शनिवार, 30 सितंबर 2017

'न्यूटन' – हास्य-व्यंग्य की एक सीधी-सरल फिल्म


-अरुण माहेश्वरी


आज 'न्यूटन' फिल्म देखी । छत्तीसगढ़ का माओवाद प्रभावी क्षेत्र और उसमें घने जंगल में माओवादियों की चुनौती के सामने सिर्फ 76 मतदाताओं के एक मतदान केंद्र पर वोट कराने की चुनौती । न्यूटन नव-नियुक्त नौजवान अधिकारी है, जिसने निष्ठा के साथ अपने सरकारी कर्त्तव्य का पालन करने का पाठ पढ़ा है । उसे ही संयोगवश इस केंद्र का प्रिसाइडिंग ऑफिसर बना कर भेजा जाता है ।

नीचे का पूरा सरकारी महकमा और पुलिस बल के लिये यह मतदान कोरी खानापूर्ति से ज्यादा मायने नहीं रखती है । लेकिन जनतंत्र में राज्य इतना भी न करे तो क्या करे ! बुलेट पर बैलट की श्रेष्ठता ही तो जनतंत्र के होने का प्रमाण है । इसीलिये माओवादियों की चुनौती और सरकारी मुस्तैदी, दोनों ही प्रतीकात्मकता से कुछ ज्यादा मानीखेज हो जाते हैं । ज़मीनी सचाई से वाक़िफ़ लोग दोनों पक्षों की ऐसी प्रतीकात्मकता की निस्सारता को बख़ूबी समझते हैं । पुलिस और सुरक्षाबलों की तरह ही  स्थानीय आदिवासी वोटकर्मी भी । लेकिन न्यूटन ! उसे तो एक सरकारी कर्मी के नाते हर क़ीमत पर सिर्फ अपने पवित्र कर्त्तव्य का पालन करना है !

जिस समय-काल में जीवन में कोई पवित्रता शेष नहीं है, सब राज्य के कोरे पाखंड का हिस्सा बन चुकी है, उस समय न्यूटन अपने कर्त्तव्य की पवित्रता को सर पर लादे हुए हैं, अर्थात पूरी ईमानदारी के साथ एक पाखंड को ही लादे हुए है,! यही इस फिल्म की कहानी का सार-तत्व, उसके मूल चरित्र की विडंबना है । जीवन का पाखंड और ईमानदार कर्त्तव्य-निष्ठा के बेमेल मेल से पैदा होने वाले एक कारुणिक हास्य की विडंबना। न्यूटन में यह निष्ठा लगभग एक मनोरोग की तरह प्रकट होती है । वह लगभग विक्षिप्त स्थिति में सुरक्षाकर्मियों की इच्छा के विरुद्ध उन पर बंदूक़ तान कर मतदान के समय की अंतिम घड़ी तक मतदान की समाप्ति की घोषणा नहीं होने देता है ।

न्यूटन अपनी सारी मासूमियत के बावजूद अनायास ही व्यवस्था पर से पर्दा उठाने वाले शहर में घूमते किसी आईने की भूमिका अदा नहीं कर पाता है क्योंकि पहले से ही पूरी तरह से नंगी व्यवस्था को और ज्यादा नंगा तो नहीं किया जा सकता है ।कुल मिला कर पूरी फील्म कर्त्तव्य-निष्ठा पर ही एक हास्य-व्यंग्य का रूप लेती दिखाई देती है ।

वैसे कहने के लिये कहा जा सकता है कि प्रकारांतर से यह वर्तमान समय के पूरे स्वरूप पर, इसकी संरचना पर एक तंज भी है जिसमें कर्त्तव्य-निष्ठा से बड़ा मज़ाक़ और कुछ नहीं जान पड़ता है । लेकिन सच कहा जाए तो न्यूटन अभी की पूरी सेटिंग में एक ऐसा करुण चरित्र ही दिखाई देता है जो रोष के बजाय हास्य ज्यादा पैदा करता है । न्यूटन की गर्दन टेढ़ी हो गई है, लेकिन व्यवस्था इन सबसे पूरी तरह से अप्रभावित सुरक्षा अधिकारी की तरह शापिंग मॉल में मजे से ऑलीव ऑयल की खरीद का मज़ा लूट रही है ।

राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, अंजली पाटिल, संजय मिश्रा – सब मंजे हुए अभिनेता हैं । अमित मासुरकर ने साफ सुथरे ढंग से कही गई कहानी के शिल्प का प्रयोग करके दर्शकों को बांधे रखा है, लेकिन फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है कि इसे आस्कर जैसी प्रतियोगिता के लिये भेजने के बारे में सोचा भी जा सके ।

इसमें कोई रचनात्मक तनाव नहीं नज़र आता है, इसीलिये इसकी कोई रचनात्मक उपलब्धि भी नहीं है ।



शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

अथ श्री बाबा शिरोमणि कथा


-अरुण माहेश्वरी


बाबा शिरोमणि, बाबा रामदेव । बाबाओं की अभी की सारी कीर्तियों के अंधेरे आकाश में टिमटिमाते क़िस्सों के बीच यदि किसी एक बाबा की कहानी की हैसियत इस आसमान के चाँद की तरह हो सकती है तो वह रामदेव के अलावा शायद ही दूसरे किसी की होगी ।

जब तक इन बाबाओं की गुफ़ाओं के राज नहीं खुलते है, ये सब परम संन्यासी होते हैं, अपरिग्रह और उसके आनंद-तत्त्व की जीवित मूर्ति । इनके सत्संग में दुनिया के परम भोगी भी ब्रह्मानन्द की दशा में अपना होश-हवास गँवा इस 'माया जगत' के बाहर पहुंच जाते हैं । आशाराम बापू के मंच पर हमने मोदी जी को उनके इशारों पर मंत्रों को बुदबुदाते देखा हैं , वाजपेयी को उनकी प्रशंसा में गदगद होते और आडवाणी को हाथ जोड़ कर सियाराम की भक्ति की हनुमान-मुद्रा में बार-बार देखा है ।

और इन सब गुरुओं में जिसे गुरुघंटाल कहा जा सकता है, उस बाबा रामदेव को तो राजनीतिक नेताओं को चाबुक की फटकार से हाँकते इधर कई सालों से देखा जा रहा है । एक समय, जब मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ अन्ना हज़ारे का आंदोलन अपने शीर्ष पर था, प्रनब मुखर्जी समेत केंद्र के चार-चार मंत्री इसके स्वागत के लिये हवाई अड्डे पहुंच गये थे क्योंकि उन्हें इस बाबा के रोष को शांत करना था । हांलाकि उसकी आगे की कहानी थोड़ी अलग रही ।

लेकिन जहाँ तक मोदी जी का सवाल है, इनका मंत्रिमंडल तो इस बाबा को गायत्री मंत्र के रचयिता ब्रह्मर्षि विश्वामित्र से कम नहीं मानता । इसने पतंजलि के योगदर्शन का शाप-मोचन कर उसे कसरत का नया रूप देकर इस सरकार के तो जैसे काम की पूरी दिशा ही बाँध दी ; हमेशा सस्ते और आसान रास्ते से बाजीमात करने की फिराक में रहने वाले मोदी जी को भारत को विश्वगुरु के रूप में स्थापित करने का एक 'अचूक' नुस्ख़ा दे दिया । बाक़ी सारे कामों को व्यर्थ जान, पिछले तीन सालों से वे इस कसरत-योग के प्रचार में ही तन-मन-धन देकर पूरे भक्तिभाव से लगे हुए हैं ।

इसी बाबा ने भारत के संकट-मोचन के लिये पिछले चुनाव प्रचार के दौरान आयकर नामक चीज को ही उठा देने का जो मंत्रोच्चार किया था उससे सबसे अधिक मंत्र-मुग्ध आज की मोदी-जेटली जुगल जोड़ी ही हुई थी । भले इस जोड़ी ने बाद में वह काम तो नहीं किया लेकिन ऐसी प्रेरणा से ही भारत के इतिहास के उस अध्याय की पुनरावृत्ति जरूर की, जो तुगलकीपन के नाम से बदनाम है - नोटबंदी के एक धक्के से पूरी अर्थ-व्यवस्था को गर्त में डाल दिया और जिस बेहूदगी पर आज तक ये मंदबुद्धि लोगों की तरह तालियाँ बजा कर नाच रहे हैं कि देखो जो काम दूसरा कोई शासक नहीं कर सकता था, उसे हमने कर दिया । एक धक्के में भारत की अर्थ-व्यवस्था के पूर्ण मोक्ष का मार्ग खोल दिया !

