति तथा समाजवाद से जुड़ी तमाम बातों को उनकी ऐतिहासिकता में समझने और विश्लेषित करने की कोशिश की , जिनसे इन विषयों पर कोरी अमूर्त बातों के बजाय एक यथार्थपरक दृष्टि और आलोचनात्मक विवेक हासिल किया जा सके। 

हाब्सवाम ने लिखा कि ‘‘मार्क्सवाद के इतिहास के अध्ययन का समापन मजदूर वर्ग के संगठित आंदोलन के बारे में एक निबंध से करना ही उचित है। मार्क्स की दृष्टि में सर्वहारा ‘पूंजीवाद की कब्र खोदने वाला सामाजिक रूपांतरण का अनिवार्य तत्व था।’’

मार्क्सवाद और मजदूर वर्ग के संबंधों के इतिहास का आख्यान पेश करते हुए आगे वे कहते हैं कि बीसवीं सदी में मजदूर वर्ग के अधिकांश आंदोलन और पार्टियों ने अपने को मार्क्स के सपनों से जोड़ा था और मार्क्सवादियों ने भी इन मजदूर आंदोलनों और पार्टियों को अपनी राजनीतिक गतिविधियों के क्षेत्र के रूप में चुन लिया था। इस तथ्य के बावजूद, हाब्सवाम का साफ मत था कि मार्क्सवाद और मजदूर आंदोलन के बीच के ‘जटिल और परिवर्तनशील संबंधों’ को समझने के लिये जरूरी है कि इन्हें परस्पर स्वतंत्र रूप में देखा जाएं। 

‘‘ये कत्तई एक और अभिन्न नहीं है।’’

इस कथन के साथ हाब्सवाम दुनिया में मजदूर आंदोलन के इतिहास के यथार्थपरक विवेचन की ओर बढ़ते हैं। उदाहरण दे-देकर बताते हैं कि कैसे 19वीं सदी के अंत के समय से ही यूरोपीय सरकारों ने संगठित और मजबूत मजदूर आंदोलन के अस्तित्व को स्वीकृति देना शुरू किया। मजदूरों की काम की परिस्थितियों, और मजदूरों के  साथ विवादों को सुलझाने के कानूनी प्राविधान तैयार होने लगे थे। यहां तक कि मजदूर वर्ग के प्रतिनिधि यूरोपीय सरकारों में भी शामिल होने लगे। 

उन्होंने बताया कि सन् 1899 में फ्रांस की सरकार में जब जाने-माने समाजवादी एलेग्जेंडर मित्तरां को वाणिज्य मंत्री बनाया गया, मजदूरों की राजनीतिक पार्टियों में, खास तौर पर समाजवादी पार्टियों में एक संकटजनक खलबली मच गयी थी। हाब्सवाम के अनुसार, उस समय तक, और उसके बाद भी लंबे अर्से तक समाजवादी यह विश्वास ही नहीं कर पाते थे कि बिना क्रांति के अथवा ‘आम हड़ताल के जरिये पूंजीवाद को बिना परास्त किये’ किसी समाजवादी पार्टी के लिये किसी सरकार में शामिल होना संभव होगा। (भारत में तो आज, सवा सौ साल बाद भी कतिपय वामपंथी इस संशय से मुक्त नहीं होपाये हैं।) 

हाब्सवाम लिखते हैं कि ‘‘विचारधारात्मक स्तर पर इसी संकट के बीच से बीसवीं सदी में मजदूरों के राजनीतिक इतिहास का श्रीगणेश हुआ।’’ 

हाब्सवाम का सवाल था कि आखिर क्यों यूरोपीय सरकारों ने श्रमिकों को गंभीरता से लेना शुरू किया? उस समय तक तो यूरोप में मजदूरों की स्थिति बेहद कमजोर थी। ‘‘ब्रिटेन और फ्रांस में 15 से 20 प्रतिशत, जर्मनी में उससे भी कम। दूसरी जगह भी मजदूर बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं थे।’’ इसका जवाब देते हुए हाब्सवाम इन देशों में संसदीय जनतंत्र के उदय की ओर इशारा करते हैं और कहते हैं कि मजदूरों के  कमजोर होने पर भी यह नजर आने लगा था कि मजदूरों की पार्टियां बड़ी चुनावी ताकतें बन सकती हैं। 1914 के पहले ही स्कैंडिनेविया के देशों तथा और भी कई जगहों पर यह बात साफ हो चुकी थी।

इसके अतिरिक्त यूरोपीय सरकारों के लिये चिंता की एक और बात मजदूरों की बढ़ती हुई ‘वर्गीय चेतना’ भी थी। हाब्सवाम विंस्टन चर्चिल को उद्धृत करते हैं : ‘‘यदि कंजरवेटिव और लिबरलों की दो दलीय प्रणाली टूटती है तो ब्रिटिश राजनीति खुली वर्गीय राजनीति बन जायेगी अर्थात वर्ग हित के संघर्षों से आच्छादित राजनीति।‘‘ हाब्सवाम के शब्दों में, ‘‘ वर्ग संघर्ष की राजनीति से बचना एक सामान्य समस्या बन गया था।’’

