शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (24)


-अरुण माहेश्वरी

'धर्म जनता की अफीम है' 

इसके पहले कि हम युवा हेगेलपंथ और मार्क्स के विषय से आगे बढ़े, क्यों न हम मार्क्स और धर्म के पूरे विषय पर एक बार समग्रता में विचार करें । जैसा कि खुद मार्क्स ने कहा था  - “धर्म की आलोचना सभी आलोचना की पूर्व-शर्त है“, अर्थात यह एक ऐसा विषय रहा है जिसके बीच से हम मार्क्स और उसके विचारों के उत्स को पहचान सकते हैं । इसके अलावा आज की दुनिया में भी राजनीति के तात्कालिक दबावों के चलते भी धर्म के विषय में मार्क्स के विचारों की एक समग्र समझ बनाना हर लिहाज से समीचीन दिखाई देता है । इसीसे मार्क्स के बारे में मोसेस हेस के उद्गार की वास्तविकता की भी एक समझ हासिल की जा सकती है ।


जब कोई भी विचार व्यापक जनता के दिलो-दिमाग में बैठकर जनता की चेतना के हिस्से बन जाते हैं तब वे महज विचार न होकर भौतिक यथार्थ का रूप ले लेते हैं। और, भौतिक यथार्थ के प्रति मार्क्स का रुख सिर्फ नकार का रुख नहीं, यथार्थ को विश्लेषित करने, समझने तथा उसे बदलने की सकारात्मक कार्रवाइयों का था। किसी भी विचार का अंत उसके जन्म की यथार्थ परिस्थिति के अंत से जुड़ा होता है। उनका मानना था कि “व्यवहार से काटकर किसी भी विचार की यथार्थता या अयथार्थता का प्रश्न एक कोरा वितंडा है।''

उनकी राय थी कि धर्म पर चलताऊ ढंग से विचार करने, फब्तियां कसने या हुंकारे भरने के बजाय धर्म की समग्र आलोचना का एक ढांचा विकसित किया जाना चाहिए। यूरोपीय रेनेसांस से लेकर ज्ञान प्रसार के पूरे काल में भी धर्म हर प्रकार के विचारधारात्मक संघर्ष के केन्द्र में रहा है। लेकिन, रेनेसांस के काल में ही बुद्धिवाद और विवेकवाद तथा विचारों के केन्द्र में मनुष्य की स्थापना के साथ ही नास्तिकता और धर्मनिरपेक्ष चिंतन की मजबूत परम्परा भी शुरू हो गयी थी।


धर्म के प्रति मार्क्स के दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि में धर्म के बारे में विचार का यह आधुनिक परिप्रेक्ष्य था । इसके पहले कि हम कुछ विस्तार के साथ धर्म के बारे में मार्क्स के विचारों की जांच करें, शुरू में ही यह कह देना उचित होगा कि चिंतन के अन्य क्षेत्रों की तरह ही धर्म संबंधी विचारों में भी मार्क्स ने अपने पहले के यूरोपीय चिंतन को पूरी तरह से आत्मसात करके गुणात्मक स्तर पर स्वयं को अपने पूर्ववर्तियों से अलग किया था। मार्क्स के विचारों की मौलिकता इसी गुणात्मक स्तर पर भिन्नता में रही है और यदि इसे हम सही ढंग से पहचान पाते हैं तो धर्म के प्रति मार्क्स के दृष्टिकोण की विशिष्टता की सही पहचान कायम कर पायेंगे।