आज के इस बाबा-युग में ऐसे बाबा शिरोमणि की गुफ़ा में किसी छोटे से सुराख से भी ताक-झाँक करने के लोभ का भला कोई भी लेखक-पत्रकार कैसे संवरण कर सकता है । प्रियंका पाठक-नारायण भी नहीं कर पाई । वह पिछले दस सालों से इस गेरुआधारी के चमत्कारी करतबों को देख रही थी, उसके पास के बहुत सारे लोगों से, प्रत्यक्ष विरोधियों से भी मिलने, बात करने का उसे मौका मिला है । उसके सेवादारों को भी उसने देखा-जाना  । और अंत में फिर जब वे अपने देखे-सुने को लिखने बैठी तो सामने आई यह बाबा शिरोमणि की कथा - बाबा रामदेव के जीवन पर आधारित 'GODMAN To TYCOON :The untold story of Baba Ramdev'



यह किताब आज एक सबसे चर्चित किताबों में एक है । इसकी बिक्री 4 अगस्त 2017 के दिल्ली कोर्ट के एक आदेश के बावजूद नहीं रुक पाई है । बाबा ने इसे आदेश की अवमानना बताते हुए फिर से कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, किताब की लेखिका, प्रकाशक 'जगरनौट' और अन्य को कारण बताओ नोटिस जारी किया, लेकिन यह किताब किसी वर्चुअल स्पेश में नहीं, ठोस ज़मीनी यथार्थ में वायरल की तरह पसरती जा रही है । आज भी 'एमेजन' पर यह आसानी से उपलब्ध है । उच्च अदालत में इसके सर्कुलेशन पर रोक के दिल्ली की अदालत के आदेश को चुनौती दी गई है। बाबा कहते हैं, इसमें उनके जीवन के तथ्यों को अपमानजनक ढंग से पेश किया गया है। रामदेव की याचिका पर दिल्ली की अदालत ने 4 अगस्त को अपने आदेश में कहा था कि पहली नजर में देखने से साफ है कि विवादित किताब पढ़ने पर पाठकों को लगेगा जैसे बाबा रामदेव एक अपराधी किस्म के व्यक्ति हैं, जिन्होंने प्रसिद्धि, सफलता और पैसा पाने के लिए हर हद पार कर दी है ।  ऐसी स्थिति में निश्चित रूप से याचिकाकर्ता की छवि को अपूरणीय क्षति होगी।और इसीलिये बाबा को राहत देते हुए इस किताब के प्रकाशन और बिक्री पर रोक लगा दी । अब अदालत का यह फ़ैसला भी उच्चतर अदालत में एक विवादित विषय है । जो बाबा शिरोमणि भारतीय राज्य के शीर्ष पर होने, और किसी को भी देख लेने का का दंभ भरता है, उसे भारतीय पाठकों का गुरिल्ला युद्ध बुरी तरह से परेशान किये हुए हैं। इस किताब की आज चर्चा चारों ओर चल पड़ी है ।



एक के बाद एक, उनके जीवन के सोपानों के रहस्यों से गूँथ कर बनाई गई इस अढ़ाई सौ पन्नों की रहस्य गाथा में वैसा ही प्रवाह है जैसा हम अक्सर तिलस्मी कहानियों या जासूसी उपन्यासों में पाते हैं । हरियाणा के सैद अलिपुर गाँव के एक किसान का मरियल बेटा, जो खेती के काम का नहीं था, किसी रोगवश टेढ़ा देखने के कारण बचपन में गाँव का 'काणिया' रामकिशन यादव आज बाबा शिरोमणि बन कर भी अपना असली जन्म दिन किसी को नहीं बताता । 9 अप्रैल 1995 के दिन जब हरिद्वार में कनखल के कृपालुबाग आश्रम में प्रवेश के लिये उसने आश्रम के मालिक शंकर देव जी महाराज से गेरुआ वस्त्र धारण किया था, उस दिन को ही वह अपना जन्मदिन मानता है ।



लेकिन प्रियंका की कहानी से ही आगे पता चलता है कि शंकर देव तो रामदेव के मित्र कर्मवीर से प्रभावित होकर उसे अपनी विरासत सौंपना चाहते थे । कर्मवीर आदर्शनिष्ठ आर्य समाजी था, उसे ऐसे आश्रम की ज़िम्मेदारी स्वीकार्य नहीं थी क्योंकि वह उसके आर्यसमाजी विचारों के विपरीत मूर्ति-पूजा की, घंटा-घड़ियालों की जगह थी । उसने शंकरदेव के प्रस्ताव को विनम्रता से ठुकरा दिया ।





लेकिन कुछ दिनों बाद असम के अपने किसी सेवा शिविर के दौरान रामदेव ने कर्मवीर को समझाया कि सेवा के अपने काम को चलाने के लिये ही हमें अपने पैरों के नीचे ज़मीन चाहिए ; क्यों न हम कृपालुबाग में घुस जाते हैं !

और वहीं से कर्मवीर, रामदेव और बालकृष्ण तीनों मित्र शंकर देव के पास पहुंच गये । आश्रम की एक समस्या थी कि उसकी ज़मीन पर बने घरों में कई पुराने किरायेदार रहते थे, और शंकरदेव को चिंता थी कि उनके आँख मूँद लेने के बाद ये किरायेदार ही पूरे आश्रम की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लेंगे । इसीलिये उन्होंने इन तीन मित्रों से एक करारनामा करके सभी किरायेदारों को उजाड़ने का इन्हें ठेका दे दिया । दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट का गठन हुआ जिसमें कर्मवीर ने रामदेव को अध्यक्ष बनवा दिया । हरिद्वार में जब बिल्कुल शुरू में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद रामदेव आया था, तब कर्मवीर के पास ही उतरा था और उसी ने अपनी कोठरी में रामदेव को यह शपथ दिलाई थी कि वह किसी भी सेवा कार्य के लिये कभी किसी से पैसे नहीं लेगा ।


कहना न होगा, रामदेव के दिव्य योग मंदिर की आधारशिला रखी गई थी कृपालुबाग आश्रम की ज़मीन पर सालों से रह रहे किरायेदारों को उजाड़ने के ठेके के साथ । कृपालुबाग आश्रम में ही रामदेव ने शंकरदेव का बाक़ायदा वारिस बनने के लिये अपने आर्यसमाजी सिद्धांतों की तिलांजलि देकर 9 अप्रैल 1995 के दिन शंकर देव के हाथ से गेरुआ वस्त्र धारण करके संन्यास लिया । उनकी नज़र टिकी हुई थी कृपालुबाग आश्रम की संपत्ति पर । अर्थात् संन्यास भी लिया संपत्ति के लिये ! इस किताब से ही यह भी पता चलता है कि बारह साल बाद 14 जुलाई 2007 के दिन अत्यंत रुग्ण अवस्था में वृद्ध और लगभग कंगाल शंकर देव, अर्थात रामदेव के मानस पिता जब अपने आश्रम से अचानक ग़ायब हो गये, उस समय अमेरिका के शिकागो शहर में डालर गिन रहे रामदेव के पास देश लौट कर इस विषय की सुध लेने की भी फ़ुर्सत नहीं थी ! और उसी का वारिस घोषित करने के दिन को रामदेव अपना असली जन्मदिन बताते हैं !

रामदेव के दिव्या फ़ार्मेसी का लाइसेंस जिस विधिवत वैद्य योगानंद आश्रम के स्वामी योगानंद के नाम पर था उस दीन-असहाय वैद्य की 27 दिसंबर 2004 की रात के अंधेरे में छुरा मार कर तब हत्या कर दी गई जब दिव्या फ़ार्मेसी की दवाओं का अपना एक बाजार बन चुका था और इसके साल भर पहले ही 2003 में रामदेव ने उनकी जगह अपने कुछ गुमाश्तों वैद्यों के नाम से दिव्या फ़ार्मेसी के लाइसेंस का पंजीकरण करवा लिया था । अंत तक पुलिस को इस हत्या का कोई सुराग़ ही नहीं मिल पाया ।

रामदेव का सबसे क़रीबी दोस्त, एक प्रकार से पथ प्रदर्शक और शंकर देव के कनखल के कृपालुबाग आश्रम में रामदेव को ले जाने वाले कर्मवीर ने उसके क्रमश: खुल रहे रामदेव के लोभी चरित्र को देख कर उसका साथ छोड़ दिया । 25 मार्च 2005 के दिन बिना किसी से कहे एक गाड़ी में बैठ कर वह कृपालुबाग़ आश्रम से चला गया ।


कृपालुबाग आश्रम में ही 1997 में दस-बारह लोगों को लेकर कर्मवीर की देखरेख में रामदेव का पहला योग शिविर लगा था । जड़ी-बूटियों और आयुर्वेदिक दवाओं के जानकार बालकृष्ण के च्यवनप्रकाश को साइकिल पर घर-घर बेचने के बाद उसकी दवाओं का उत्पादन दिव्या फ़ार्मेसी के लेबल में यहीं पर शुरू हुआ था ।