फ्रांस में जब मित्तरां को सरकार में शामिल किया गया तभी पहली बार मजदूर वर्ग की पार्टी के सामने यह सवाल उठा था कि शासन के साथ उसका क्या संबंध होना चाहिए। उन्हीं दिनों मार्क्स-एंगेल्स के अत्यंत करीबी, खास तौर पर एंगेल्स के प्रिय एडुअर्ड बन्र्सटीन का प्रसिद्ध घोषणापत्र Des Sozialismus und Die Aufgaben Der Soziakldemorkratie (Evolutionary Socialim : a criticism and affirmation) प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने माक्र्स के कम्युनिस्ट घोषणापत्र तक के लेखन को अपरिपक्व और उनके परवर्ती लेखन को परिपक्व बताते हुए यह स्थापना दी थी कि ‘‘जनतांत्रिक समाजों में वैद्यानिक सुधारों के जरिये समाजवाद लाया जा सकता है।’’

इसके साथ ही समाजवादी आंदोलन में यह बुनियादी सवाल उठ खड़ा हुआ - क्रांति या सुधार? जब पूंजीवाद के पतन की उम्मीद न हो, तब मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक कत्र्तव्य क्या होगा?

बर्नस्टीन को तो तब कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने एक सिरे से खारिज कर दिया क्योंकि उसने ‘इंटरनेशनल’ के औचित्य पर ही सवाल उठा दिया था। इसीप्रकार, मित्तरां प्रसंग को भी ‘एक व्यक्ति की विचलन’ बता कर संभाल लिया गया। लेकिन हाब्सवाम कहते हैं कि उस समय की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों ने बर्न्सटीन की एक बात को जरूर मान लिया कि पूंजीवाद के अंतर्गत ही उन्हें मजदूर वर्ग की स्थिति में सुधार के लिये काम करना होगा। 

हाब्सवाम के शब्दों में, ‘‘सन् 1900 के बाद से प्रमुख पूंजीवादी देशों में मार्क्सवादी मजदूर आंदोलन पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष नहीं, बल्कि सहयोग के रास्ते पर काम करते रहे।’’

इसी बिंदु पर हाब्सवाम एक बहुत गहरी बात कहते हैं कि श्रमिक और समाजवाद जितने भी एक और अविभाज्य क्यों न दिखाई दें, आंदोलन के स्तर पर वे कत्तई एक नहीं है। 

‘‘मित्तरां और बन्र्सटीन समाजवाद के लिये संकट थे, मजदूर आंदोलन के लिये नहीं।’’ 

याद कीजियें लेनिन के जमाने की रूसी संसद, डूमा में कम्युनिस्टों को भाग लेना चाहिये या नहीं की बहस की । हाब्सवाम इसी बहस के दूसरे पहलू, पश्चिमी पहलू को रख रहे थे, जिसका आधुनिकता और जनतंत्र के हमारे विषय से एक सीधा संबंध बनता है। उस पहलू की जो पूंजीवाद के पतन की उम्मीद न होने की परिस्थिति में पैदा होता है। हाब्सवाम जोर देकर कहते हैं कि समाजवाद पूंजीवाद को स्थानापन्न करने वाली एक भिन्न आर्थिक प्रणाली की परियोजना है, लेकिन मजदूर आंदोलन या वर्ग चेतना ऐसी कोई परियोजना नहीं, बल्कि ‘‘सामाजिक उत्पादन के एक निश्चित चरण में मजूरी के बदले काम पर लगे लोगों की नैसर्गिकता है।’’

हाब्सवाम बताते हैं कि अमेरिकी इतिहास में मजदूर आंदोलन की एक अहम भूमिका रही है। आज भी डेमोक्रेटिक पार्टी में उसे देखा जा सकता है। लेकिन सवाल है कि ‘‘अमेरिका में समाजवाद क्यों नहीं है? ...एक विचारधारा अथवा राजनीतिक आंदोलन के रूप में वहां समाजवाद अनुपस्थित और गैर-महत्वपूर्ण है। ब्रिटेन में लिब लैब श्रमिक आंदोलन राजनीतिक समर्थन के लिये लिबरल पार्टी का मूंह जोहता था, महायुद्ध के काल तक उसके साथ उसने अपने संबंध नहीं तोड़े। अर्जेंटिना में काफी समय से कुंठित समाजवादियों और कम्युनिस्टों के लिये यह समझना मुश्किल रहा कि आखिर क्यों 1940 के दशक में विकसित हुआ उस देश का स्वतंत्र और रेडिकल मजदूर आंदोलन उस विचार (पेरोनवाद) से जुड़ गया जिसकी निष्ठा एक लोकप्रिय सैनिक जैनरल में थी।’’

इसी सिलसिले में हाब्सवाम ने पोलैंड में ‘सोलिडरिटी’ के समाजवाद-विरोधी मजदूर आंदोलन, विभिन्न राष्ट्रवादों, धर्मों और दूसरी विचारधाराओं से जुड़े श्रमिक आंदोलनों का विस्तार से उल्लेख किया है। भारत में हम इसे आसानी से कम्युनिस्ट पार्टियों से लेकर कांग्रेस, भाजपा, शिवसेना और यहां तक कि दत्ता सामंत आदि की तरह के कई व्यक्तियों के साथ जुड़े श्रमिक संगठनों और आंदोलनों के इतिहास से भी जोड़ कर देख सकते हैं। 

हाब्सवाम कहते हैं कि कम्युनिस्ट धोषणापत्र के प्रकाशन से लेकर 1970 के काल तक मजदूर आंदोलन के साथ समाजवाद का एक गहरा रिश्ता दिखाई देता है। इससे मजदूर आंदोलन और समाजवादी आंदोलन, दोनों ही लाभान्वित भी हुए हैं। लेकिन, हाब्सवाम का अभियोग है कि, समाजवादी व्यवस्था के सच, Socialism as it exists ने ही इस रिश्ते को तोड़ने में सबसे बड़ी भूमिका अदा की। 

