गुरुवार, 10 मार्च 2016

हिटलर और व्यवसायी वर्ग



-अरुण माहेश्वरी


विलियम शिरेर की किताब The Rise and Fall of Third Reich में हिटलर और जर्मनी के पूँजीपतियों के बीच सम्बन्धों का बहुत सजीव चित्र मिलता है। हिटलर के पतन के बाद नाजी पार्टी के बचे हुए नेताओं पर युद्ध के जघन्य अपराधों के लिए न्यूरेमबर्ग में मुकदमा चलाया गया था। इतिहास में यह मुकदमा न्यूरेमबर्ग मुकदमे के नाम से प्रसिद्ध है जिसके अन्त में कुछ को मृत्युदण्ड और अनेक लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। इन अपराधियों में एक व्यक्ति था बाल्थर फंक। वह जर्मनी के एक प्रमुख आर्थिक अखबार ‘बर्लिनर बोरसेन जेतुंग’ का एक समय सम्पादक था। सम्पादन के इस काम को छोड़कर वह नाजी पार्टी में शामिल हो गया तथा नाजी पार्टी और जर्मनी के महत्वपूर्ण व्यापारी घरानों के बीच वह सम्पर्क-सूत्र की तरह काम किया करता था।

न्यूरेमबर्ग मुकदमे की सुनवाई के दौरान उसने बताया था कि उसके कई उद्योगपति मित्रों ने, खासतौर पर राइनलैण्ड की बड़ी-बड़ी खदानों की कम्पनियों के मालिकों ने, उससे नाजी आन्दोलन में शामिल होने के लिए कहा था ’’ताकि उस पार्टी को निजी उद्योगों के पक्ष में लाया जा सके।’’ फंक ने यह बताया कि 1931 तक आते-आते ’’मेरे उद्योगपति मित्रों को तथा मुझे यह पूरा विश्वास हो गया था कि वह दिन दूर नहीं जब नाजी पार्टी सत्ता पर आनेवाली है।’’

हिटलर को उन दिनों ऐसे ही लोगों की तलाश थी जिनके पास धन हो। शिरेर लिखता है कि उस समय ’’पार्टी को चुनाव अभियान चलाने, व्यापक और सघन प्रचार के खर्च को चुकाने, सैकड़ों पूरा-वक्ती अधिकारियों को वेतन देने तथा अपने तुफानी दस्तों वाली निजी सेना को बनाए रखने के लिए भारी मात्रा में धन की जरूरत थी। उस समय तक उसके तूफानी दस्ते के सैनिकों की संख्या 1 लाख पर पहुँच गई थी। व्यवसायी और बैंकर ही हिटलर के कोष के सबसे बड़े स्रोत थे।’’ (शिरेर, पूर्वोक्त, पृ. 201-202)



युद्ध के बाद न्यूरेमबर्ग जेल में पूछताछ किए जाने पर फंक ने कुछ बड़े-बड़े उद्योगपतियों के नाम बताए थे जिनका हिटलर के साथ सम्बन था। कोयला खानों के शहंशाह इमिल किरदोर्फ ने सभी कोयला खान मालिकों से नियमित वसूली करके हिटलर के लिए ’’रुर ट्रेजरी’’ नाम का एक फंड ही तैयार किया था। उसके साथ हिटलर का सम्बन 1929 में कायम हुआ था। वह यूनियनों से बहुत नफरत करता था और हिटलर ने यूनियनों के विरुद्ध उसे अपने ’’तूफानी दस्ते’’ के जरिये सहायता पहुँचाई थी। किरदोर्फ के भी पहले से हिटलर को नियमित चन्दा देनेवाला व्यक्ति था फ्रिट्ज थाइसेन। ’’स्टील ट्रस्ट’’ के प्रमुख इस व्यक्ति ने बाद में एक पुस्तक लिखी : ’’आई पैड हिटलर’’, जिसमें उसने अपने इस कृत्य के लिए काफी दु:ख जाहिर किया। उसने 1923 में ही हिटलर को पहला तोहफा 1 लाख मार्क (25 हजार डालर) का दिया था। उसके साथ ही जर्मनी की यूनाइटेड स्टील वक्‍र्स का मालिक अलबर्ट वोग्लर भी नाजी पार्टी को नियमित रुपये दिया करता था। शिरेर ने बताया है : ’’1930 से 1933 के काल में सत्ता के मार्ग की अन्तिम बाधाओं को पार करने के लिए हिटलर को मुख्य रूप से उद्योगपतियों से जो कोष मिला उसका मुख्य हिस्सा कोयला और इस्पात उद्योग से आया था।’’ (शिरेर, पूर्वोक्त, पृ. 23)