हरिद्वार के तमाम मठों-आश्रमों में बैठे कई साधु-संन्यासियों के एक खास प्रकार के जीवन की तरह ही रामदेव और उसकी मित्र-मंडली का जीवन अपनी एक गति से चलने लगा । इसके साथ दिव्या फ़ार्मेसी में डाक्टर के मुफ्त देखने की व्यवस्था ने उस क्षेत्र के ज़रूरतमंद लोगों को आकर्षित किया और उसी सिलसिले में देहरादून की कम्प्यूटर प्रोग्रामर राधिका नागर्थ का बालकृष्ण से परिचय हुआ और उसने दिव्या फ़ार्मेसी का एक लोगों और वेबसाइट भी तैयार कर दिया । रामदेव और कर्मवीर योगा शिक्षक के रूप में धीरे-धीरे उस क्षेत्र में नाम कमाने लगे थे ।

इसी काल में सन् 2002 में रामदेव के जीवन में एक बड़ा और नया मोड़ आया जब मुंबई में 'आस्था' और 'संस्कार' के धार्मिक चैनलों से उसका संपर्क हुआ । ये चैनल इलाहाबाद के एक पत्रकार माधव मिश्रा के मस्तिष्क की उपज थे, जिसने सीएमएम ब्रोडकास्टिंग के सीईओ किरीत मेहता को इस प्रकार के धार्मिक चैनल के लिये प्रेरित किया था । इसी वर्ष महाकुंभ मेला के प्रसारण में 'आस्था' को ज़बर्दस्त सफलता मिली । 'आस्था' के महीने भर बाद ही दिलीप काबरा ने एक और धार्मिक चैनल 'संस्कार' शुरू कर दिया था । 'आस्था' ने देखते-देखते अपनी अन्तरराष्ट्रीय शाखाएँ भी खोल ली।

इसी माधव मिश्रा ने ही हरिद्वार में रामदेव और कर्मवीर के एक योगशिविर में रामदेव की पेट को घुमाने की नौली क्रिया को देखा और उसने इस क्रिया के प्रदर्शन के बाजार मूल्य को भाँप लिया । वह रामदेव को मुंबई ले गया । 'आस्था' वालों को तो इस साधू का खेल समझ में नहीं आया लेकिन 'संस्कार' वाले इसे मौका देने लिये तैयार हो गए और देखते ही देखते टेलिविजन के नये माध्यम पर सवार होकर पेट घुमाता हुआ रामदेव देश और सारी दुनिया में फैलता चलता गया । देश-विदेश में उसके शिविरों में भीड़ उमड़ने लगी और रामदेव योग कसरत के तूफ़ानी दौरों से दोनों हाथों से रुपये बटोरने लगा । नाना प्रकार के चंदे रामदेव की झोली में आने लगे । ख़ास तौर पेट को घुमाने वाली नौली क्रिया उसके प्रदर्शन के इस खेल में खूब काम आई । घूमता हुआ पेट दर्शकों को चकरा देने के लिये काफ़ी था । सोलह सौ साल पहले की पतंजलि की प्राणिक क्रियाओं का बाजार के एक लोकप्रिय बिकाऊ माल के रूप में पुनरावतार हुआ । राजनीतिज्ञों ने भी उसके दरबार में हाज़िरी लगा-लगा कर उसे प्रकृत अर्थों आज के काल का बाबा शिरोमणि बना दिया । रंगीन तबियत के कांग्रेस के उत्तराखंड के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव रामदेव के प्रमुख संरक्षक बन गये ।

प्रियंका ने इस किताब में आगे काफी विस्तार के साथ 'आस्था' चैनल के मालिक किरीत मेहता और 'संस्कार' के काबरा आदि के साथ रामदेव के व्यवहार की, हरिद्वार बुला कर एक बंद कमरे में डरा-धमका कर किरीत मेहता से उसके चैनल के सारे शेयरों को अपने नाम लिखा लेने की कहानी सुनाई है । आज इन दोनों चैनलों की पूरी मिल्कियत रामदेव की कंपनियों के पास ही है ।


इस किताब में एक बहुत ही दिलचस्प चरित्र आता है राजीव दीक्षित का । योग कसरत गुरू का कायांतर एक स्वदेशी के प्रचारक गुरू के रूप में करने वाले राजीव दीक्षित का । वह रामदेव के संपर्क में 2008 में आता है । उसके साथ मिल कर 'भारत स्वाभिमान आंदोलन' का प्रारंभ होता है जो राजनीति के क्षेत्र में रामदेव के सीधे प्रवेश की सूचना थी । इसके साथ मिल कर ही रामदेव ने भारत स्वाभिमान यात्रा की । लेकिन इस यात्रा के दो महीने बाद ही 30 नवंबर 2010 को अपने 42 वें जन्मदिन पर छत्तीसगढ़ के बेमेतारा में आर्य समाज के एक होस्ट हाउस में राजीव मरा हुआ पाया जाता है । प्रियंका ने राजीव की इस असमय मृत्यु और हरिद्वार में उसके दाह-संस्कार के विषय पर विस्तार से लिखा है जिससे पता चलता है कि राजीव के क़रीबी लोगों की तीव्र माँग के बावजूद रामदेव ने सिर्फ अपनी ताकत के बल पर राजीव के शव का पोस्ट मार्टम नहीं होने दिया ।

इसी प्रकार इस किताब में और भी कई चरित्र आते हैं जिनके बयानों से पता चलता है कि रामदेव अपने संपर्क में आने वाले लोगों को चूस कर, मसल कर कैसे अपने कारोबार का विस्तार करता चला गया है । इनमें एक प्रमुख नाम है जबलपुर के भानु फ़ार्म्स के सीईओ एस के पात्र। उसके मार्फ़त पतंजलि में मज़दूरों के लिये काम की परिस्थिति का जो चित्र मिलता उससे इस बाबा की बेशुमार सत्ता लिप्सा का ही नहीं, उसके धोखा और बेईमानी से भरे वाणिज्यिक व्यवहार का अभी पता चलता है, जिससे आतंकित होकर पात्रा इस संगठन से अंत में भाग खड़ा था । पतंजलि के कारख़ाने के मजदूर की औसत मजूरी सिर्फ 6000 रुपये प्रति माह बताई गयी है ।


इसमें एक अध्याय 'बृंदा करात का प्रवेश' शीर्षक से है जिसमें पतंजलि के कर्मचारियों के साथ घनघोर अन्याय के विरोध में सीआईटीयू के साथ बृंदा की रामदेव से टक्कर होती है । कर्मचारियों के सहयोग से ही बृंदा रामदेव की औषधियों में अघोषित पदार्थों के प्रयोग का मुद्दा भी उठाती है । रामदेव ने मीडिया और राजनीतिज्ञों के बीच अपने असर और पैसों के बल पर बृंदा को विदेशी कंपनियों का दलाल बताते हुए उसके खिलाफ जो अभियान चलाया, उससे रामदेव ने राजनीतिक विरोधियों पर हावी होने का गुर सीख लिया जो आगे भी उसके काम आता रहा । और इसी घटना से यह भी जाहिर हुआ कि अपने उत्पादों में मिलावट करने से रामदेव को जरा भी परहेज़ नहीं है । उनकी यह प्रवृत्ति कैसे उनके कारोबार के विस्तार के साथ प्रबल से प्रस्तर होती चली गई, प्रियंका पतंजलि के कई उत्पादों , खास तौर उसके घी, मंजन आदि की गड़बड़ियों के ब्यौरे से बताती है । दूसरी जगहों से सफ़ेद मक्खन को मँगा कर उसे पिघला कर वह गाय के दूध से बने शुद्ध घी के तौर पर बेचता है । इस सफ़ेद मक्खन में गाय, भैंस, बकरी और दूसरे किसी जानवर का दूध मिला हो सकता है, इसकी उसे कोई परवाह नहीं है । विभिन्न जगह से बटोर कर लाये गये उत्पादों पर अपना ठप्पा लगा कर बेचना, रामदेव का आज प्रमुख धंधा है ।

2016 के दिसंबर महीने में हरिद्वार की ज़िला अदालत ने पतंजलि आयुर्वेद पर झूठे विज्ञापन और दूसरे के उत्पाद को अपना उत्पाद बताने के अपराध में 11 लाख रुपये का जुर्माना लगाया तो 18 अप्रैल 2017 में हरियाणावासियों के फुड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने पतंजलि के गाय के घी को घटिया और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक पाया। इसी प्रकार पतंजलि के नूडल्स में कीड़े पाये गये । सेना के लोगों को सामान बेचने वाले कैन्टीन स्टोर्स डिपार्टमेंट (सीएसडी) ने पतंजलि के ऑवला के जूस को घटिया और हानिकारक पाया । पतंजलि के अधिकांश उत्पाद अन्य स्थानों से खरीद कर उन पर पतंजलि की छापेगा कर बेचे जाते हैं और इनकी गुणवत्ता पर नियंत्रण के लिये उनके पास कोई वैज्ञानिक और सही व्यवस्था नहीं है ।