‘‘रूस में बोल्शेविक सर्वहारा के नाम पर सत्ता में आए और उनकी पंचवर्षीय योजनाओं ने बड़ा औद्योगिक मजदूर वर्ग पैदा किया। लेकिन जैसा कि हम सब जानते हैं, उन्होंने मजदूर आंदोलन को खत्म कर दिया।...कम्युनिस्ट दुनिया में मजदूर वर्ग का इतिहास लिखना संभव है... मजदूर आंदोलनों का इतिहास नहीं। 1980 के दशक में पोलैंड में सोलिडेरिटी इसका सबसे बड़ा अपवाद है।’’

‘‘सोवियत संघ की तरह ही चीन और वियतनाम में भारी औद्योगीकरण की परिणति स्वतंत्र मजदूर संगठनों के रूप में नहीं हुई है।’’

और गहराई से देखें, तो पता चलेगा कि किसी भी मार्क्सवादी सिद्धांतकार ने वास्तव अर्थ में मजदूर वर्ग और मार्क्सवाद को कभी भी नैसर्गिक तौर पर एक और अविभाज्य नहीं माना हैं। वे मानते  हैं कि मजदूर खुद से समाजवाद का निर्माण नहीं करते बल्कि समाजवाद के विचार को उनमें बाहर से ले जाना पड़ता है। हाब्सवाम कहते हैं कि अमेरिकी, फ्रांसीसी और औद्योगिक क्रांतियों ने पश्चिम के बौद्धिक परिदृश्य में इस बोध को स्थापित किया था कि एक अलग और बेहतर समाज बनाना संभव है - प्रतिद्वंद्विता के बजाय सामुदायिक सहयोग पर टिका न्यायपूर्ण समाज। इस बौद्धिक परिदृश्य में समाजवाद को स्थापित करने के लिये समाजवादी राजनीतिक पार्टी ने बाहर से प्रवेश किया था। 

‘‘श्रमिकों के संघ उनके जीवन के अनुभवों से स्वत: पैदा हो जाते हैं, लेकिन पार्टियां स्वत: पैदा नहीं होती।’’

इस बिंदु पर पहुंच कर ही हाब्सवाम कुछ ऐसी बातें कहते है जो आधुनिकता और लोकतंत्र से जुड़े हमारे आज के विषय की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में मार्क्स -एंगेल्स ने एक ऐसी पार्टी के निर्माण की पेशकश की थी जो केवल मजदूर वर्ग को संबोधित पार्टी नहीं थी। ‘‘वह सामान्य रूप से समाज की आधुनिक संरचना को तैयार करने के लिये बनाई गयी पार्टी थी।’’ (जोर हमारा)  हाब्सवाम कहते हैं कि उनके बाद यूरोप में सर्वत्र ऐसी पार्टियां बनी, सत्ता पर आयीं और समाजों की आधुनिक संरचना के विकास में उन्होंने अपनी भूमिका अदा की। 

‘‘लेकिन यह बात निराधार साबित हुई कि सर्वहारा ऐतिहासिक तौर पर अनिवार्यत: सच्चा क्रांतिकारी है।’’ 

‘‘इतिहास ने हमें यह भी सिखाया कि क्रांतियां घटनाओं का इतना जटिल समुच्चय है कि उन्हें किसी खास वर्गीय संरचना का प्रतिरूप नहीं माना जा सकता है।’’

हाब्सवाम के अनुसार, “ इतिहास की इस सीख को यदि ग्रहण कर लिया गया होता तो वामपंथी सिद्धांतकार और इतिहासकार उस बेहिसाब मेहनत और समय को जाया करने से बच जाते जो उन्होंने यह साबित करने में खर्च की है कि अधिकांश श्रमिक पार्टियां क्यों अपनी क्रांतिकारी भूमिका अदा करने से चूक गयीं?’’ जब उन पिछड़े हुए देशों में, जहां क्रांति कोरा शब्दाडंबर नहीं, बल्कि एक वास्तविक संभावना जान पड़ती है, मार्क्सवादियों को बुर्जुआ पूंजीवादी विकास ही आगे का एकमात्र पथ दिखाई देता है, तब विकसित पूंजीवादी देशों में तो मजदूरों और फलती-फूलती अर्थ-व्यवस्था का सहजीवन नितांत स्वाभाविक है।

‘‘पेत्रोग्राद की सोवियत क्रांति ने अपने को बर्लिन में स्थापित नहीं किया, और अब तो साफ है कि उसकी उम्मीद भी करना गैर-यथार्थवादी होता।’’

पूंजीवाद और मजदूर वर्ग के सहजीवन के इस लंबे आख्यान में हाब्सवाम बीसवीं सदी में ‘70 के दशक को एक नये मोड़ का सूचक बताते हैं। इसके बाद की वैश्विक परिघटना में कायिक मजदूरों की संख्या कम होती गयी और मजदूरों की ‘वर्गीय चेतना’ भी कमजोर हुई है। ‘‘समृद्ध उपभोक्ता समाजों में धन की जबरदस्त वृद्धि से मजदूर वर्ग भी लाभान्वित हुए और साथ ही उस स्वयं-सिद्ध विश्वास की हानि हुई कि मजदूर वर्ग के जीवन में वास्तविक सुधार आपसी भाईचारे और सामूहिक कार्रवाई के जरिये ही मुमकिन है।’’

