शनिवार, 1 जुलाई 2017

तद्भव का नया अंक : इतिहास के त्रिभागी काल विभाजन पर हरबंस मुखिया की एक टिप्पणी पर टिप्पणी


-अरुण माहेश्वरी

आज ही ‘तद्भव’ पत्रिका का मई 2017 का अंक मिला। हमेशा की तरह बहुत सारी महत्वपूर्ण सामग्रियों से भरा हुआ। इसमें एक उल्लेखनीय लेख है हरबंस मुखिया का -‘इतिहास लेखन के लिये काल विभाजन अनिवार्य है ?’
इस लेख में जिस महत्वपूर्ण नुक्ते को चर्चा का विषय बनाया गया है वह है ‘आधुनिकता’ का नुक्ता। पश्चिमी आधुनिकता ने अपनी इयता को साबित करने के लिये कैसे अपने पीछे प्राचीन काल और मध्ययुग के दो अन्य युगों की परिकल्पना पेश की, इसी पर केंद्रित है यह लेख। प्राचीन काल अर्थात मनुष्यता के शैशव को स्वर्णिम काल मान लिया गया और आधुनिक काल के पहले की कई सदियों को अंधकारमय मध्ययुग। इस अंधेरे के बिना आधुनिकता का उजलापन दिखाना कठिन जो था !

अभी हाल में ‘लहक’ पत्रिका में प्रकाशित अपने एक लेख ‘औपनिवेशिक दंश का शिकार हिंदी आलोचना’ में हमने कमोबेस इसी प्रकार की समस्या की चर्चा की है कि कैसे सर विलियम जोन्स सहित सभी ब्रिटिश भारतविदों ने सुचिंतित ढंग से 11वीं सदी के पहले के प्राचीन भारत की संस्कृति को भारतीय संस्कृति का स्वर्णिम काल बताया, 11वीं सदी से 18वीं सदी के काल को मध्ययुगीन अंधेरे का काल बता कर ब्रिटिश औपनिवेशिक काल को प्रगतिशील और आधुनिक काल के रूप में पेश किया। ब्रिटिश भारतविदों के इसी ढांचे को उस काल के भारतीय भाषाओं के विद्वानों ने भी अपना लिया और इसके चलते हिंदी सहित भारतीय भाषाओं में साहित्य आलोचना एक भारी स्मृतिभ्रंश की शिकार हुई। हिंदी में रामचंद्र शुक्ल से लेकर परवर्ती मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी आलोचना भी इस बीमारी से मुक्त नहीं हो पाई। जबकि, भारत की जिस बहुलता को आज भारत की शक्ति माना जाता है, वह इसी 11वीं सदी से 18वीं सदी के काल की देन है जब इस्लाम के प्रवेश के साथ भारतीय संस्कृति के तमाम क्षेत्रों में एक अलग प्रकार की अन्तरक्रिया का प्रारंभ होता है। (देखें: https://chaturdik.blogspot.in/2017/06/blog-post_24.html )

बहरहाल, हरबंस मुखिया ने अपने लेख में इतिहास के इस दोषपूर्ण काल-विभाजन की ओर इशारा करते हुए इतिहास में निरंतरता के तत्व पर बल दिया है और इतिहास के अध्ययन के लिये यह प्रस्तावित किया है कि ‘‘इतिहास के इस त्रिभागी काल विभाजन से जरा दूर हट कर समय या काल की मूल्य रहित इकाइयों का प्रयोग करें ; जैसे, विश्व इतिहास पांचवीं सदी से आठवीं सदी तक, या भारत का इतिहास ग्यारहवीं सदी से सोलहवीं सदी तक आदि।’’

मुखिया ने त्रिभागी प्रकार के काल विभाजन में एक और अतिरिक्त समस्या भी देखी है - इसमें निहित एकलता (singularity)  की ।उनके अनुसार इसके चलते ही वे सारी विकृतियां पैदा होती है जो एक सत्य के नाम पर आदमी-आदमी को एक दूसरे के खून का प्यासा बना देती है। ‘‘एकलता में एकाधिकार छिपा होता है और प्रत्येक अन्य दृष्टिकोण के साथ अन्तर्विरोध का संबंध हो जाता है।’’