फंक ने हिटलर को कोष देनेवाले और भी अनेक उद्योगपतियों और उनकी कम्पनियों के नाम बताए थे। कुल मिलाकर यह सूची काफी लम्बी है। इनमें जर्मनी के विशाल रसायन कार्टल आई. जी. फारबेन के प्रमुख डॉयरेक्टर जार्ज वान स्निजलर, पोटेशियम उद्योग के अगस्त रोस्टर्ग, अगस्त दिहन, हम्बर्ग-अमेरिका लाइन के कूनो, शक्तिशाली कोलोन उद्योग के ओटो वुल्फ, डच बैंक, कामर्स एंड प्राइवेट बैंक की तरह ही कई प्रमुख बीमा कम्पनियों और बैंकों के मालिक, जर्मनी की सबसे बड़ी बीमा कम्पनी एलियांज के मालिक शामिल थे जो हिटलर को नियमित कोष जुटाकर दिया करते थे। हिटलर के एक आर्थिक सलाहकार विल्हेल्म केपलर का दक्षिण जर्मनी के उद्योगपतियों से गहरा सम्बन था। उन्होंने व्यवसायियों का एक अलग से संगठन ही बनाया था जो हिटलर के ‘तूफानी दस्ते’ के प्रमुख हिमलर के प्रति समर्पित था। इस संगठन का उन्होंने नाम रखा था ‘सर्कल ऑफ फ्रेंड्स ऑफ इकोनोमी’।

’’कुछ उद्योगपतियों ने शुरू में हिटलर का साथ नहीं दिया था, किन्तु बाद में उन्होंने भी दबाव में आकर या बहती गंगा में हाथ धोने के इरादे से नाजी पार्टी के साथ खुद को कुछ हद तक जोड़ लिया था। ऐसी कम्पनियों में जर्मनी की सबसे बड़ी बिजली के उपकरण बनानेवाली कम्पनी सीमेंस भी थी।इस प्रकार जाहिर है कि सत्ता पर आने के हिटलर के अन्तिम अभियान में इसके पास उद्योगपतियों की विशाल धनराशि उपलब्ध थी। यद्यपि हिटलर का प्रचारमन्त्री गोयेबल्स तब भी रुपये की कमी की बात किया करता था, लेकिन सारे तथ्य बताते हैं कि हिटलर को उद्योगपतियों से ही करोड़ों मार्क प्रति महीने मिलते थे।

इन तमाम उद्योगपतियों ने हिटलर को इस प्रकार भारी धन देकर कौन सा महान काम किया था, इसे कुछ ने तो युद्ध के दौरान ही तथा कुछ ने युद्ध के बाद खुलेआम माफियाँ माँग कर स्वीकारा था। सन् 1930 में राइख बैंक के अयक्ष पद से इस्तीफा देकर 1931 में हिटलर से मिलने और अपनी पूरी शक्ति लगाकर हिटलर को बड़े-बड़े उद्योगपतियों, बैंकरों आदि के सम्पर्क में लानेवाले डॉ. स्काख्त, जिनके बारे में कहा जाता है कि हिटलर को सफलता की अन्तिम सीढि़याँ चढ़वानेवालों में वे एक सबसे प्रमुख व्यक्ति थे, ने हिटलर के चांसलर बनने के पहले ही उसे एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था : ’’मुझे कोई सन्देह नहीं है कि आज की परिस्थितियाँ आपको चांसलर बना देगी।...आपका आन्दोलन अपने अन्दर इतने बड़े सत्य और आवश्यकता को धारण किए हुए है कि विजय ज्यादा दिन तक आपसे दूर नहीं रह सकती...निकट भविष्य में मेरा कार्य मुझे कहाँ ले जाएगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, यहाँ तक कि आप मुझे किले में बन्दी पड़ा हुआ देख सकते हैं, तब भी आप मुझे हमेशा अपना वफादार समर्थक मान सकते हैं।’’ (शिरेर द्वारा उद्धृत, पृ. 205)