प्रभात पटनायक ने अपने लेख में ‘श्रम बाजार के लचीलेपन’ की जिस पदावली का प्रयोग किया था, हाब्सवाम इसे ‘70 के बाद की परिस्थितियों का परिणाम बताते हैं जब ‘‘पूर्ण रोजगार का स्थान श्रम बाजार के लचीलेपन और ‘बेरोजगारी की प्राकृतिक दर’1 के सिद्धांत ने ले लिया।’’

यह रेगन-थैचर के ‘बाजार की पूर्ण-स्वायत्तता’ का दौर था। किसी समय कम्युनिज्म के भय ने पूर्ण रोजगार और सामाजिक सुरक्षा के प्रति अमेरिका सहित सभी पश्चिमी सरकारों को जिसप्रकार वचनबद्ध किया था, बर्लिन की दीवार के गिरने के बाद उसमें कमजोरी दिखाई देने लगी। इसके अलावा कुछ और चीजें भी कारण बनी जिन पर हम आगे चर्चा करेंगे। 

मूल बात यह है कि ‘80 के बाद का यह दौर सन् 2008 के भयावह आर्थिक संकट तक जारी रहा । 1981 से 2008 के बीच के काल में बर्नस्टीन का सुधारवाद परित्यक्त हुआ और नरम-गरम, सभी प्रकार के कम्युनिस्टों की साख इस हद तक गिर गयी कि पश्चिम में कम्युनिज्म कोई राजनीतिक शक्ति ही नहीं रह गया। सन् 2008 में परिस्थिति में फिर एक बदलाव आया। जिन सरकारों ने बाकायदा निजीकरण और अविनियमीकरण (de-regularisation) के जरिये बाजार का डंका पिटवाया था और नव उदारवाद की आधारशिला रखवाई थी, उन्हीं सरकारों को मुसीबत में फंस चुकी अर्थ-व्यवस्था के उद्धारकर्ता की भूमिका अदा करनी पड़ी।  बाजार नहीं, एक बार फिर राज्य की भूमिका प्रमुख रूप से दिखाई दी। 

सन् 2008 के बाद सब-प्राइम संकट से उत्पन्न महा-संकट की परिस्थितियों में सिद्धांतत: मजदूर आंदोलन के पुनरोदय की संभावना होने पर भी, हाब्सवाम को व्यवहार में यह मुमकिन नहीं लगा था। उन्होंने याद दिलाया कि 1929-33 की महामंदी का एक राजनीतिक परिणाम यह हुआ था कि सर्वत्र मजदूर आंदोलन और वामपंथ का संबंध-विच्छेद होगया। यह तब, जब सोवियत संघ की संकट-मुक्त अर्थ-व्यवस्था का उदाहरण मौजूद था। आज स्थिति यह है कि समाजवाद के परंपरागत रूप में विश्वास रखने वाले बुद्धिजीवी आज के संकट से निजात के बारे में दूसरे लोगों की तुलना में न कोई बेहतर समझ रखते हैं और न ही उनके पास सोवियत संघ जैसा दिखाने लायक कोई उदाहरण है। पर्यावरण, शांति की तरह के रेडिकल विषय मजदूरों के लिये प्रासंगिक नहीं है, ये मूलत: मध्यवर्ग की चिंता के विषय  है। जैसे सन् 2008 में भारत में ‘न्यूक्लियर संधि’ का मुद्दा था। मजदूर आंदोलन पूंजीवाद का विरोधी है, लेकिन पूंजीवाद के बारे में, और पूंजीवाद के स्थान पर वे कौन सी व्यवस्था लाना चाहते हैं, उसके बारे में भी उनकी धारणा स्पष्ट नहीं है। “विकल्प-विहीन तीव्र असंतोष सिर्फ मीडिया के लिये महत्वपूर्ण हो सकता है।“ 

जो भूमंडलीकरण बिना कोई विकल्प प्रदान किये जीवन और मानव संबंधों के पुराने तरीकों को नष्ट कर रहा है, हाब्सवाम कहते हैं, उससे कुछ देशों में रेडिकल दक्षिणपंथ का, सांप्रदायिकता और आतंकवाद का, पूर्व-आधुनिक प्रवृत्तियों का खतरा बढ़ जाता है। आज हम पूरे मध्य एशिया से लेकर भारत तक में इसी परिघटना के साक्षी है। यह सीधे तौर पर उस ‘आधुनिकता के प्रकल्प’ की विफलता है जिसे ऊपर की पूरी चर्चा में पूंजीवादी संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली से लेकर एक प्रकार से कथित समाजवादी व्यवस्था तक का सार तत्व बताया गया है। 

मित्रों, आज का हमारा वास्तविक संदर्भ ‘आधुनिकता के इसी प्रकल्प’ की विफलता का संदर्भ है जो लोकतंत्र के लिये एक बड़े संकट के तौर पर उपस्थित हो गया है, उग्र दक्षिणपंथी सांप्रदायिक ताकतों की जमीन तैयार कर रहा है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। जो बात पश्चिम एशिया और अरब दुनिया के ‘अरब वसंत’ में दिखाई देती है, जो भारत में नरेन्द्र मोदी और आरएसएस के सत्ता पर आने में दिखाई देती है, वही बात दक्षिण अमेरिका, अर्थात लातिन अमेरिका में नहीं दिखाई देती। अर्थात आधुनिकता के प्रकल्प की विफलताओं से वहां अभी पूर्व-पूंजीवादी परिस्थितियों का खतरा दिखाई नहीं देता। 