इस पूरी किताब का सबसे दिलचस्प चरित्र है - बालकृष्ण, रामदेव का दाहिना हाथ और पतंजलि की सभी कंपनियों के लगभग 90 प्रतिशत शेयर का मालिक । रामदेव ने अपने संन्यासी रूप की प्रामाणिकता को कायम रखने के लिये अपने और अपने परिवार के लोगों के नाम एक प्रतिशत शेयर भी नहीं रखा है, लेकिन इस किताब का हर पन्ना उनके लोभी और षड़यंत्रकारी अपराधी प्रवृत्ति वाले चरित्र की गवाही देता है । ऐसे में आज रामदेव और बालकृष्ण के बीच का संबंध हमें एक बहुत बड़े रहस्य की गुत्थी जैसा लगता है, और हमारी नज़र में इस बाबा शिरोमणि की आगे क्या गति रहेगी, इसका अनुमान इस संबंध की गति से ही सबसे प्रकट रूप में सामने आयेगी ।


कुल मिला कर बाबा रामदेव की यह कहानी प्रेम, सेक्स , धोखा की तरह की ही एक लोमहर्षक कहानी की तरह है । वैसे भी बाबाओं का हर मामला ऊपर से जितना सुलझा हुआ दिखाई देता है, भीतर से उतना ही उलझा हुआ होता है ।

प्रियंका ने रामदेव के बारे में शुरू में ही लिखा है कि "उसके साथ घंटे भर की बैठक के बाद आपको एक करीबीपन के साथ ही एक धुँधलापन महसूस होने लगता है, और तब आपको लग सकता है कि आप तो बेवक़ूफ़ बन गये , कि रामदेव के बारे में आप कुछ भी नहीं जान पाएँ । "

इसीलिये इसके हर अंश के आख्यान में रहस्यों से जुड़ा रोमांचकारी आकर्षण शुरू से अंत तक बना रहता है । इसमें कोई शक नहीं है कि इस बाबा शिरोमणि का जब भी पूरा भांडा फूटेगा, रामरहीम की तरह ही उसके विस्फोट के धक्के में राजनीतिक गलियारों के भी अनेक कोने हिलते हुए दिखाई देंगे ।

हम जानते हैं इन बाबाओं का अनियंत्रित लोभ और इनकी बेक़ाबू वासनाएँ इनके अंत का प्रमुख कारण होती है । रामदेव ने बाक़ायदा एक बड़े व्यापारी घराने का रूप ले लिया है । इसीलिये उसके पास यह रास्ता खुला हुआ है कि कभी भी वह अपने को शुद्ध व्यापारी घोषित करके संन्यास की चादर को उतार फेंके । अन्यथा उनके चरित्र की अभी से प्रकट हो रही विसंगतियाँ कब उन्हें आशारामों, रामपालों और गुरमीतों की पंगत में बैठा देगी, ख़ुद उन्हें पता भी नहीं चलेगा ।


प्रियंका ने इस किताब में रामदेव को आज एमएमसीजी ( फ़ास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स ) की दुनिया में एक तूफान मचा देने और इस क्षेत्र के देशी-विदेशी तमाम खिलाड़ियों की सजी-सजायी बगिया को तहस-नहस कर देने वाला एक भंजक व्यक्ति कहा है । हम एक व्यापारी रामदेव की इस भूमिका में कोई दोष नहीं देखते हैं । अमेरिकी बहु-राष्ट्रीय कंपनियों ने भी उचित-अनुचित का बिना कोई लिहाज किये सारी दुनिया पर अपने वाणिज्यिक वर्चस्व को कायम कर रखा है । इसमें अनेक प्रकार की अनैतिकता, करों की चोरी से लेकर उपभोक्ताओं को भरमाने और गलाकाटू प्रतिद्वंद्विता आदि को व्यापार के सामान्य नियम मान लिया गया है । इजारेदारी की पूरी प्रक्रिया हमेशा संपत्तिहारकों के संपत्तिहरण के जरिये ही चला करती है ।

लेकिन यहाँ भी रामदेव की एक अतिरिक्त समस्या है । उसे अपने उत्पादों की गुणवत्ता के बजाय अन्यों के उत्पादों को बदनाम करने पर ज्यादा भरोसा है । मोदी-राजनीति का व्यापारिक प्रतिरूप । अपने निकम्मेपन और भ्रष्टाचार पर पर्दादारी के लिये दूसरों पर मनमाना लांक्षण । नोटबंदी की तरह की भयंकर रूप से विफल नीति की पैरवी में वे दूसरों पर भ्रष्टाचार का समर्थक होने की बेबुनियाद तोहमतें लगाते रहते हैं ।

बहरहाल, रामदेव की सबसे बड़ी समस्या है कि वह अपने को साधू-संन्यासी कहता है, लोभ-लालच से कोसों दूर, नीति-नैतिकता का प्रतीक । व्यापार और संन्यासीपन तत्त्वत: दो विरोधी चीज़ें हैं । इसीलिये बाबा रामदेव की व्यापारिक अनियमितताएँ, नाना प्रकार से लोगों को ठगने और दूसरों के धन को हड़पने की उनकी तिकड़में दुहरा अपराध हो जाती है । ऐसी मानसिकता के व्यक्ति का और बड़े-बड़े अपराधों की दिशा में बढ़ने की प्रवृत्ति उसकी शक्ति के विस्तार के समान अनुपात में बढ़ती जाती है । आने वाले दिनों में अपराधों की दुनिया में आकंठ डूबे व्यक्ति के रूप में बाबा को देखने की हम सहज ही कल्पना कर सकते हैं और यहभारत के आस्थावान अविवेकशील लोगों के लिये किसी आघात से कम नहीं होगा ।


आज आशाराम, रामपाल और राम रहीम की तरह के भारी समर्थकों वाले बाबाओं के ताज़ा अनुभवों से बेशक यह कहा जा सकता है कि इन बाबाओं ने पूरे समाज को नष्ट कर रखा है । लेकिन सवाल है कि क्या किया जा सकता है ? आम लोगों का सांस्कृतिक जीवन ऐसे तत्वों से ही भरा हुआ है । ज़रूरत है वैकल्पिक विवेकसंगत रुचियों के पूरे धीरज के साथ विकास की । इन पर कोरे हमले से आम लोगों का एक हिस्सा अपने को अकेला और सांस्कृतिक लिहाज से विरेचित पाने लगता है ।

यह सच है कि अभी के राजनीतिक समर्थन से इनके अपराधी चरित्र में एकाएक बहुत वृद्धि हो गई है । अन्यथा ऐसे भी अनेक बाबा और संत लोग हैं जो कोरे प्रदर्शनकारी कामों से दूर लोगों को शान्ति से कुछ आध्यात्मिक सरोकारों से बाँधे रखते हैं ; समाज को इतना नुक़सान नहीं पहुँचाते हैं । लेकिन इस प्रकार के प्रदर्शन प्रेमी और लोभी बाबाओं के सरोकार भिन्न होते है, मुख्य रूप से अपराधी सरोकार ।

प्रियंका पाठक नारायण ने कड़ी मेहनत से, तमाम प्रामाणिक स्रोतों को आधार बना कर इस बाबा-व्यापारी शिरोमणि की जो कहानी कही है, उसके लिये उन्हें साधुवाद ।

अगस्त के इस आखिरी हफ्ते के संकेत


—अरुण माहेश्वरी


राजनीति के बारे में साधारण प्रकार की चर्चाएं अक्सर दृष्ट की परिधि में ही सीमित होती है और इसीलिये हमेशा दृष्ट के भ्रम के रोग से ग्रसित रहने के लिये अभिशप्त भी होती है । यह रोग राजनीतिज्ञों के लिये उनके व्यक्तित्वों को बेहद बौना, उनके चरित्र को लोभी और राजनीति की चालू भाषा में सामयिक लाभ के पीछे भागने वाला सबसे घृणित तुच्छ प्राणी, दलबदलू बना देता है । जीवन के विशाल समुद्र में 'बहती गंगा में हाथ धोने' जितनी मामूली वासना के साथ जीने वाला लालची जीव !