स्काख्त के इस पत्र पर टिप्पणी करते हुए शिरर ने लिखा है कि नाजी आन्दोलन का ’’एक बड़ा सत्य’’ जिसे हिटलर ने कभी छिपाया नहीं, वह यह था कि यदि वह पार्टी कभी जर्मनी की सत्ता पर आ गई तो वह जर्मनी से व्यक्तिगत स्वतंत्रता को, जिसमें डॉ. स्काख्त और उनके व्यवसायी दोस्तों की स्वतंत्रता भी शामिल है, समाप्त कर देगी। इसे समझने में राइख बैंक के मिलनसार अयक्ष, जिस पद पर हिटलर के काल में वे फिर लौट आए थे, तथा उद्योग और वाणिज्य के क्षेत्र में उनके सहयोगियों को थोड़ा समय लगा। डॉ. स्काख्त हिटलर के चांसलर बनने के बारे में ही एक सही भविष्यवक्ता साबित नहीं हुए, बल्कि फ्यूहरर (हिटलर का लोकप्रिय सम्बोान-अ.मा.) द्वारा उन्हें बन्दी बनाए जाने के बारे में भी उनकी भविष्यवाणी सच निकली। किले में नहीं, उन्हें बन्दी बनाकर यातना शिविर में रखा गया था, जो कहीं ज्यादा बदतर था, तथा हिटलर के ’’वफादार समर्थक’’ के रूप में नहीं (इस मामले में वे गलत साबित हुए) बल्कि उसके विरोधी के रूप में।’’ (शिरेर, पृ. 205)

सन् 1933 के जमाने से ही हिटलर ने यातना शिविरों का निर्माण शुरू कर दिया था। कँटीलें तारों से खुले स्थान को घेर कर बनाए गए ऐसे यातना शिविरों की संख्या एक वर्ष के अन्दर ही 50 हो गई थी। हिटलर के ’’तुफानी दस्ते’’ लोगों को डराने, उनसे ब्लैकमेल करने के लिए इन यातना शिविरों का खुलकर प्रयोग करते थे। इन शिविरों में सुनियोजित ढंग से हत्याएँ करायी जाती थी। बन्दियों को भूख और प्यास से तड़पाकर मार दिया जाता था। इनमें एक खासी संख्या व्यवसायी समाज के लोगों की भी थी जिनसे पैसे वसूलने के लिए हिटलर के लोग इन शिविरों का प्रयोग किया करते थे। ऐसे-ऐसे यातना शिविरों का भी गठन किया था जिनमें जिन्दा लोगों को पकड़-पकड़ कर उन पर विभिन्न प्रकार की जहरीली गैस आदि के प्रयोग किए जाते थे।


सन् 1936 तक आते-आते ही जर्मनी की अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त होने लगी थी। युद्ध की तैयारियों के लिए हिटलर ने वित्तमन्त्रालय से स्काख्त को हटाकर अपने विश्वासपात्रा गोरिंग को आर्थिक क्षेत्र का तानाशाह बना दिया था। स्काख्त को 1939 में राइख बैंक की अयक्षता से भी हटाकर उसकी जगह फंक को बैठा दिया गया। उद्योगों पर उद्योगपतियों का नियन्त्राण नहीं के बराबर रह गया। नाजी पार्टी ने उनका सिर्फ दुाधारू गाय की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जिन तमाम व्यवसायियों ने हिटलर के शासन का उत्साह के साथ स्वागत किया था और उसकी स्थापना में भरपूर योगदान किया था उनका मोहभंग होने में देर नहीं लगी। नाजी पार्टी की ओर से रोजाना उनके पास सिर्फ चन्दे की दरख्वास्तें आया करती थी। हिटलर के जरिए ट्रेड युनियनों को नष्ट करने तथा मजदूरों को सबक सिखाने की इच्छा रखनेवाले उद्योगपति अब स्वयं हिटलर की पार्टी के गुलाम बनकर रह गए थे। नाजी पार्टी को बिल्कुल शुरू से सबसे ज्यादा चन्दा देनेवाला फ्रिट्ज थाइसेन युद्ध शुरू होने के पहले ही जर्मनी छोड़कर भाग गया था। उसने उन्हीं दिनों लिखा कि ’’नाजी शासन ने जर्मन उद्योग का नाश कर दिया है।’’ वह जिनसे भी मिलता था, कहा करता था कि ’’मैं कितना बड़ा मूर्ख था।’’ (शिरेर, पूर्वोक्त, पृ. 360)