अगर हम लातिन अमेरिका को देखे, तो पायेंगे कि वहां भी ‘90 के दशक में वही आर्थिक संकट की परिस्थितियां थी जो भारत की थी। वहां भी लड़खड़ाती हुई अर्थ-व्यवस्था को संभालने के लिये उदारवादी नई अर्थनीति का, ढांचागत समायोजन और वाशिंगटन कंसेंसस के अनुसार चलने का रास्ता अपनाया गया था। और, परिणाम में भीषण सामाजिक गैर-बराबरी, भ्रष्टाचार अपराध व हिंसा से भरा समाज तैयार होने लगा। लातिन अमेरिका ही था आईएमएफ और विश्व बैंक की ढांचागत समायोजन की नीतियों पर अमल का प्रमुख प्रयोग स्थल। और उनके चलते इन समाजों में जो जन-असंतोष पैदा हुआ, जोसेफ स्टिगलिट्ज ने अपनी किताब ‘ग्लोबलाइजेशन एंड इट्स डिसकंटेंट’ में उसीका आख्यान तैयार किया था । 

‘90 के दशक के शुरू से भारत भी उसी रास्ते पर बढ़ा था। हम यहां उसके पहले की आर्थिक दुरावस्था की कहानी पर नहीं जायेंगे। सन् ‘91 की नरसिम्हा राव सरकार और वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के साथ वाशिंगटन कंसेंसस की सिफारिशों के अंधानुकरण का दौर शुरू हुआ । विदेशी निवेश आया, विदेशी मुद्रा की स्थिति सुधरी, लेकिन पांच साल बीतते न बीतते, सामाजिक गैर-बराबरी और घोटालों का ऐसा विस्फोट हुआ कि विकास के सारे दावे धरे के धरे रह गये। 1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की निर्णायक पराजय हुई।  

हमारा दुर्भाग्य कि कांग्रेस का विकल्प - भाजपा नीत एनडीए सरकार - और भी जघन्य था। हालत यहां तक पहुंच गयी कि भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष ही हथियारों के सौदे के नाम पर सरे आम घूस लेता हुआ पकड़ा गया। एनडीए का काल प्रमोद महाजनों और रंजन भट्टाचार्यों के उदय का दौर था। इसके साथ ही वह आडवाणी की शह पर नरेंद्र मोदी सरीखे सांप्रदायिक अपराधी के भी उदय का दौर था। छ: साल के अंदर ही अमेरिकी नुस्खों पर चमकाये गये ‘शाइनिंग इंडिया’ की कलई खुल गयी। और, 2004 के आमचुनाव में एनडीए की जगह यूपीए की सरकार बनी। सीधे वामपंथी रूझान की सरकार। लातिन अमेरिका में हो रहे परिवर्तनों की ही वह एक भारतीय सूरत थी। फर्क सिर्फ यह था कि सरकार के नेतृत्व में कांग्रेस थी और वामपंथी, सरकार के अंदर थे भी और नहीं भी थे। यूपीए के घटक के नाते अंदर, और कोई मंत्री पद न लेने के नाते बाहर। 

जो भी हो, पहली यूपीए सरकार के कदम जमीन पर टिके रहे। हजार दबावों के बावजूद अनेक क्षेत्रों में वाशिंगटन कंसेंसस के निर्देश नहीं चलें। लेकिन उस सरकार के अंतिम काल में, ऐन चुनाव के साल भर पहले परमाणविक ऊर्जा के विषय में अमेरिका के साथ समझौते का मसला कुछ इस कदर उठा कि कांग्रेस और वामपंथ का वह सफल ताल-मेल बिखर गया। अमेरिकी मंशा पूरी हुई। आगे के चुनाव में यूपीए सरकार की उपलब्धियां कांग्रेस के हाथ लगी और वामपंथी अपने मत को किसे समझाएं, कैसे समझाएं की उहा-पोह में, जैसे अपना सबकुछ लुटा बैठे। 

2008 के चुनाव में कांग्रेस फिर सत्ता पर लौट आयी। यूपीए - 2 की सरकार बनी। वामपंथियों को लोकसभा के इतिहास में सबसे कम सीटें मिली। और इसके साथ ही, आर्थिक नीतियों के क्षेत्र में शुरू हुआ - नव-उदारवाद का नंगा खेल। विदेशी पूंजी की बाढ़ और गठबंधन धर्म के नाम पर भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को केंद्र सरकार का खुला संरक्षण। यूपीए-2 के भ्रष्ट शासन ने राज्यों में भाजपा को बल पंहुचाया, श्रेय मिला नरेन्द्र मोदी को सुशासन का। क्रमश: फिर वैसी ही, सन् ‘96 से भी बदतर स्थिति तैयार होगयी। अकेले भ्रष्टाचार ने पूरे राष्ट्र में ऐसी त्राहि-त्राहि मचायी है कि अब इसकी चपेट से कोई भी नहीं बच पा रहा है। भ्रष्ट नौकरशाह राजनीतिज्ञों को दबोचे रहते हैं, राजनीतिज्ञ आम जनता की छाती पर चढे़ हुए हैं और सरकारी बाबू जोंक बनकर पूरे राष्ट्र का खून चूस रहे हैं। यूपीए-2 के ये अंतिम दिन तो भ्रष्टाचार-निरोध का जाप करते हुए ही गुजर गये। 

