गुरुवार, 10 अगस्त 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (30)


-अरुण माहेश्वरी

हेगेल के न्याय दर्शन की आलोचना

मार्क्स किस प्रकार धर्म को क्रमशः अपने वैचारिक मानदंडों से अलग करने लगे, इसका एक उदाहरण यह भी था कि फायरबाख ने हेगेल के न्याय दर्शन के विश्लेषण में  धर्म की आलोचना का जो रास्ता पकड़ा था, मार्क्स ने उस दिशा में एक भी कदम नहीं बढ़ाया । सामाजिक संबंधों की रोशनी में ही वे हेगेल के न्याय दर्शन पर विचार करते हैं । हेगेल के न्याय दर्शन के प्रति मार्क्स के आकर्षण का कारण भी राजसत्ता और समाज के संबंधों के बारे में हेगेल की शिक्षाएं थी ।

हेगेल के न्याय दर्शन की आलोचना की प्रक्रिया में ही मार्क्स इस नतीजे पर पहुंचे थे कि नागरिक समाज ही राज्य को निर्धारित करता है । नागरिक समाज मनुष्यों के निजी, सबसे पहले उनके भौतिक, हितों का क्षेत्र होता है जिनके साथ सामाजिक संबंध जुड़े होते हैं । राज्य नागरिक समाज का गठन नहीं करता । जबकि हेगेल उल्टा देख रहे थे ।

मार्क्स चाहते थे कि नागरिक समाज को वे और ठोस रूप में परिभाषित करें जिसमें उसके ऐतिहासिक विकास की मूल बातों को शामिल किया जा सके । खास तौर पर वे इसके विकास के उस चरण की व्याख्या करना चाहते थे जिसमें पूंजीवादी निजी संपत्ति ने भौतिक संबंधों के क्षेत्र में प्रमुख भूमिका अदा करना शुरू कर दिया था । अपने समय में राज्य और पूंजीवादी मिल्कियत के बीच के परस्पर संबंधों की एक भौतिकवादी व्याख्या करते हुए मार्क्स ने लिखा कि विकसित देशों में मौजूद राजनीतिक संविधान “निजी संपत्ति का संविधान है।“ “सर्वोच्च राजनीतिक आस्था निजी संपत्ति की आस्था है । (MECW, Vo;. 3, page – 98)(The political constitution at its highest point is therefore the constitution of private property.The supreme political conviction is the conviction of private property.)


आइयें, आगे बढ़ने के पहले हम इस कृति में युवा मार्क्स की दार्शनिक तर्क प्रणाली की एक बहुत छोटी सी बानगी को देखते हैं । वे लिखते हैं —

“हेगेल ने यहां एक अनसुलझा विरोध खड़ा कर दिया । एक ओर बाहरी जरूरत, दूसरी ओर आंतरिक लक्ष्य । राज्य के अंतिम सामान्य उद्देश्य के साथ व्यक्तियों के खास हितों की एकता को इस तथ्य में निहित मान लिया जाता है कि राज्य के प्रति उनके कर्त्तव्य और राज्य में उनके अधिकार दोनों एक है । (अर्थात संपत्ति का सम्मान करने के कर्त्तव्य को संपत्ति में अधिकार के साथ मिला दिया गया ।)

...“इस बिंदु पर तार्किक, सर्वेश्वरवादी रहस्यवाद बिल्कुल साफ हो जाता है ।
“वास्तविक संबंध यह है — “व्यक्ति के संदर्भ में राज्य की भूमिका की मध्यस्थता परिस्थितियों, लोभ, और व्यक्ति की वृत्ति के अपने चयन के जरिये होती है ।“ काल्पनिक दर्शनशास्त्र इस तथ्य को, इस वास्तविक संबंध को प्रतीति अथवा परिघटना के रूप में पेश करता है । ये परिस्थितियां, यह लोभ, यह वृत्ति का चयन, यह वास्तविक मध्यस्थता — यह सब एक मध्यस्थता की महज प्रतीति है जिसे वास्तविक विचार खुद से व्यक्त करता है या जो दृश्य के पीछे चलता रहता है । यथार्थ को अपने खुद के रूप में नहीं बल्कि अन्य यथार्थ के रूप में पेश किया जाता है । साधारण नजर आने वाले तथ्य की अपनी नहीं, बल्कि उससे अलग उसके कानून की आत्मा होती है ; जबकि वास्तविक विचार के अस्तित्व का ढांचा खुद से ही विकसित कोई वास्तविकता नहीं, बल्कि सामान्य अनुभवजन्य तथ्य होता है ।

Abandon all hope, you who enter here.

“… परिवार और नागरिक समाज राज्य के परिसर है ; वे सचमुच के सक्रिय तत्व है, लेकिन काल्पनिक दर्शन में चीजों को उलट दिया जाता है । जब विचार को विषय बना दिया जाता है, तो फिर, वास्तविक विषय, मसलन, नागरिक समाज, परिवार, “परिस्थितियां, लोभ इत्यादि“ एक भिन्न महत्व के अयथार्थ वस्तुनिष्ठ तत्व बन जाते हैं ।“ (MECW, Vol. 3, page- 6-8)

बाद के दिनों में खुद मार्क्स ने 'हेगेल के न्याय दर्शन की आलोचना' को अपने भौतिकवादी विचारों के गठन में एक बड़ी भूमिका निभाने के लिये इस रूप में याद किया है  —“अपने को आक्रांत करने वाली शंकाओं के समाधान के लिए मैंने जो प्रथम कृति हाथ में ली, वह थी हेगेल के न्याय दर्शन की आलोचनात्मक समीक्षा जिसकी भूमिका पेरिस में प्रकाशित 'Deutsch-Französische Jahrbücher' 1844 में छपी थी । अपने अन्वेषणों से मैं इस परिणाम पर पहुंचा कि कानूनी संबंधों एवं राज्य के रूपों को स्वयं उनसे या तथाकथित मानव मस्तिष्क के सामान्य विकास से नहीं समझा जा सकता, बल्कि उनका मूल जीवन की भौतिक अवस्थाओं में है, जिनके समाहार को हेगेल ने 18वीं सदी के फ्रांसिसियों और अंग्रेजों की मिसाल पर  “नागरिक समाज“ का नाम दिया था, लेकिन अगर उस नागरिक समाज के ढांचे का पता लगाना है तो उसकी राजनीतिक अर्थ-व्यवस्था को देखना होगा ।“( Preface to A Contribution to the Critique of Political Economy)

1859 के जनवरी महीने में लंदन में लिखी गई इसी भूमिका का अंत मार्क्स ने दांते की 'दिव्य कॉमेडी' की इन प्रसिद्ध दो पंक्तियों को उद्दृत करते हुए किया था —

“विज्ञान के प्रवेश द्वार पर, नरक के प्रवेश द्वार की ही भांति, यह आदेश टंगा हुआ होना चाहिएः
“समस्त दुविधाओं की यहां तिलांजलि देनी होगी ;
प्रत्येक कातर चिंता को यहां दफन करना होगा ।“ *



* Qui si convien lasciare ogni sospetto;
ogni viltà convien che qui sia morta.

Here one must leave behind all hesitation;
here every cowardice must meet its death.

(क्रमशः)

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