धर्म और मार्क्स विषय का चर्चा में आम तौर पर मार्क्स  के प्रसिद्ध कथन का जिक्र आती है कि 'धर्म जनता की अफीम है' । प्रश्न उठता है कि क्या मार्क्स के विचारों की मौलिकता एकमात्र धर्म को अफीम बताने के कथन में निहित थी ? ओवेन चैडविक की पुस्तक “द सेक्युलराइजेशन ऑफ द यूरोपियन माइन्ड इन द नाईनटींथ सेंचुरी'' में दिये गये ब्यौरे से यह पता चलता है कि यूरोपीय चिंतन के इतिहास में धर्म को अफीम बताने या गम गलत करने वाले किसी नशे के रूप में सबसे पहले मार्क्स ने ही नहीं देखा था। मार्क्स से बहुत पहले सन् 1767 में ही फ्रांसीसी भौतिकवादी डि होल्बाख ने ईसाईयत पर हमला करते हुए कहा था कि “धर्म मनुष्य को उत्साह में मस्त करने की एक ऐसी कला है जो उसे अपने पर शासकों द्वारा किये गये जुल्मों पर सोचने से रोकती है।''
मार्क्स के काल में अफीम शब्द काफी लोकप्रिय हो गया था क्योंकि उसी काल में अंग्रेजों ने चीन के खिलाफ अपना अफीम युद्ध (1838-42) चलाया था। उन दिनों फायरबाख सहित अनेक विचारकों ने ईसाई धर्म पर हमला करते हुए अफीम को याद किया था। मार्क्स के अत्यंत निकट के तीन मित्र मार्क्स के पहले ही धर्म के संदर्भ में अफीम की चर्चा कर चुके थे।

मोसेस हेस ने अपने लेखों के एक संकलन में नशीले पदार्थों के रूप में अफीम, ब्रांडी के साथ ही धर्म का भी उल्लेख किया था। इन्हीं लेखों में एक वाक्य आता है “गुलाम होने के कारण ही कोई मनुष्य दयनीय होता है तथा धर्म उसे गुलामी को सहने की सामर्य्ई देता है, लेकिन वह उसे गुलामी से खुद को मुक्त होने की शक्ति नहीं दे सकता है।''
ओवेन चैडविक

इनके अलावा मार्क्स के अत्यंत करीबी मित्र, अध्यापक ब्रुनो बावर ने तो एकाधिक बार इस प्रकार के विचार व्यक्त किये थे। बावर नास्तिक थे। अपने नास्तिक विचारों के कारण ही उन्हें बर्लिन विश्वविद्यालय से 1841 में निकाल दिया गया था। अपने एक लेख “द क्रिश्चियन स्टेट एण्ड आवर टाइम्स'' में बावर ने यह विचार व्यक्त करते हुए कि राज्य को धर्म के प्रति निरपेक्ष होना चाहिए तथा उसके कानून सिर्फ मनुष्य के अधिकार पर टिके होने चाहिए, यह बताया था कि किस प्रकार राजसत्ता का धार्मिक स्वरूप स्वतंत्रता के लिए मनुष्य की मूल वृत्तियों को सुलाने में अफीम की तरह काम करता है।


कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म जनता की अफीम है और वह उसे अपने पर किए जा रहे जुल्मों से लड़ने में अशक्त बनाता है, सिर्फ इस बात में मार्क्स की मौलिकता नहीं थी। मार्क्स की मौलिकता इस बात मंम थी कि अपने वक्त के कट्टर नास्तिकतावादियों के सुर में सुर मिलाकर धर्म को अफीम कहने के बावजूद वे उनकी तरह धर्म का सिर्फ उपहास करने या उसे तिरस्कृत करने तक ही सीमित नहीं रहे। वास्तविक जीवन में धर्म का स्थान क्या है, इसे परिभाषित करते हुए वे निन्दामूलक होने के बजाय काफी काव्यात्मक हो जाते हैं।


“धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह, हृदयहीन विश्व का हृदय, आत्माहीन परिवेश की आत्मा है।'' गौर करने की बात यह है कि मार्क्स के कथन की यह काव्यात्मकता उनके लेखन की सिर्फ शैलीगत विशिष्टता नहीं थी। मार्क्स विचारों को सिर्फ विचारों के दायरे में ही विवेचित नहीं किया करते थे। विचार के सामाजिक उत्स की तलाश उनकी नैसर्गिकता थी। उनकी इसी प्रवृति ने धर्म के साथ समाज के दबे-कुचले तबकों के अभिन्न संबंधों की ओर उनका ध्यान आकर्षित किया और जीवन का यही ठोस यथार्थ उनके धर्म संबंधी चिंतन के केन्द्र में आ गया।

(क्रमशः)







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