आम तौर पर राजनीतिज्ञों का निजी रोग समझी जाने वाली यह बीमारी जब किसी पूरे के पूरे राजनीतिक दल को ही लग जाए और उसकी राजनीति नाली में लोटने-पोटने वाले ऐसे नाचीज तत्वों को ही बटोर कर लाने में लगी हुई दिखाई देने लगे तो उस पूरी राजनीति का अपना चरित्र क्या होगा, इसे यदि बिल्कुल प्रत्यक्ष और ठोस रूप में देखना हो तो आज की मोदी-शाह जोड़ी की राजनीति को देखा जा सकता है ।

मोदी जी के लिये तो जो दिखाई दे, वही राजनीति का परम सत्य है । आडवाणी ने उन्हें उस्ताद 'इवेंट मैनेजर' कहा ही था । इसीलिये राजनीति में वे अपना सबसे प्रमुख काम यही समझते हैं कि पैसों के जरिये या सत्ता के जरिये उन सब ठिकानों पर अपना कब्जा जमाओ, जिनसे प्रदर्शन किये जाते हैं — आत्म-प्रदर्शन । उन्होने सिर्फ भारत के मीडिया पर ही अपनी जकड़बंदी नहीं की, बल्कि अपनी दनादन विदेश यात्राओं को भी कूटनीतिक लक्ष्यों को साधने के बजाय विदेशी लोकेशन पर शूटिंग का जरिया बना लिया । दुनिया के बड़े-बड़े नेताओं से गलबहियों के अलावा धरती के हर कोने से मोदी-मोदी की गूंज-अनुगूंज को सुनिश्चित करने वाले आयोजन करायें । इसका भारत पर प्रभाव यह पड़ा कि यहां मोदी-मंत्र के जाप से पहले से ही भारी हवा में इस शोर का प्रदूषण सातवें आसमान पर पहुंच गया ।

इस प्रकार तीनों लोकों में अपनी सर्वव्यापी ईश्वरीय उपस्थिति की छंटा बिखेर कर औरों को तो छोड़िये, चंद महीनों पहले इसी मोदी को धूल चटा कर आए नीतीश कुमार जैसे नेता को भी मोदी का भूत सताने लगा । 'कौन है जो इस परम पिता परमेश्वर का मुकाबला करेगा !' और भी दलों के सत्ता-लोलुपों की भीड़ इस परमेश्वर के मंदिर द्वारा आयोजित कंगाली भोजन में जीभ लपलपाते जुटने लगी और इस नये एकेश्वरवाद के जयकार के नारे और भी गूंजायमान हो गये ।

और, भारत में सतह पर बैठा आम आदमी इसी चकरघिन्नी में अपने घर की स्त्रियों तक के सालों के जमा धन को बैंकों को सौंप कर रोते-तड़पते हुए ही क्यों न हो इसी कीर्तन मंडली में शामिल हो गया — जैसे आज भी बलात्कारी गुरमीत के भक्त कहते हैं कि हमने अपनी बेटी को उस भगवान के सुपुर्द कर दिया था, उसने उसके साथ जो भी किया अच्छे के लिये ही किया होगा ; बाबा जी की जय हो, बाबा जी महान है !

किसी भी ठोस और चाक्षुस चीज को लेकर जितना भी कोई 'अनादि-अनंत' वाली छंटा क्यों न बनाये, कुछ प्रकृति के अपने नियम के अनुसार ही, और बहुत कुछ इस कोरी छटा के अपने छद्म और धुए की मात्रा के कारण ही बहुत तेजी के साथ, बल्कि एक विस्फोट की शक्ल में उस चीज के अपना बिना कोई चिन्ह छोड़े हवा में काफूर होने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है । इतिहास में इसे ही संयोग का बिंदु कहा जाता है । जमा हो रहे अंतर्विरोधों के विस्फोट का बिंदु ; जितनी तेजी से ये अंतर्विरोध पनपते हैं, उतनी ही तेजी से उस घटना-चक्र का अंत भी हो जाता है । और यह बहुत कुछ खुद उसके अपने अंतर के सार-तत्व की प्रकृति के कारण ही होता है ।

हेगेल के दर्शनशास्त्र में इसे कुछ इस प्रकार निरूपित किया गया है कि किसी के भी सार-तत्व के तल को पूर्ण प्रत्यावर्तन (total recoil) के जरिये ही किसी विचार में निरूपित करना संभव होता है । प्राणी के सार तत्व को उसके आत्म के प्रत्येक आंशिक स्वरूप के जरिये भी समान रूप से पाया जा सकता है । हमारे यहां अभिनवगुप्त का प्रत्यभिज्ञादर्शन भी अन्तरजगत के अन्वेषण के इसी पूर्ण प्रत्यावर्तन का दर्शन है, जिसमें 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्मांडे' के तत्व के जरिये यही बताया गया है कि जो प्रथम पुरूष है, परमार्थतः वही उत्तम पुरुष भी है । मूल चरित्र ही उसकी सभी गतिविधियों में स्फुरित होता है ।

इसीलिये जो सिर्फ घटना-विशेष के शोर में खोये हुए सतह में ही अटके रह जाते हैं, समय के साथ सोचने की अपनी शक्ति को गंवा कर और बौने से बौने, गुलाम सरीखे हो जाते हैं, बाबा के भक्तों की मानिंद , वे कभी भी अब तक प्रकट यथार्थ का रूप न ले पाने वाले लक्षणों के संकेतों को पढ़ना तो दूर, उन पर सोच भी नहीं पाते हैं । लेकिन जो इन संकेतों को पढ़ पाते हैं वे द्वंद्ववाद के पहले नियम के अनुसार ही इतना तो अच्छी तरह से जानते हैं कि कोई भी पक्ष बिना विपक्ष की मौजूदगी के खुद अपनी मौजूदगी के लिये भी वैद्यता हासिल नहीं कर सकता है । इसीलिये, 'मोदी का विकल्प कहां है' की तरह के सवाल उठाने वाला व्यक्ति राजनीति का कोई अधम प्राणी ही हो सकता है, एक सत्ता-लोलुप बौना चरित्र, जैसे बिहार का नीतीश कुमार या राम रहीम के सेवादार । यह इनके चरित्र के तल का उन्मोचन है ।

अब एक इसी अगस्त महीने के अंतिम एक हफ्ते का घटना-क्रम देखिये, यह समझते देर नहीं लगेगी कि जो थोड़ी सी सत्ता पाकर अपने को त्रिलोकीनाथ मान अनादि-अनंत काल तक का राजा समझ लेने का घमंड दिखाने लगते हैं, वे वास्तव में अपने घमंड के अनुपात में ही कितनी कमजोर बालूई जमीन पर खड़े होते हैं । मोदी शासन का अब तक का रंग-ढंग अपने सारे छल-छद्म के बीच से ही, कुछ ऐसा रहा है जैसे ये दुनिया की इस एक प्राचीनतम सभ्यता के देश,  भारतवर्ष के लोगों की अब तक की यात्रा के सारे निशानों को ही मिटा डालेंगे । ये यहां के लोगों के जीने के अधिकार को ही अपनी मुट्ठी में ले लेने पर आमादा दिखाई देता हैं । और जैसा कि हमने पहले ही चर्चा की है, इसे इनकी कोरी तात्कालिक सनक नहीं मानना चाहिए, यह इनके समग्र चरित्र का और अब इनके अंत का भी एक दिग्दर्शन है । हम यहां किंचित विस्तार से अकेले इस एक हफ्ते की घटनाओं के संकेतों को पढ़ने की कोशिश करेंगे, इनकी सारी सीमाएं और संभावनाएं स्वतः सबके सामने आ जायेगी ।

इस एक हफ्ते के सारे घटनाक्रम से ही ऐसा लगता है जैसे अब भारतीय राजनीति का यह 'गाय, गोबर, गोमूत्र, बीफ, बाबावाद, लव जेहाद, लींचिग और 'देशभक्ति' के शोर के युग के सारे लक्षण बिल्कुल प्रकट रोग के रूप में सामने आने लगे हैं और राष्ट्र के अस्तित्व के लिये ही इनका यथाशीघ्र इलाज करना जरूरी ही नहीं, शुरू भी हो चुका है ।

इस हफ्ते सुप्रीम कोर्ट का पहला फैसला आया मुस्लिम धार्मिक कट्टरपंथ पर एक तमाचा जड़ने वाला तीन तलाक का फैसला । मुस्लिम कट्टरपंथ उसी दकियानूसी सोच के सिक्के का दूसरा पहलू है जो राजनीति में अभी के उपरोक्त 'गोबरवाद' के रूप में छाया हुआ दिखाई देता है — कह सकते हैं देश भर को कांग्रेस-विहीन बनाने के नाम पर गोबर और मूत्र से लीप देने का वाद । मुस्लिम कट्टरपंथ इसी के लिये खाद का काम करता रहा है । सुप्रीम कोर्ट ने उनकी इस औरत-विरोधी सामाजिक प्रथा को अतार्किक स्वेच्छाचार घोषित करके गैर-कानूनी करार दिया है ; इस प्रथा का पालन अब कानूनन अपराध होगा ।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर प्रधानमंत्री मोदी ने तो खुशी जताई । पिछले दिनों यूपी चुनाव के मौके पर वे इसे जिस प्रकार जोर-शोर से उछाल रहे थे, उस पर लगी वैद्यता की मोहर के जरिये उन्होंने अपनी राजनीति का झंडा भी लहराने की कोशिश की । लेकिन आम तौर पर भाजपा और आरएसएस के नेता इस पर लगभग चुप ही रहे । उनके लिये यह मसला मुसलमानों को लगातार लांक्षित और अपमानित करने का मुद्दा था, और इसीलिये वे इसे पूरी ताकत से पीट रहे थे । वे यह कल्पना ही नहीं कर पा रहे थे कि अपनी पीनक में 'हिंदुत्व को जीने का एक तरीका' बता देने वाला सुप्रीम कोर्ट इस विषय में भारतीय संविधान के मूलभूत विवेक, मनुष्यों की मर्यादा की रक्षा के पक्ष में खड़ा हो जायेगा ।

