शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

सीपीआई(एम) पर बहुमतवादियों का यह कैसा मकड़जाल है !

- अरुण माहेश्वरी


सीपीआई(एम) के अंदर 1996 के बाद से ही जब मतदान और बहुमत के जरिये संयुक्त मोर्चा के सर्वसम्मत चयन के बावजूद ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया गया, प्रकाश करात के नेतृत्व में बहुमतवादियों ने एक अनोखी परिपाटी चला दी है कि देश और पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण विषयों पर मतदान के जरिये निर्णय लिये जाएं । मजे की बात यह है कि पार्टी की काम करने की इस पद्धति को जनवादी केंद्रीयतावाद कह कर महिमामंडित किया जाता है । सीपीआई (एम) के अंदर के लोग इसी बात पर खुश हो लेते हैं कि वे पार्टी के संचालन की सर्व-स्वीकृत लेनिनवादी लाइन का पूरी निष्ठा से पालन कर रहे हैं । और अपनी इस सिद्धांत-निष्ठा के जोश में वे न सिर्फ पार्टी के लगातार पतन की सच्चाई से आंख मूंदे रहते हैं बल्कि खुद अपनी पार्टी के संविधान को भी पूरी तरह से भूल जा रहे हैं ।

सीपीआई(एम) के संविधान के जिस परिच्छेद में 'जनवादी केंद्रीयतावाद के सिद्धांतों' के बारे में विस्तार से कहा गया है, उसमें बहुत साफ शब्दों में यह भी कहा गया है कि “ जब किसी पार्टी कमेटी में गंभीर मतभेद पैदा हो जाए तो सहमति पर पहुंचने की हर संभव कोशिश की जानी चाहिए । इसमे विफल होने पर निर्णय को टाल दिया जाना चाहिए ताकि आगे और बहस के जरिये मतभेदों को दूर किया जा सके, बशर्ते पार्टी और जन आंदोलन की जरूरतों को देखते हुए तत्काल फैसला करना आवश्यक न हो ।“(धारा – 13, 2सी)

अपने ही संविधान की इस धारा की भावना के विपरीत, कोरे संख्या बल से सारी चीजों को तय करने की इन बहुमतवादियों की जकड़बंदी ने आज सीपीआई(एम) को किस प्रकार हंसी का पात्र बना कर छोड़ दिया है, यह पिछले सभी अनुभवों के बाद एक बार फिर कामरेड सीताराम येचुरी को राज्य सभा से वापस बुला लेने की घटना में देखा गया ।  कहना न होगा, सीपीआई(एम ) के बहुमतवादियों ने कामरेड सीताराम येचुरी को राज्य सभा से विदा होने के लिये मजबूर करके एक बार फिर पार्टी के अंदर अपनी एक महान जीत अर्जित कर ली और संसद में सीपीआई(एम) की आवाज को कमज़ोर करके उसे संसदवादी भटकाव से बचाने और 'क्रांतिकारी' रास्ते पर अडिग रखने की दिशा में एक और बड़ी सैद्धांतिक सफलता भी प्राप्त कर ली । यद्यपि बहुत सारे लोगों के मन में आज भी यह सवाल बना रह गया है कि यदि कांग्रेस पार्टी ने सीताराम येचुरी के बजाय सीपीआई(एम) के बहुमतवादियो में से किसी नेता या नेत्री को अपना समर्थन देने की पेशकश की होती तब भी क्या सीपीआई(एम) अपनी उस विचारधारात्मक शुद्धता पर इसी भाव के साथ डटी रहती !