गौर करने की बात यह है कि इन्हीं परिस्थितियों में, भारत के विपरीत लातिन अमेरिका के तमाम देशों में 21वीं सदी के आगमन के साथ ही वामपंथी रूझान की पार्टियों के उभार का सिलसिला शुरू हुआ और देखते-देखते वेनेजुएला में हुगो सावेज, चिले में रिकार्डो लागोस और मिशैल बाशलेत, ब्राजील में लुला द सिल्वा और दुल्मा रूसेफ, अर्जेन्तिना में नेस्तर किर्शने और उनकी पत्नी क्रिस्तिना फर्नान्दिज, उरुग्वे में होशे मुखीका, बोलीविया में एवो मोरालेस, निकारागुआ में दनियल ओर्तेगा, इक्वाडोर में रफायल कोरिआ, पैरागुआ में फर्नांदो लुगो, होंडुरस में मैनुअल खेलाया, अल सल्वाडोर में मोरिशिओ फ्यूनस की सरकारें बन गयी। ये सभी अपने को वामपंथी, समाजवादी, लातिन अमेरिकापंथी अथवा साम्राज्यवाद-विरोधी कहते थे। तब शायद सिर्फ होंडुरस, कोलंबिया और पनामा में दक्षिणपंथी सरकारें थी। इनमें होंडुरस और पनामा बहुत छोटे देश है। हाल में वेनेजुएला के चुनाव में सावेज की पार्टी पराजित हो गई है। 

इस बात को हाब्सवाम ने भी नोट किया था कि आधुनिकता के जिस प्रकल्प की विफलता दुनिया के अनेक स्थानों पर दक्षिणपंथी रेडिकलिज्म के उभार का कारण बन रही है, लातिन अमेरिका में वैसा नहीं हो रहा है। वहां वामपंथ का एक नया जनतांत्रिक स्वरूप उभर कर सामने आ रहा है। 

हाब्सवाम ने 2008 के बाद, सिर्फ विकासशील पूंजीवादी देशों में नहीं, बल्कि खुद अमेरिका में भी एक नए प्रकार के परिवर्तन को लक्षित किया था। उन्होंने यह भविष्यवाणी की थी कि अमेरिका में 2008 का संकट नये सिरे से किसी रेगनवाद के उदय का कारण नहीं, बल्कि सन् ‘29 की महामंदी के बाद के एफ डी रूजवेल्ट की तरह के ‘न्यू डील’ वाले वामपंथ की दिशा में बढ़ने का कारण बन सकता है। सन् 2008 के बाद ही रिपब्लिकन राष्ट्रपति जार्ज बुश (2001-2009) को हरा कर अमेरिका के इतिहास में पहली बार एक अश्वेत, डेमोक्रेटिक पार्टी के बराक ओबामा सत्ता पर आए और पिछले आठ सालों से सत्ता पर बने हुए हैं। 

इसी प्रसंग को थोड़ा आगे बढ़ाते हुए हम आज के अमेरिका की राजनीति को यहां लाना चाहेंगे। नोम चोमस्की कहते हैं कि अमेरिकी नीतियों में होने वाले हर परिवर्तन का खुद अमेरिका के लिये जितना मायने है, उससे कहीं ज्यादा बाकी दुनिया के लिये है। 

यह साल अमेरिका में चुनाव का साल है। 22 नवंबर के दिन अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव होने वाला है। इन चुनावों की स्थिति क्या है ? एक ओर रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार के रूप में डोनाल्ड ट्रम्प नामक एक चरम दक्षिणपंथी, उग्र सांप्रदायिक व्यक्ति का नाम सामने आ रहा है, तो दूसरी ओर डेमोक्रेटिक पार्टी में हिलैरी क्लिंटन का नाम सामने आने पर भी बर्नी सैन्डर्स नाम के वरमोंट के एक सिनेटर से उनको कड़ी चुनौती मिल रही है। 

अमेरिकी चुनाव के विश्लेषक हिलैरी को मिल रही सैन्डर्स की इस चुनौती को कोई साधारण चुनौती के रूप में नहीं देख रहे हैं। सैन्डर्स जिन बातों को उठा कर हिलैरी को चुनौती दे रहा है वह बहुत महत्वपूर्ण है। सैन्डर्स का कहना है कि अमेरिका सामाजिक गैर-बराबरी से बुरी तरह थक गया है। जो चलता रहा है, वह चल नहीं सकता। सैन्डर्स रेगन के समय से शुरू हुई आयकर प्रणाली को फिर से उलट कर वृद्धिमान कर प्रणाली को लागू करने और न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि पर लगी रोक को हटा कर उसमें भारी वृद्धि करने की बातों के साथ सामने आया है। 

अमेरिकी इतिहास इस बात का गवाह है कि वहां 1930 से 1981 तक के काल में आयकर में वृद्धिमान (progressive) दर को लागू करके और न्यूनतम मजूरी को लगातार बढ़ा के सामाजिक विषमता पर अंकुश लगाया गया था । जॉन एफ कैनेडी के काल में तो अधिकतम आय पर 92 प्रतिशत तक आयकर हो गया था । और सबसे अधिक गौर करने लायक यह है कि इन्हीं पांच दशकों के इतिहास को अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था का स्वर्णिम युग कहा जाता है, जब वहां बेरोजगारी नहीं के बराबर थी और आर्थिक विकास की दर सबसे ज्यादा थी। 