न्यूरेमबर्ग मुकदमे के बाद उद्योगपतियों से हिटलर के सम्पर्क स्थापित करनेवाले प्रमुख व्यक्ति फंक को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।शिरेर ने हिटलर के काल में छोटे-छोटे व्यावसायियों की दुर्गति का भी एक चित्रा पेश किया है। ’’छोटे व्यवसायी, जो पार्टी के समर्थकों में प्रमुख थे तथा चांसलर हिटलर से बहुत कुछ की आशा रखते थे, उनमें से अनेक बहुत जल्द ही पूरी तरह नष्ट हो गए तथा उन्हें वेतन भोगी मजदूरों की श्रेणी में देखा जाने लगा।’’ (वही, पृ. 361)

जहाँ तक मजदूरों-कर्मचारियों का प्रश्न है, उन्हें तो हिटलर के काल में तमाम अधिकारों से शून्य हुक्म का गुलाम बनाकर छोड़ दिया गया था। उनकी जिन्दगी हमेशा ’’तूफानी दस्तों’’ के आतंककारी साये में बीतती थी।आर्थिक क्षेत्र में हिटलर की चरम तानाशाही से कुछ उद्योगों ने एक काल में अनाप-शनाप मुनाफा बटोरा, लेकिन हिटलर के शासन का अन्त जर्मनी के तमाम उद्योग-धंधों को विध्वस्त खंडहरों में बदलने के रूप में ही हुआ था।

हिटलर के काल में जर्मन उद्योगों की दुर्दशा के इस लम्बे बयान से हमारा तात्पर्य यही है कि आज भारत में फासिस्ट तानाशाही की शक्तियों में व्यवसायियों का जो तबका अपनी भलाई के स्वप्न देख रहा है, वह इतिहास-बोा से पूरी तरह शुन्य एक बहुत ही अदूरदर्शी और तात्कालिक स्वार्थों तक सीमित तबका है। राजनीतिक तानाशाही का अन्तिम परिणाम अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में भी चरम अराजकता के अलावा और कुछ नहीं होता क्योंकि आर्थिक क्षेत्र में यह तानाशाही शक्तिशाली और सत्ता के निकट रहनेवाले व्यवसायियों के हितों में पूरी अर्थव्यवस्था के अन्य तमाम संघटकों का बुरी तरह नुकसान पहुँचाती है। परिणामत: सिर्फ असंतुलन और अराजकता ही पैदा होते हैं।

भारत में आर एस एस ने अपनी तानाशाही को स्थापित करने के लिए साम्प्रदायिकता का जो ताण्डव शुरू किया है उसके घातक परिणाम अभी से सामने आने लगे हैं। अभी तो आर एस एस के लोग सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधियों तथा स्वतंत्रचेता बुद्धिजीवियों को ही धमकी भरे पत्रों आदि से डराया-ामकाया करते हैं। यदि इनकी कुछ और शक्ति बढ़ी तो वे ऐसे तमाम लोगों को भी डराया-धमकाया करेंगे जो उनके आदेश के अनुसार उनके अभियानों के लिए चन्दा देने से इन्कार करेंगे।

भारतीय उद्योग का हित भी अन्ततोगत्वा भारत की एकता और अखण्डता में ही है। आर एस एस का रास्ता इस एकता और अखण्डता के बिल्कुल विपरीत है। इसलिए अपने अन्तिम निष्कर्षों में यह रास्ता कभी भी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए किसी भी रूप में हितकारी नहीं हो सकता। हिटलर के काल के जर्मनी के अनुभवों से यही सबक मिलता है।


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