हम जानते हैं, जब यूपीए-1 को समर्थन देने का फैसला किया गया था, इन्हीं बहुमतवादियों को कांग्रेस को समर्थन देने में कोई सैद्धांतिक संकोच नहीं हुआ था, क्योंकि पर्दे के पीछे, अंधेरे में काम करने के अभ्यस्त सीपीआई(एम) के इस 'क्रांतिकारी' समूह के लिये इसमें अंदर-अंदर अपने वर्चस्व के दिखावे का खेल खेलने की पूरी संभावना नज़र आ रही थी । और, अपनी इसी थोथी हेकड़ी के प्रदर्शन के चक्कर में बेबात ही इस तबके ने यूपीए-1 सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था । तभी से प्रकाश करात और उनके साथ के बहुमतवादियों अंध कांग्रेस-विरोध की जो गांठ बांध ली उसने जैसे पूरी पार्टी के ही हाथ-पांव बांध कर रख दिये । इस एक नीति ने सीपीआई(एम) को एक कागजी शेर बना कर छोड़ दिया है । वह सिर्फ बयानबाजी की पार्टी बन कर रह गई है । सांप्रदायिकता के खिलाफ जनता की अधिकतम एकता की उसकी सारी बातें यथार्थ की जमीन पर खोखली हो जाती है, क्योंकि हमारी राजनीतिक सच्चाई यह है कि कांग्रेस को अलग करके साप्रदायिकता के खिलाफ किसी भी व्यापक लड़ाई की कल्पना भी नहीं की जा सकती है ।

इस प्रकार, सीपीआई(एम) का बहुमतवादी समूह कांग्रेस से दूरी रखने की अपनी नीति पर तो अटल है, लेकिन वह सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ जनता के व्यापक एकजुट आंदोलन को बड़ी आसानी से भूल जा रहा है । फलतः, थोथी बयानबाजियों और इस प्रकार राजनीति के रंगमंच पर पूरी तरह से अप्रासंगिक हो जाने के अलावा उसके पास कुछ नहीं रह जा रहा है ।

हाल में सीपीआई(एम) के मुखपत्र 'पीपुल्स डेमोक्रेसी' में, जिसके संपादक प्रकाश करात है, बिहार में नीतीश के विश्वासघात के प्रसंग में निहायत अप्रासंगिक तरीक़े से कांग्रेस को घसीट कर यह फैसला सुनाया है कि भाजपा के खिलाफ ऐसा कोई भी संयुक्त प्रतिरोध सफल नहीं हो सकता है जिसमें कांग्रेस दल शामिल होगा । इसमें कांग्रेस को नव-उदारवादी नीतियों को लादने के लिये मुख्य रूप से ज़िम्मेदार बताते हुए कहा गया है कि भाजपा को हराने के लिये जरूरी है कि हिंदुत्व की सांप्रदायिकता के साथ ही नव-उदारवाद से भी लड़ा जाए ।
हमारा इन 'सिद्धांतकारों' से एक छोटा सा सवाल है कि नव-उदारवाद से उनका तात्पर्य क्या है ? क्या यह इक्कीसवी सदी के पूँजीवाद से भिन्न कोई दूसरा अर्थ रखता है ? तब क्या फासीवाद-विरोधी किसी भी संयुक्त मोर्चे की यह पूर्व-शर्त होगी कि उसे पूँजीवाद-विरोधी भी होना पड़ेगा ? क्या मार्क्सवादी सिद्धांतकारों ने फासीवाद को पूँजीवाद के दायरे में भी एक अलग स्थान पर नहीं रखा था ? स्टालिन ने जब कहा था कि जनतंत्र के जिस झंडे को पूँजीवाद ने फेक दिया है, उसे उठा कर चलने का दायित्व कम्युनिस्टों का है, तब क्या वे प्रकारांतर से पूँजीवाद की ताक़तों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की पैरवी ही नहीं कर रहे थे ?

प्रकाश करात ने ही कुछ दिनों पहले 'इंडियन एक्सप्रेस' में यह लिखा था कि वे अभी भाजपा को फासीवादी नहीं कहेंगे । इस पर भारी विवाद हुआ था, लेकिन किसी भी सवाल का जवाब देने के बजाय वे चुप्पी साध कर बैठे रहे थे । यही वह बहुमतवादी समूह है जिसने यूपीए-1 से निकल कर वामपंथ के 'अभूतपूर्व विस्तार' की दिशा में छलाँग लगाई थी । इसके पहले के ज्योति बसु वाले प्रसंग की हम पहवे ही चर्चा कर चुके हैं जब केंद्रीय कमेटी में बहुमत जुटा कर भारतीय राजनीति में वर्चस्व की लड़ाई से वामपंथ को हमेशा के लिये अलग कर लिया गया था और प्रकारांतर से इसकी लगाम को भाजपा के सुपुर्द करने का महान कृत्य किया गया ।