सत्तर के दशक में वियतनाम युद्ध में पराजय और बाद में जर्मनी तथा जापान की तरह की युद्ध में पराजित शक्तियों की अर्थ-व्यवस्था में आए नये उभार और उनके द्वारा अमेरिकी उत्पादों को दी गई भारी चुनौती ने अमेरिका में एक प्रकार की पस्त-हिम्मती की स्थिति पैदा की और लगभग पांच दशकों के बाद 1981 में रेगन ने पूंजीवाद की आत्मा को पुनर्जीवित करने के नाम पर आयकर की वृद्धिमान दरों के सूत्र को उलट दिया और न्यूनतम वेतन में वृद्धि पर रोक लगाने की कोशिश की । आयकर की अधिकतम दर को सिर्फ 28 प्रतिशत पर बाँध दिया गया । और परिणाम यह हुआ कि अमेरिका फिर क्रमश: बढ़ती हुई सामाजिक ग़ैर-बराबरी के चलते अंत में आर्थिक गतिरोध में फँसता चला गया ।

बिल क्लिंटन और ओबामा के काल में आयकर की अधिकतम दर बढ़ कर 40 प्रतिशत तक गई, न्यूनतम मजूरी बढ़ कर फिर दस डालर प्रति घंटा हो गई, लेकिन वृद्धिमान आयकर की दर के फ़ार्मूले को लागू नहीं किया जा सका। ओबामा ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य की अपनी योजना पर अडिग रह कर आम लोगों को थोड़ी अतिरिक्त राहत देने का काम जरूर किया । आज डेमोक्रेटिक पार्टी में बर्नी सैंडर्स इसी बात पर कि वह आयकर में वृद्धिमान दर को लागू करेगा और न्यूनतम मजूरी को पंद्रह डालर प्रति घंटा पर ले जायेगा, और अधिकतम वेतन की सीमा को भी तय करेगा, हिलैरी क्लिंटन को कड़ी टक्कर दे रहा है । 

कहना न होगा, अगर अमेरिका में फिर से आठ दशक पहले की, 1929 के बाद की भावना विजयी होती है तो यह सारी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों के लिये एक सबसे बड़ी ख़बर होगी । यह उस मिथक को तोड़ेगी  कि पूँजीपतियों को तमाम छूट देकर ही आर्थिक विकास मुमकिन है । बल्कि, आर्थिक विकास और ख़ुशहाली की रामवाण दवा सामाजिक ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करना है । सैंडर्स की इस चुनौती के बारे में कहा जा रहा है कि उसे डेमोक्रेटिक पार्टी के पचास साल से नीचे के मतदाताओं का भारी समर्थन प्राप्त है। हो सकता है कि इस बार हिलैरी क्लिंटन की डेमोक्रेटिक पार्टी में गहरी पैठ और उसके पास उपलब्ध अपार संसाधनों की वजह से सैंडर्स उनका मुकाबला करने में विफल रह जाए, लेकिन यह तय है कि आगे के दिनों में सैंडर्स नहीं तो कोई दूसरा, श्वेत-अश्वेत, नया व्यक्ति सैंडर्स के नये अवतार के रूप में निश्चित तौर पर सामने आयेगा। 

हम जानते हैं कि अमेरिकी नीतियों का दुनिया पर क्या असर पड़ता है। ‘80 के दशक के बाद सारी दुनिया पर चलाये गये वाशिंगटन कंसेंसस के रोडरोलर की बात हम पहले ही कर चुके हैं। अगर अब वृद्धिमान आयकर की दर, न्यूनतम मजूरी में वृद्धि और अधिकतम वेतन की सीमा बांधने की तरह के उपायों से वहां सामाजिक गैर-बराबरी को काबू में रखा जा सका, तो इसके वैश्विक परिणामों को भी समझा जा सकता है। भारत में तब किसी को मुकेश अंबानी की तरह सात हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च करके पाँच लोगों के परिवार के लिये एक घर बनाने की अश्लीलता के प्रदर्शन का मौक़ा नहीं मिलेगा ।

मित्रो, इन तमाम प्रसंगों को हम आधुनिकता और लोकतंत्र के दायरे में संभावित परिवर्तनों के ठोस रूप कह सकते हैं जो हमें किसी भी अर्थ में असंभव प्रतीत नहीं होते हैं। इस मामले में लातिन अमेरिका के वामपंथी दलों के अनुभवों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। सोवियत संघ और समाजवादी शिविर के पतन के बाद उन देशों में वामपंथ एक नये लोकतांत्रिक रूप में सामने आया है। 

हमारे देश में,  2008 के पंद्रहवीं लोक सभा चुनाव में, जब आजाद भारत के इतिहास में वामपंथी दलों को सबसे कम सीटें मिली थी, हमने एक लंबा नोट तैयार किया था - भारतीय वामपंथ के पुनर्गठन की एक प्रस्तावना : विचार के कुछ बुनियादी नुक्तें । अपने इस लेख का अंत अपने उसी नोट की कुछ बातों के उल्लेख से करना चाहेंगे। 