भारतीय संविधान में नागरिक संहिताओं के बारे में यह मूलभूत समझ है कि यह किसी न किसी प्रकार से इस समाज के धर्मीय वैविध्य से जुड़ी हुई है और इसलिये इसमें चले आ रहे रीति-रिवाजों, अलग-अलग प्रथाओं से जल्दबाजी में अनावश्यक छेड़-छाड़ करने की जरूरत नहीं है । लेकिन तीन तलाक का मसला अपने एक अजीब से बेहूदा आदिमपन के चलते देखते-देखते मुस्लिम महिलाओं की अस्मिता से जुड़ा उनके सम्मान-बोध का मसला बन गया था । खुद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पास इसके खिलाफ इतने आवेदन थे कि उन्होंने ही इसे जल्द बदल डालने की कसमें खानी शुरू कर दी थी । कहना न होगा, सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को इस सही दिशा में बढ़ने में सहायक होगा ।

और इसी आधार पर कहा जा सकता है कि समाज के सभी स्तरों पर पोंगापंथ के अग्रदूत आरएसएस की तरह के धार्मिक कट्टरपंथियों के लिये यह फैसला किसी बड़े धक्के से कम नहीं है । इसीलिये कट्टरपंथियों के इस पूरे परिवार को तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने काफी चिंतित कर दिया है क्योंकि कोई भी आंखों वाला आदमी इतना तो देख ही सकता है कि अभी के 'गाय, गोबर, गोमूत्र...' को भी न्यायपालिका की ऐसी अनेक चपतें लग सकती है !

इसने फिर एक बार इतना तो बता ही दिया है कि केंद्र में किसी प्रकार सत्ता पा लेने के बावजूद भारतीय राज्य का संवैधानिक ढांचा ऐसा है कि इसके किसी भी एक अंग के लिये पूरी राजसत्ता को अपनी जकड़बंदी में लेना उतना आसान नहीं है । इसके दो साल पहले ही, अक्तूबर महीने में 'नेशनल ज्यूडिशियल ऐपोयंटमेंट्स कमीशन' (एनजेएसी) के जरिये जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका, अर्थात सरकार की प्रमुख भूमिका को तय करने के लिये कॉलेजियम के मामले में मोदी-जेटली की तख्ता-पलट की कोशिशों को सुप्रीम कोर्ट ने सही भाप कर उसे एक सिरे से खारिज करके अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया था । उस समय लेखकों द्वारा पुरस्कारों को लौटाने का दौर चल रहा था । तभी हमें याद है कि सुप्रीम कोर्ट के एनजेएसी के बारे में फैसले पर हमने लिखा था कि “भारत के सभी जनतंत्रप्रिय नागरिकों को सुप्रीम कोर्ट के प्रति हमेशा के लिये आभारी होना चाहिए कि उसने पूरी स्पष्टता और दृढ़ता के साथ एनजेएसी के प्रस्ताव को यमलोक पहुँचा कर भारत को संविधान के ज़रिये हिटलरी तानाशाही की जकड़ से बचा लिया है । यह अकेला उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व इस प्रकार के भयानक ख़तरे की संभावना को समझने में पूरी तरह से विफल रहा है, वह भले दक्षिणपंथी हो या वामपंथी या मध्यपंथी । इनमें से कोई भी भारत में हिटलर के उदय के इस क़ानूनी रास्ते को नहीं देख पाया और सभी संसद की तथाकथित सार्वभौमिकता का राग अलापते रहें । भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी के ज़रिये सारी सत्ता को हड़प कर निरंकुश शासक बनने की वर्तमान सरकार की आतुरता को बिल्कुल सही पकड़ा और उस पर हमेशा के लिये विराम लगा दिया ।“


अब, तीन तलाक पर फैसले के दूसरे दिन ही, 24 अगस्त 2017 को सचमुच सुप्रीम कोर्ट ने फिर वह कर दिखाया, जो आरएसएस और मोदी के लिये किसी कहर से कम नहीं था । इसे कह सकते हैं — भारत में एक नई संवैधानिक क्रांति । भारतीय संविधान के इतिहास में लगता है अब तक का एक सबसे महत्वपूर्ण मील का पत्थर ; निजता के अधिकार पर सर्वसम्मत (9-0) फैसला । ऐसा निर्णय जिसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो कहना होगा कि अगर राजशाही के ज़माने में 1804 की नेपोलियन संहिता ने दुनिया में राज्य और नागरिक के अधिकारों के रूप को बदल डाला था तो आज भारत के सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला डिजिटल युग में सारी दुनिया में इन अधिकारों के पुनर्विन्यास का हेतु बनेगा ।

जाहिर है, हम जब यह कह रहे हैं, तब हमारे परिप्रेक्ष्य में परिस्थिति में किसी अन्य सामाजिक क्रांति-प्रतिक्रांति के प्रभाव शामिल नहीं है । वह एक नई परिस्थिति होगी, जब ढांचागत समायोजन की किसी चर्चा का ही कोई अर्थ ही नहीं होगा । लेकिन सभ्यता के वर्तमान चरण में अभी वह एक दूरस्थ बात है । भारत में मोदी की आक्रमकता में प्रतिक्रांति के सारे खतरे मौजूद है, और संभवतः इसीलिये यहां की जमीन से इस संवैधानिक क्रांति की फसल भी तैयार हुई है ।

बहरहाल, इधर मोदी सरकार ने आधार कार्ड से लेकर अपनी नाना योजनाओँ से भारत के नागरिकों को पूरी तरह से राज्य का गुलाम बना देने का जो जाल बुनना शुरू किया था, सुप्रीम कोर्ट ने एक झटके में उसे छिन्न-भिन्न कर दिया । येन केन प्रकारेण चुनाव जीत कर आई सरकार नागरिक के अधिकारों से ऊपर नहीं है, संविधान की रक्षा के लिये ज़िम्मेदार न्यायपालिका के लिये जनतंत्र और नागरिक की रक्षा जरूरी है — इस बात की सुप्रीम कोर्ट ने मकान की छत पर खड़े हो कर घोषणा की है। जिस सुप्रीम कोर्ट ने चंद महीनों पहले ही बहुत साफ सबूतों के होते मोदी पर जांच की मांग का संज्ञान लेने से इंकार कर दिया था, उसी ने उसके सारी सत्ता को हड़प लेने के और पूरे समाज को अपने इशारों पर नचाने के इरादों को रास्ते पर एक प्रकार की स्थायी बाधा पैदा कर दी । इसने एक बहुमतवादी समाज, कि कोई क्या पहनेगा, कोई क्या खायेगा इसे बहुमत के स्वघोषित प्रतिनिधि तय करेंगे की तरह की जघन्य और जंगली अवधारणा को भारत से दूर रखने का एक निर्णायक काम किया है ।

सच कहा जाए तो नाजुक स्थिति सिर्फ नागरिकों के अधिकारों के लिये ही नही हैं । आज सारी संवैधानिक संस्थाओं के लिये अस्तित्व का खतरा है । खुद न्यायपालिका के अस्तित्व पर सीधे प्रहार की कोशिश को वह कॉलेजियम के मामले में प्रत्यक्ष देख चुकी थी । इधर, नोटबंदी को मामले में मोदी ने रिजर्व बैंक की और भारत की मुद्रा नीति की जो दुर्गति कर रखी है, इसे भी सारी दुनिया देख रही है । सत्ता के शीर्ष पर बैठा एक तानाशाह, और बाकी सब कुछ, गले में पट्टा बांधे स्वामिभक्तों की भीड़ — हिटलर के अनुयायियों का यही सबसे बड़ा सपना होता है । निजता के अधिकार के मामले में मोदी की दलील थी कि चूंकि संविधान के मूलभूत अधिकार में निजता का अधिकार शामिल नहीं है, इसीलिये इसे संवैधानिक अधिकार नहीं माना जा सकता है । भारत सरकार के पूर्व एटर्नी जनरल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पूरी बेशर्मी से कहा था कि किसी भी नागरिक का अपने खुद के शरीर पर भी अधिकार नही है । और अभी के एटर्नी जनरल वेणुगोपाल ने और दो कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि 'जो लोग सरकारी खैरातों पर पलते है, उनकी निजता का कोई अधिकार नही हो सकता हैं । यह सिर्फ संपत्तिवानों की चोचलेबाजी है ।'