हरबंस मुखिया ने जिस ‘एकलता’ की समस्या को त्रिभागी काल विभाजन के साथ जोड़ कर देखा, उसे आज के प्रमुख मार्क्सवादी दर्शनशास्त्री स्लावोय जिजेक उस प्रकार से नहीं देखते हैं जैसा मुखिया ने देखा है। जिजेक की एक अत्यंत महत्वपूर्ण किताब है - Absolute Recoil । इसे उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को एक नये आधार पर स्थापित करने के अपने  प्रकल्प की तरह पेश किया हैं। वे इतिहास में द्वंद्वात्मकता को किसी एक द्वंद्व के बजाय ग्रीक के dialektika से अर्थात द्वंद्वों से, द्वंद्व के बहुवचन से जोड़ते है। ऐतिहासिक द्वंद्वात्मकता को वहां कोई एक सर्वकालिक द्वंद्व पर स्थिर होने के बजाय द्वंद्वों के एक असंगतिपूर्ण मिश्रण, inconsistent (non-All) mixture पर स्थिर बताया गया है।

यहां सबसे महत्वपूर्ण गौर करने लायक बात यह है कि हरबंस मुखिया जिस प्रकार इतिहास में टकराहट के बजाय निरंतरता पर बल देते हैं, उससे इतिहास के एक प्रकार के सार-संग्रहवाद में तब्दील हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है। जबकि जिजेक के द्वंद्वों के असंगतिपूर्ण मिश्रण के साथ ही उनका हेगेल से लिया हुआ Absolute Recoil (परम प्रत्यावर्तन) का पद भी जुड़ा हुआ है, जिसमें इतिहास को किसी निरंतरता में नहीं, बल्कि लगातार परिवर्तनों के संयोगों से होने वाले प्रत्यावर्तन की कड़ियों की श्रृंखला में दिखाया गया है। यथार्थ परिस्थिति के हर वृत्त के विस्तार के अंदर से ही संक्रमण के संयोग का बिन्दु आता है और उस वृत्त से अलग यथार्थ का पूरी तरह से एक नया वृत्त जन्म लेता है जिसका अपना अतीत, वर्तमान और भविष्य होता है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे गर्भवती मां एक अवधि के बाद एक बच्चे को जन्म देती है । इतिहास को उन्होंने समग्र रूप से इन्हीं वृत्तों की एक श्रृंखला बताया है। इसप्रकार, हर वृत्त में निहित भविष्य के बीज न सिर्फ अपने एक वर्तमान को, बल्कि अतीत को भी नये रूप में लिखते हैं। अर्थात इतिहास भी अतीत के कुछ निश्चित मान लिये गये तथ्यों का संकलन भर नहीं होता है। भविष्य के द्वारा वह भी निरंतर परिवर्तनशील वर्तमान के साथ नये सिरे से लिखा जाता रहता है। (देखें - Absolute Recoil, Introduction)

इसीलिये, हरबंस जी को जिस बात की चिंता है कि क्या हम अपने आज के युग को कभी कोई मध्ययुग कहलाना सही मानेंगे, तो हमारा यही कहना है कि आने वाली पीढ़ी हमारे वर्तमान युग को मध्ययुग कहे या न कहे, कोई मायने नहीं रखता। लेकिन यह तय है कि हम अपने वर्तमान को जिस रूप में देखते है, आगत पीढ़िया जरूरी नहीं कि अपनी अतीत को उसी रूप में देखें।