उस नोट में सोवियत संघ के अनुभव और पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में किये गये भूमि सुधार और पंचायती राज के अनुभवों की पृष्ठभूमि में कहा गया था कि ‘‘ ग्रामीण सत्ता-संरचना में परिवर्तन जनतंत्र के बाकी कार्यभारों को तेजी से उभार कर सामने लाता है। इनमें शहरीकरण और औद्योगीकरण के प्रश्न भी शामिल है। इन प्रश्नों के आर्थिक पहलू के अलावा व्यापक सांस्कृतिक पहलू भी है, जिन्हें आधुनिक जीवन की नैतिकता की समस्याएं कहा जा सकता है। इन समस्याओं का समाधान ग्रामीण ‘मौन क्रांति’ की प्रभुत्व शैली (hegemony) से हासिल नहीं किया जा सकता है। यह जनता के व्यापक समर्थन पर टिकी हुई पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था में रहते हुए एक जन-क्रांतिकारी रणनीति को तैयार करने की समस्या है। राजसत्ता के दमनकारी उपायों से इस व्यवस्था के लिये जनता के व्यापक हिस्सों का समर्थन हासिल नहीं किया गया है। बनिस्बत घुमा कर कहे तो कहा जा सकता है कि लोगों का बड़ा हिस्सा चीजों को चलाने की उस प्रणाली से खुश है, जिस प्रणाली पर पूंजीपति वर्ग उन्हें चलाना चाहता हैं। 

“इसीलिये वामपंथियों के सामने इस खास जनतांत्रिक नैतिकता के निर्वाह के साथ क्रांतिकारी विकल्प तैयार करने की समस्या है। और, गौर करने लायक बात यह है कि आधुनिक जीवन की जनतांत्रिक नैतिकता के ऐसे ही तमाम प्रश्न हैं जिनके सही समाधान में असमर्थ विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन आज तक पूंजीवादी जनतंत्र की चुनौतियों के सामने लचर दिखाई पड़ता है। इटली के कम्युनिस्ट विचारक ग्राम्शी ने अपने प्रभुत्व सिद्धांत के तहत योरोपीय परिस्थितियों में कम्युनिस्टों के प्रमुख कार्यभारों में विचारधारात्मक और नैतिक स्तर पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने की जिस चुनौती की बात कही थी, यूरोकम्युनिज्म से लेकर फ्रांस के ‘60 के दशक के कैम्पस विद्रोह तक की सारी कोशिशों का मूल सार किसी न किसी रूप में इन्हीं प्रश्नों का उत्तर हासिल करना था। ये जनतंत्र की नैतिक चुनौतियां है। सभ्य समाज के इन नैतिक प्रश्नों को ऐसे ही दरकिनार नहीं किया जा सकता है।“ 

“खुद मार्क्स ने सारा जीवन जनतंत्र और स्वतंत्रता के इन्हीं मूल्यों के लिये संघर्ष किया। मसलन, अखबारों की स्वतंत्रता की बात को ही लिया जाए। मार्क्स ने लिखा था, अखबारों की स्वतंत्रता की अनुपस्थिति अन्य सभी स्वतंत्रताओं को कोरा भ्रम बना देती है। स्वतंत्रता का एक रूप ठीक वैसे ही दूसरे को शासित करता है जैसे शरीर का एक अंग दूसरे को करता है। जब भी किसी एक स्वतंत्रता पर प्रश्न उठाया जाता है तो स्वतंत्रता के सामान्य रूप पर प्रश्न उठा दिया जाता है। जब स्वतंत्रता के एक रूप को खारिज किया जाता है तो सामान्य तौर पर स्वतंत्रता को ही खारिज कर दिया जाता है। मार्क्स के लेखन में जनतंत्र के प्रति अटूट निष्ठा के ऐसे असंख्य उदाहरण मौजूद है।“ 

इस प्रकार, कम्युनिस्ट आंदोलन, मजदूर वर्ग, समाजवाद के ‘आधुनिकता के प्रकल्प’ और लोकतांत्रिक ढांचे में गैर-बराबरी को दूर करने की लड़ाई की इस लंबी चर्चा के उपरांत,  हम नहीं समझते कि ‘आधुनिकता, लोकतंत्र और राष्ट्र निर्माण’ के विषय में वामपंथी परिप्रेक्ष्य से और ज्यादा कुछ कहने के लिये शेष रह जाता है। आधुनिकता के प्रकल्प की विफलताओं ने हमारे देश में दक्षिणपंथी सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ावा दिया है। इसका मुकाबला सभी प्रगतिशील और जनतांत्रिक ताकतों को एकजुट होकर करना होगा और आधुनिकता के प्रकल्प को सामाजिक गैर-बराबरी को दूर करने के लक्ष्यों से अभिन्न रूप में जोड़ना होगा। राष्ट्र के निर्माण का दूसरा कोई रास्ता नहीं हो सकता। संघ परिवार का रास्ता राष्ट्र की संपूर्ण तबाही का रास्ता है, जिसे हम पूरे मध्यपूर्व में आज साक्षात रूप में देख सकते हैं। 

इसके अतिरिक्त, क्रांतिकारिता की सारी बातें महज बातें हैं। इनके बारे में बस यही कह सकते हैं - 

आह का किसने असर देखा है
हम भी इक अपनी हवा बांधते हैं।










1-‘बेरोजगारी की प्राकृतिक दर’ - अमेरिका के नोबेलजयी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रेडमैन और एडमंड फेल्फ्स की सैद्धांतिक समझ कि यदि बेरोजगारी एक सीमा से कम होती है तो इससे कीमतों और मजदूरी में वृद्धि होती है जो भविष्य की उम्मीदों को  अस्थिर करती है। आज उपभोग को कम करके भौतिक और मानवीय पूंजी में यदि निवेश करते हैं तो इससे भावी पीढ़ी को लाभान्वित किया जा सकता है।