इस पर न्यायमूर्ति जे चेलमाश्वर ने अपनी राय में लिखा है कि संविधान के बारे में यह समझ बिल्कुल 'बचकानी और संवैधानिक व्याख्याओं के स्थापित मानदंडों के विपरीत है' ।...“नागरिकों के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रताओं के प्रति यह दृष्टिकोण हमारी जनता की सामूहिक बुद्धिमत्ता और संविधान सभा के सदस्यों के विवेक का अपमान है ।“


न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने कहा कि नागरिकों को उनके बारे में सिर्फ झूठी बातों से नहीं, बल्कि उनके बारे में 'कुछ सच्ची बातों' से भी अपने सम्मान की रक्षा करने का अधिकार है । “यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी के भी बारे में ज्यादा सही राय तभी कायम की जा सकती है जब उसके जीवन की निजी बातों को जान लिया जाता है — लोग हमें गलत ढंग से समझते हैं, वे हमें हड़बड़ी में समझते हैं, संदर्भ से हट कर समझते हैं, वे बिना पूरी कहानी सुने राय बनाते हैं और उनकी समझ में मिथ्याचार होता है ।... निजता लोगों को अपने बारे में इन परेशान करने वाली रायों से सुरक्षा देती है । इस बात का कोई तुक नहीं है कि सारी सच्ची सूचनाओं को सार्वजनिक किया जाए ।... कौन से प्रसिद्ध व्यक्ति का किसके साथ यौन संबंध है इसमें लोगों की दिलचस्पी हो सकती है, लेकिन इसका जन-हित से कोई मतलब नहीं है और इसीलिये वह बात निजता का हनन हो सकती है । इसीलिये वह सच्ची बात जो निजता का हनन करती है, उससे भी सुरक्षा की जरूरत है ।...प्रत्येक नागरिक को अपने खुद के जीवन पर नियंत्रण और दुनिया के सामने अपनी छवि को बनाने के लिये काम करने का अधिकार है और अपनी पहचान के व्यवसायिक प्रयोग का भी।“

न्यायमूर्ति कौल ने आगे और कहा कि “निजता का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है ; यह वह अधिकार है जो व्यक्ति के अंतरजगत में राज्य के और राज्य के बाहर के लोगों के हस्तक्षेप से उसे बचाता है और व्यक्ति को स्वायत्त हो कर जीवन में चयन की अनुमति देता है ।

“घर के अंदर की निजता में परिवार, शादी, प्रजनन, और यौनिक रुझान की सुरक्षा ये सब गरिमा के महत्वपूर्ण पहलू हैं ।“

सर्वोपरि, अपने अलावा अन्य चार जजों की ओर से भी लिखे गये न्यायमूर्ती डी वाई चंद्रचूड़ के फैसले ने इस विषय से जुड़े सभी अहम मुद्दों को समेटते हुए लिखा कि “ निजता का अधिकार मनुष्य के सम्मान-बोध का एक तत्व है । निजता की पवित्रता सम्मान के साथ जीवन से इसके कारगर संबंध में निहित है । निजता इस बात को सुनिश्चित करती है कि एक मनुष्य अपने मानवीय व्यक्तित्व के एकांत में बिना अवांछित हस्तक्षेप के सम्मान के साथ जी सकता है ।“

ट्रौल उद्योग के जरिये राजनीतिक लक्ष्यों को साधने की रणनीति बनाने वाले मोदी-शाह की तरह के राजनीतिज्ञों के मंसूबों पर सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से पानी फेरने का काम किया है । नागरिक की गरिमा को केंद्रीय महत्व की बात घोषित करके यह फैसला गोस्वामी की तरह के चरित्र-हननकारी पत्रकारों-ऐंकरों पर आगे अंकुश लगाने का रास्ता आसान करेगा । जो ट्रौल बेझिझक गंदी गालियाँ देते थे और बेधड़क घूमते थे, आने वाले समय में सोशल मीडिया या अख़बारों में इन गाली-गलौज करने वालों पर एफआईआर की तलवार लटकती रहेगी ।  स्वाती चतुर्वेदी ने अपनी किताब ‘I am a Troll’ में जिन ट्रौल उद्योगों की सिनाख्त की थी उनके ठिकानों पर क़ानूनी कार्रवाई की संभावना बनेगी ।

पश्चिमी देशों के कानून में चरित्र-हनन को हत्या से कम बड़ा अपराध नहीं माना जाता । आगे यहां भी ट्रौलिंग एक बड़ा फ़ौजदारी अपराध होगा । इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ट्रौल उद्योग और उस पर टिकी राजनीति की जड़ों में मट्ठा डालने का काम करेगा ।

इस महान फैसले पर प्रधानमंत्री की चट्टान की तरह की चुप्पी पर आज कोई भी सवाल करेगा कि निजता के अधिकार पर सुप्रीम के इस ऐतिहासिक फैसले पर बात-बात में ट्वीटर-प्रेमी प्रधानमंत्री ख़ामोश क्यों हैं ? और, भाजपा की चुप्पी क्या यह बताने के लिये काफी नहीं है कि वह पूरी नग्नता के साथ नागरिकों की निजता के हनन के पक्ष में है  !

इस नये घटना-क्रम की बहुत सी कमियों को पूरा कर दिया गुरमीत राम रहीम मामले में 'तोता' मान ली गई सीबीआई की अदालत ने । जिस शैतान के सामने 'हर विरोधी का पत्ता साफ कर दो' की तरह की माफियाई तर्ज पर काम करने वाले अमित शाह अपने नेतृत्व में हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर सहित पूरे मंत्रिमंडल को दंडवत करा आए थे, उस शैतान को सीबीआई की अदालत ने (शायद जीवन भर के लिये) जेल भेज दिया । आज सिर्फ डेरा वाले ही नहीं, आरएसएस की आत्मा के प्रवक्ता साक्षी महाराज जैसे भी यह मानते हैं कि उनके साथ धोखा हुआ है । सौदा यह हुआ था कि मुकदमे को हटा लिया जायेगा, क्योंकि ये सभी माने हुए थे कि मोदी की धौंस अब जिस जगह पहुंच गई है उससे पहले से ही सारे तोतों की सांसे फूली हुई है । एक मामूली स्वतंत्र उड़ान की भी उनमे ताकत नहीं है, इसीलिये उनको कुछ कहने की जरूरत नहीं है — 'बुद्धिमान को इशारा ही काफी होता है' ।

लेकिन नियति का तर्क देखिये कि डेरे के गुंडों की हिंसा के चरम रूप के सामने आने तक मौन बने रहे मोदी जी भी अब कह रहे हैं कि 'हिंसा को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा' । व्यवस्था इसी प्रकार अपने विरोधियों की भी नकेल कस देती है ।

इधर राजनीति के मोर्चे पर जब अमित शाह कांग्रेस के सारे कूड़े से भाजपा को कांग्रेस का कूड़ाघर बना कर अपनी अपराजेयता का ढिंढोरा पीट रहे थे, उसी समय एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देने, खुले आम विधायकों का भाव-तोल करके कुछ को खरीद लेने पर भी वे गुजरात से राज्य सभा में कांग्रेस के प्रत्याशी को जाने से रोक नहीं सके । और इस मामले में भी उनकी योजना को विफल बनाया उन्हीं के लाये हुए चुनाव आयुक्त ने, लेकिन वास्तव में एक और संवैधानिक संस्था ने ! कांग्रेस के दो दल-बदलू विधायकों के भ्रष्ट आचरण का संज्ञान ले कर उनके वोट को रद्द करने में उसने जरा भी संकोच नहीं किया ।

ये चाहते हैं बाबाओं के जरिये, गोरक्षक गुंडों के जरिये, तुगलकी आर्थिक नीतियों से जन-जीवन को अस्त-व्यस्त करके समाज के निकृष्टतम लोगों से व्यवस्था का एक पवित्र व्यूह तैयार करें और उसमें किसी सूरमा की तरह तानाशाह मोदी 2019 के चुनाव में सत्ता के शीर्ष पर बैठ जाए । इजारेदाराना पूंजीवाद में समाज के 'उद्धार' की सचमुच यह एक अनोखी प्रक्रिया है जिसमें सत्ता पर आसीन लोग जितने संकीर्ण और स्वार्थी होते जाते हैं, उसी अनुपात में समाज का 'उद्धार' होता जाता है । हमारे यहां जितनी नग्नता से खुद प्रधानमंत्री अंबानी, अडानी मात्र के हितों को जिस प्रकार साधते हैं, माना जाता है कि उसी अनुपात में समाज का उपकार हो रहा है ! इसमें स्वस्थ और जनतांत्रिक मूल्यों की छोटी से छोटी आवाज को देशद्रोह बता कर लांक्षित किया जाता है । और इसी उपक्रम में यह भी बार-बार देखने को मिलता है कि जिन बाबाओं, योगियों, धर्म के पंडों को, गली के लुच्चे-लफंगों को एक समग्र अराजकता पैदा करने के काम में नियोजित किया जाता है, एक समय के बाद उन्हें ही न सिर्फ लात मार कर धकियाया जाता है, बल्कि रात के अंधेरे में चारपाइयों से उठा कर जेल की काल कोठरियों में ठूस दिया जाता है । तब एक बार के लिये नौकरशाही, पुलिस और बाकी प्रशासन भी चंगा हो जाता है । डेरा सच्चा सौदा के अपराधियों को इस सचाई का स्वाद मिलने का समय आ गया था । उन्होंने जिस अमित शाह और उनके गुर्गे खट्टर को अपने शैतान गुरू का चेला मान रखा था, ऐसे चेले ही अब कभी उनकी गली में झांक कर भी नहीं देखेंगे । अपने पैदा किये गये ऐसे सभी तत्वों की पिसाई से ही तो आगे उनके चेहरे को चमकाने वाला लेप बनने वाला होता है !

