बुधवार, 9 अगस्त 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (29)


-अरुण माहेश्वरी

पवित्र परिवार और सन् 1844

इस प्रकार डाक्टर्स क्लब के यंग हेगेलियन्स के बीच की दर्शनशास्त्रीय और धर्मशास्त्रीय चर्चा के एक लंबे इतिहास के बीच से गुजरते हुए हमने देखा कि कैसे सन् 1840 के काल में ही मार्क्स ने धर्म के पूरे विषय को उसके अपने दायरे से बाहर एक बड़े सामाजिक परिप्रेक्ष्य में विचार का विषय माना था । और धर्म की चर्चा से शुरू करके वे मनुष्य के परायेपन और पूंजीवाद की आलोचना की अपनी दिशा को पकड़ चुके थे ।

जब उन्होंने धर्म नामक भ्रांति को आद्योपांत, पूरी तरह से जान लिया, जब उसके सारे रहस्यो के भेद को पा लिया तो सचमुच वे धर्म के विषय से हमेशा के लिये मुक्त हो गये । आगे के पूरे तीन दशक तक फिर उन्होने उस विषय की ओर मुड़ कर ताका तक नहीं । धर्म बाद में उनके लिये विषय को कोरा रहस्यमय बना दिये जाने के एक रूपक से अधिक महत्व का नहीं रह गया । किसी भी भ्रांत वस्तु को पूरी तरह से जान कर उससे पूरी तरह से मुक्त हो जाने की सचाई का इसे एक क्लासिक उदाहरण कहा जा सकता है ।


जिस 1844 में उन्होंने 'यहूदी प्रश्न' वाला निबंध लिखा, उसी साल ब्रुनो बावर की तमाम स्थापनाओं का खंडन करते हुए उन्होंने एंगेल्स के साथ मिल कर 'पवित्र परिवार' (The Holy Family) पुस्तक लिखी जिसके ऊपर, प्रारंभ में ही एंगेल्स की पहली पंक्ति है — “ 1844 की गर्मियों में जब पेरिस में मैंने मार्क्स से मुलाकात की तभी तमाम सैद्धांतिक मसलों पर हमारे बीच पूर्ण सहमति साफ हो गई थी और वही हमारे संयुक्त लेखन का साल रहा ।“ दोनों की इस मुलाकात के वक्त ही मार्क्स ने एंगेल्स को कहा था कि क्यों न हम अपनी 'यंग हेगेलियन्स' के दिनों की अपनी सैद्धांतिक उत्तेजनाओं को लिख डाले । इसी उपक्रम में न सिर्फ उनके संयुक्त लेखन का एक प्रकल्प ही सामने आया बल्कि दोनों के बीच एक ऐसे आपसी संबंध की नींव पड़ी जिसने सारी दुनिया को बदल देने में एक अहम भूमिका अदा की ।

1844 में पेरिस में समाजवादियों के साथ मार्क्स और एंगेल्स

इस किताब की एक कहानी यह भी है कि इसमें एंगेल्स को जो लिखने का जिम्मा दिया गया था उसे तो उन्होंने अपने दस दिनों के पेरिस प्रवास के समय ही लिख दिया था लेकिन किताब का प्रमुख काम मार्क्स ने ही किया था क्योंकि इसमें मार्क्स को अपनी 'पांडुलिपियों' में से कुछ चीजों के इसमे शामिल करना था, जिस पर वे उन दिनों काम कर रहे थे । इस काम को उन्होंने 1844 के नवंबर महीने तक में पूरा किया । किताब का शीर्षक 'पवित्र परिवार' प्रकाशक का दिया हुआ शीर्षक था जो बावर बंधुओं और उनके समर्थकों को संबोधित होने के कारण अपने में व्यंग्यात्मक संपुट लिये हुए था ।

उस समय के अखबारों में इस किताब की काफी चर्चा हुई थी क्योंकि उसमें विद्रोही माने जाने वाले बावर बंधुओं की खिंचाई थी । एक अखबार ने लिखा कि समाजवादी विचारों के पेश किया गया है क्योंकि यह “हमारे समय की सामाजिक बीमारियों के खिलाफ किसी भी आधे-अधूरे कदम की अनुपयुक्तता“ को बताती है । फिर भी इस पुस्तक के क्रांतिकारी विचारों के खतरे को लोगों ने पकड़ा था और कहा गया था कि मार्क्स के अत्यंत व्यापक ज्ञान से कोई इंकार नहीं कर सकता और न ही हेगेल के तर्कशास्त्र में वितर्क करने के शस्त्र-भंडार, जिसे आम तौर पर 'इस्पाती तर्क' कहते हैं, के प्रयोग करने की उनकी सामर्थ्य को कोई नकार सकता है ।

बाद के दिनों में लेनिन ने 'पवित्र परिवार' के बारे में कहा था कि इसके जरिये ही वैज्ञानिक क्रांतिकारी भौतिकवादी समाजवाद की आधारशिला रखी गई थी । ब्रुनो बावर ने 1845 में ही इस किताब का प्रत्युत्तर देने की एक कोशिश की थी जिसमें उनका कहना था कि मार्क्स और एंगेल्स ने उन्हें गलत समझा था । मार्क्स ने 1846 में अपने एक लेख में बावर का जवाब दिया और बाद के काल में 'जर्मन विचारधारा' पुस्तक के दूसरे अध्याय में भी इसकी चर्चा की ।


1844 का ही यह साल था जब मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध “1844 की आर्थिक और दर्शनशास्त्रीय पाण्डुलिपियों“ (Economic and Philosophic Manuscripts of 1844) की टीपें लिखीं जिन्हें मार्क्सवादी दर्शन और राजनीतिक अर्थशास्त्र की आधारभूत मान्यताओं के प्रथम सूत्रीकरण के तौर पर लिया जाता है । इसके पहले 1843 में मार्क्स ने अपनी किताब “हेगेल के कानून के दर्शन की आलोचना में एक योगदान“ (A Contribution to the Critique of Hegel’s Philosophy of Law) लिखी थी जिसकी भूमिका भी 1844 में लिखी गई, जिस पर हम पहले थोड़ी चर्चा कर चुके हैं ।

हेगेल के कानून का दर्शन पर अपनी किताब में मार्क्स ने मानव मुक्ति की समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित किया था । इस कृति में ही वे क्रांतिकारी रूपांतरण में सर्वहारा की ऐतिहासिक भूमिका के बारे में अपने महत्वपूर्ण निष्कर्ष तक पहुंचे थे । इसमें उन्होंने पहली बार यह घोषित किया था कि सर्वहारा एक ऐसी सामाजिक शक्ति है जो मानव मात्र की पूर्ण मुक्ति के काम को संपन्न कर सकती है । इसी में चिंतन और चेतना के क्षेत्र में वे एक बहुत ही क्रांतिकारी महत्व के इस नतीजे पर पहुंचे थे कि “आलोचना का हथियार निश्चय ही आलोचना को हथियार से प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है, भौतिक शक्ति को भौतिक शक्ति के जरिये ही उखाड़ फेंका जा सकता है ; लेकिन सिद्धांत भी जैसे ही जनता के हृदय में बस जाते हैं, वे भौतिक शक्ति का रूप ले लेते हैं ।“
(क्रमशः)



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