इसी सिलसिले में हम और एक दिलचस्प बात का उल्लेख करना चाहेंगे। भारतीय योगसाधना में यह मान कर चला जाता है कि मन विकल्पात्मक होता है, अविकल्प नहीं। जिजेक अपनी इस सबसे महत्वपूर्ण किताब ‘Absolute Recoil’ में आदमी के मनन की प्रक्रिया में चीजों के बनने-बिगड़ने के तमाम पक्षों के सम्मिश्रण के इस विकल्पात्मक महाभाव का भी विवेचन करते दिखाई देते हैं। चीजों के बारे में आदमी के ज्ञान में कितने प्रकार के पहलू काम करते है, जो द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के बीच से ही आदमी के हस्तक्षेप से भौतिक दुनिया को बदलते हैं, इसके तमाम पक्षों को उन्होंने इस उपक्रम में उजागर किया है। मार्क्सवादी चिंतक एलेन बदउ के शब्दों को उधार लेते हुए वे कहते सच्चे भौतिकवाद को ‘‘बिना भौतिकवाद वाला भौतिकवाद’’ (materialism without materialism) कहा जा सकता है।

जैसे भारत के कश्मीरी शैवमत के 11वीं सदी के दार्शनिक अभिनवगुप्त 'तंत्रालोक' में कहते हैं कि जब हम विषय के अन्तर्विरोधों (विकल्पों) पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, अन्तर्विरोधों का संस्कार, शोधन और परिमार्जन शुरू हो जाता है और वह अन्त में स्फुटतम अवस्था पर पहुंच जाता है, एक निश्चित अर्थ देने लगता है। इस प्रकारए कहा जा सकता है कि द्वंद्वात्मकता से एक अद्वैत ज्ञान तक की यात्रा तय होती है। ‘विश्वभावैकभावात्मकता’ तक की। (विश्व में जितने भी नील-पीत, सुख-दुख आदि भाव है, उन सबका एक भावरूप में, सर्व को समाहित करने वाले महाभाव रूप में, आत्मरूपता का अविकल्प भाव से साक्षात्कार के सर्वश्रेष्ठ स्वरूप तक की) यह ‘द्वंद्वों का असंगत मिश्रण’ ही प्रत्यभिज्ञा का सामस्त्य भाव है। (श्रीमदभिनवगुप्तपादाचार्य विरचित: श्रीतंत्रालोक:, प्रथममाकिम् .।।141।।)

हाल में लहक में मुक्तिबोध पर लिखे गये अपने एक लंबे लेख में हमने इस प्रसंग की अलग से चर्चा की है। (देखें: https://chaturdik.blogspot.in/2017/03/recontextualisation.html )

बहरहाल, ‘तद्भव’ के इसी अंक में रवीन्द्र कालिया पर ममता कालिया जी के संस्मरण को भी एक सांस में पढ़ गया। किसी भी समग्र जीवन में एक कड़ी की अचानक अनुपस्थिति से कैसे जीवन की एक पूरी तरह नई संरचना का उद्भव होता है, इसके संकेतों को इस संस्मरण में बखूबी देखा जा सकता है।

इसके अलावा इस अंक में एक लंबी कहानी है अलका सरावगी की - ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’। इसे पढ़ने की कोशिश की, लेकिन उनका कोरी बतरस वाला रोग इस लंबे वृत्तांत को लगभग एक असंभव पाठ बना देता है।

इसमें एक और उल्लेखनीय सामग्री है चार पत्रकारों के उपन्यासों - प्रियदर्शन के ‘जिंदगी लाइव’, शाजी जमां के ‘अकबर’, सूर्यनाथ सिंह के ‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’ और हृदयेश जोशी के ‘लाल लकीरें’ - की शशिभूषण द्विवेदी की समीक्षा। इसके जरिये इधर के इन चार उपन्यासों के कथानकों से अच्छा परिचय हो गया।

बाकी सामग्री अभी पढ़ नहीं पाया हूं, लेकिन एक नजर में माधव हाड़ा का ‘मीरां की कविता का लोकपाठ और देश भाषा’ , मधु कांकड़िया का यात्रा वृत्तांत ‘जो नहीं हो सके पूर्णकाम’ भी उल्लेखनीय लगते हैं।

कृष्णा सोबती और इंद्रनाथ चैधुरी के लेखों का महत्व तो उनके होने में ही है।

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