बुधवार, 30 नवंबर 2016

मोदी सरकार का स्वेच्छाचार पता नहीं क्या-क्या गुल खिलायेगा ?

-अरुण माहेश्वरी


प्रधानमंत्री के सीधे निर्देश पर पाकिस्तान पर किये गये सेना के तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक के बाद से भारत-पाक सीमा पर लगातार गोलाबारी चल रही है और जम्मू और कश्मीर में बुरहान वानी के इनकाउंटर के बाद से आज तक हर रोज सेना पर आतंकवादी हमलें हो रहे हैं। यह कुल मिला कर एक ऐसा डरावना सच है जिसमें कोई भी यह साफ देख सकता है कि केंद्र में शासक दल की उग्र-राष्ट्रवादी राजनीति और विदेश नीति से लेकर राष्ट्रीय नीति के हर मोर्चे पर उसकी सरकार की चरम विफलताओं की कीमत हमारी फौज के लोगों को चुकानी पड़ रही है। पाकिस्तान पहले जहां था, वहीं आज भी है। इस बीच अगर कुछ बदला है तो वह है भारत में मोदी सरकार की स्थापना । और इसीलिये, पहले की तुलना में भारत-पाक सीमा की स्थिति में या जम्मू और कश्मीर में आतंकवाद की स्थिति में कोई गिरावट आई है तो उसकी जिम्मेदारी से मोदी सरकार अपने को पूरी तरह से मुक्त नहीं कर सकती है।

हमारी चिंता का विषय यह है कि अगर सीमा पर या कश्मीर में यह सिलसिला इसी प्रकार जारी रहा तो वे दिन दूर नहीं हैं जब भारत में भी सिविलियन और सैनिक सत्ताओं के बीच तनाव और टकराहटों की वैसी ही खबरें आने लगेगी जैसी खबरें पाकिस्तान की राजनीति का एक अभिन्न अंग बन चुकी है। सामान्य तौर पर सेना के काम करने के अपने सामरिक तर्क होते हैं। उसके लिये राष्ट्र की सुरक्षा और शासक राजनीतिक दल के राजनीतिक हित हमेशा एक नहीं हो सकते हैं। एकाध बार किसी प्रधानमंत्री की सनक के अनुसार काम करने के बावजूद यह सिलसिला अनंत काल तक नहीं चला करता है। सिविलियन सरकार से वह भी भारत के दूसरे सभी नागरिकों की तरह अपने दायित्वों के निर्वाह की अपेक्षा रखती है। सेना के अधिकारी आखिर कब तक बिना किसी सामरिक तर्क के, सिर्फ भाजपा के उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक एजेंडे के लिये सेना के लोगों की बलि चढ़ाये जाने पर चुप्पी साधे रहेंगे ? वे कब तक हमारे रक्षा मंत्री की इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण दलीलों को स्वीकारते रहेंगे कि नोटबंदी ने कश्मीर के आतंकवादियों की कमर तोड़ दी है; पत्थरबाजी कम हो गयी है !

मोदी सरकार के स्वेच्छाचार ने अभी भारत के समूचे जन-जीवन को ही अस्थिर नहीं कर दिया है, सभी स्थापित संस्थाओं की मर्यादाओं को दाव पर लगा दिया है। अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिये इसने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ मोर्चा खोल कर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच एक स्थायी तनाव की स्थिति पैदा कर रखी है। आज घरेलू सुरक्षा और सीमा की सुरक्षा की तरह के हर मामले में राजनीतिक और कूटनीतिक सूझबूझ की कमी के चलते इस सरकार की सेना पर बढ़ती हुई भारी निर्भरशीलता के बहुआयामी खतरे हैं। यह एक ओर जहां सेना को अलग, नये शक्ति केंद्र के रूप में विकसित कर सकती है, वहीं सेना के लगातार मनमाने दुष्प्रयोग से भारत में सिविलियन और नागरिक सत्ताओं के बीच एक ऐसे तनाव के बीज डाल सकती है, जिससे अब तक का भारत पूरी तरह से अपरिचित रहा है।

वह समय ज्यादा दूर नहीं है जब कोई भी सेनाध्यक्ष उठ कर खुले आम सरकार के फैसलों में सामरिक तर्क के अभाव के नाम पर उसे चुनौती दे सकता है। ऐसे में, शासक दल की पसंद के जजों की तलाश की तरह ही अपनी पसंद के सेना के अधिकारियों की तलाश की अंधी दौड़ कौन सा नया संकट पैदा कर सकती है, इसका सही-सही अनुमान लगाना अभी कठिन है। लेकिन जब सरकार का संचालन राजनीतिक विवेक और सूझबूझ के बजाय अज्ञान और तुगलकी सनक से किया जाने लगे तो उससे ऐसी हर प्रकार की विकृति के पैदा होने की आशंका बनी रहती है।

भारत-पाक सीमा पर बने हुए तनाव और कश्मीर की समस्या के प्रति मोदी सरकार के कोरा शौर्य-प्रदर्शन वाले इस रुख में ऐसे सभी खतरे निहित हैं।



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