वास्तविकता यह है कि कोई भी दल सत्ता में हो, परिस्थिति अंतर्विरोधों से रहित नहीं रह सकती । उसकी दरारों में हमेशा बदलाव के लक्षणों को पाया जा सकता है । संसदीय राजनीति में जनवादी ताक़तों की कार्यनीति की भूमिका यह है कि उन दरारों का लाभ कैसे क्रमश: प्रगतिशील शक्तियों के पक्ष में उठाया जाए न कि प्रतिक्रियावादियों को उनका लाभ उठाने की अनुमति दी जाए । कार्यनीति कभी भी तथाकथित शुद्धतावाद की बहादुरी से तय नहीं की जाती है । शुद्धतावाद आपको पार्टी में गुटबाज़ी के लिये एक आड़ तो प्रदान कर सकता है, कभी किसी दल के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की अनुमति नहीं दे सकता । जैसा कि ट्राटस्कीपंथियों की लंबी-चौड़ी, लेकिन खोखली दलीलों में देखा जा सकता है ।

कार्यनीति का मतलब ही है राजनीति में अपने वर्तमान के हित को साधो, अपने मित्रों के दायरे को बढ़ाओ । और जो अपने वर्तमान को नहीं साध सकते वे भविष्य के लिये भी किसी काम के नहीं रहते हैं । जिस महान नैतिकता के लक्ष्य के लिये ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोका गया और फिर भारत को साम्राज्यवाद से मुक्त करने के जिस महान लक्ष्य के लिये यूपीए-1 से समर्थन वापस लिया गया, भारतीय वामपंथ उन्हीं 'शौर्य गाथाओं' के खोखलेपन का भुक्त भोगी है । आज फिर सीपीएम में ये बहुमतवादी अपनी गुटबाज़ी के स्वार्थ में उसी प्रकार का थोथी वीरता के प्रदर्शन वाला डान क्विगजोटिक खेल खेल रहे हैं ।

नव-उदारवाद से लड़ाई का जो अर्थ पश्चिम के विकसित साम्राज्यवादी देशों में है, भारत की तरह के विकासशील देश में नहीं है । अमेरिका में ओबामा केयर के लिये लड़ाई भी नव-उदारवाद के खिलाफ लड़ाई है । यह वहाँ विकसित हुए व्यापक सामाजिक सुरक्षा के नेटवर्क की रक्षा की लड़ाई है जिसके हवाले से पश्चिम के बुद्धिजीवी इन विकसित देशों को साम्यवाद से सिर्फ एक कदम पीछे बताने की तरह की व्याख्याएँ भी किया करते है। उस लड़ाई को गोरक्षा, लिंचिंग और राममंदिर में अटके हुए भारत की लड़ाई बताना स्वयं में एक बहुत बड़ी विच्युति है ।

जनतंत्र पर तंज करता हुआ इक़बाल का यह मशहूर शेर है -
'जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते'

सीपीएम के बहुमतवादी प्रकाश करात के नेतृत्व में पार्टी के अंदर इसी प्रकार के जनतंत्र को साधने में लगे हुए हैं। इन्हें ऐतिहासिक क्षणों में भी शुद्ध संख्याबल पर निर्णय लेने में कोई संकोच नहीं होता और उसे 'आंतरिक जनतंत्र' की जीत बता कर डुगडुगी बजाते हैं । ऐसा लगता है कि सीपीआई(एम) में प्रकाश करात के नेतृत्व में बहुमतवादियों ने भाजपा के खिलाफ एकजुट प्रतिरोध में कांग्रेस को शामिल करने के मामले में चल रहे मतभेदों को उनकी अंतिम परिणति तक ले जाने, अर्थात पार्टी को तोड़ डालने तक का निर्णय ले लिया है ।

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