बहरहाल, गोरखपुर में योगी की नाक तले आक्सीजन रोक कर की गई बच्चों की हत्या के बाद इनका मंत्री जब अगस्त के महीने के ऐसे शिशु-संहारक महात्म्य का बखूबी बखान कर रहा था तब हमें लगा कि वे शायद किसी प्राकृतिक दुर्योग की बात कर रहे हैं । लेकिन इस महीने के अंतिम हफ्ते में गूंगी नजर आती संवैधानिक संस्थाओं का एक साथ बोल उठना आने वाले दिनों की कुछ और ही कहानी के संकेत दे रहा है ।

भारत की संवैधानिक संस्थाएँ किसी बहुमत की सरकार की मुखापेक्षी न होकर अगर अपने दायित्वों को बेख़ौफ़ निभायें तो फासीवाद जरूर पराजित होगा । जीवन की परिस्थितियां कुछ भी क्यों न हो, व्यवस्था के ढांचे का अपना तर्क भी अंदर से कई संरचनाओं को बने रहने की शक्ति देता है ।

'निजता के अधिकार' पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है कि 'मौन निजता के एक दायरे को तैयार करता है ।' इस ऐतिहासिक फैसले पर आज तक की प्रधानमंत्री मोदी की अटूट चुप्पी से लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के इस कथन को उन्होंने पूरी आंतरिकता से ग्रहण किया है । और, मोदी की इस बेतार की चुप्पी ने पूरी भाजपा को तो गूँगा बना दिया है ! हमारी कामना है कि नागरिकों के गले में पट्टा लगाने की हसरत के कारण यह उनकी ज़ुबान पर किसी गहरी दुश्चिंता की वजह से मारा गया लकवा न हो, बल्कि मनन की गुहा में उतरने का उपक्रम हो ! यह हार्डवर्क वनाम हार्वर्ड की थोथी जुमलेबाजी से उनकी मुक्ति की साधना हो !

और भाजपा, जिसे गुमान है कि यह देश भारतवासियों का नहीं, उनकी निजी संपत्ति है, उसे समझ जाना चाहिए कि सच्चा जनतंत्र धार्मिक कट्टरपंथियों का कभी भी निजी क्षेत्र नहीं बन सकता । हर प्रकार के आशारामों, रामरहीमों की अंतिम और असली जगह जेल की सींखचों के पीछे ही होती है ।

आज सचमुच मोदी जी का 'मौन-मोहन सिंह' वाला जुमला बहुत याद आता है !

हैरोल्ड लास्की ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'राजनीति का व्याकरण' में लिखा था कि जनतंत्र में राज्य का संचालन विशेषज्ञों का काम है क्योंकि उसे उस जनता के हितों के लिये काम करना होता है जो अपने हितों के प्रति ही ज़्यादातर बेख़बर रहती है । ऐसे में सिर्फ वोट में जीतने से वास्तव में कोई प्रशासक नहीं हो जाता । ख़ास तौर पर जो लोग जनता के पिछड़ेपन का लाभ उठाने की राजनीति करते हैं, सत्ता पर आने के बाद वे जनता के जीवन में सुधार के नहीं, और ज्यादा तबाही के कारक बन जाते हैं । सचमुच, लास्की की इस बात को नकारात्मक स्तर से समझना हो तो हमारे यहां इसके क्लासिक उदाहरण हैं केंद्र की मोदी सरकार और यूपी की योगी सरकार ।

मोदी जी को जब और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने नोटबंदी की तरह का तुगलकी कदम उठा कर पूरी अर्थ-व्यवस्था को ही पटरी से उतार दिया । जनता के हितों के लिये काम करने के लिये बनी सरकार ने एक झटके में लाखों लोगों के रोजगार छीन लिये; किसानों के उत्पादों के दाम गिरा कर पूरी कृषि अर्थ-व्यवस्था को चौपट कर दिया । जीडीपी का आँकड़ा 2016-17 की चौथी तिमाह में गिरते हुए सिर्फ 6.1 प्रतिशत रह गया है ; औद्योगिक उत्पादन मई महीने में -0.01 प्रतिशत की दर से गिर कर इसमें वृद्धि की दर 1.7 प्रतिशत रह गई है। यहाँ तक कि बैंकों की भी, ख़ुद रिजर्व बैंक की हालत ख़राब कर दी । नोटबंदी के धक्के के कारण इस साल आरबीआई ने केंद्र सरकार को मात्र 30659 करोड़ रुपये का लाभ दिया है जो पिछले पाँच सालों में सबसे कम और पिछले साल की तुलना में आधा है । जाहिर है इस प्रकार खुद की बेवकूफियों से तैयार किये जा रहे वित्तीय घाटे से निपटने में ही आगे केंद्र सरकार डूबी रहेगी और इस समस्या की गाज तमाम जनहितकारी प्रकल्पों पर गिरेगी ।

इन्होने अर्थ-व्यवस्था को मुद्रा संकुचन के दौर में डाल दिया लगता है । पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था की जान है पूंजी को उसके आत्म-विस्तार के लिये यथेष्ट जगह देना । यदि पूंजी का विस्तार नहीं तो वह कोरी अस्थि होती है । मुद्रा संकुचन का व्यवहारिक अर्थ है कंपनियों के मुनाफ़े में तेज़ी से गिरावट और उनके ऋणों के वास्तविक मूल्य में वृद्धि । इसकी वजह से पहले से ही संकट में पड़ी बैंकों का एनपीए पहले के किसी भी समय की तुलना में और तेजी से बढ़ेगा ।

इनके निकम्मेपन और अव्यवस्था का आलम यह है कि गोरखपुर अस्पताल में आक्सीजन की आपूर्ति की समस्या को जानने के बावजूद मुख्यमंत्री योगी बच्चों की मृत्यु का कारण उनकी बीमारियों को बता रहा है, जबकि उनकी बीमारियों का एक जरूरी इलाज ही उन्हें अलग से आक्सीजन देना था। उन्होंने ख़ुद माना कि आक्सीजन के सप्लायर को उसका बक़ाया नहीं चुकाया गया था, फिर भी बच्चे और कुछ वयस्क भी, जो आक्सीजन पर थे, उनके अनुसार अपनी बीमारियों की वजह से मरे !

योगी की इन बेवक़ूफ़ी की बातों को क्या कहा जाए ? गनीमत है कि अभी तक उन्होंने अस्पताल पर किसी प्रेतात्मा के साये को ज़िम्मेदार नहीं बताया और यज्ञ-हवन के जरिये अस्पताल को उससे मुक्त करने का उपाय नहीं सुझाया ! लेकिन 'गाय, गोबर और गोमूत्र' के इस दौर में वे यदि ऐसे ही किसी भारी-भरकम यज्ञ-आयोजन में बैठ जाते तो किसी को आश्चर्य नहीं होता । जैसे केंद्र सरकार से लेकर भाजपा की तमाम सरकारें पर्यावरण से लेकर दूसरी कई समस्याओं के समाधान के लिये आज किसी न किसी 'नमामि' कार्यक्रम में लगी हुई है ।

कहना न होगा, मोदी के पास हर समस्या का एक ही समाधान है — प्रचार, प्रचार, प्रचार का शोर । वह भले स्वच्छ भारत का विषय हो या कोई और विषय हो । इन सरकारी आयोजनों में लाखों लोग शामिल होते हैं, बाबाओं के आश्रमों की तरह ही यहां भी नाचते-कूदते हैं । लेकिन यथार्थ में ऐसे सभी मनोरंजक कार्यक्रमों से राष्ट्र के निर्माण और जन-हितकारी प्रकल्पों के लिये धन में कटौती करनी पड़ती है ।


मोदी सरकार पहली सरकार है जिसने उच्च शिक्षा और शोध में खर्च को पहले से आधा कर दिया है । मनरेगा का भट्टा पहले से ही बैठा दिया गया है । किसानों के कर्ज-माफी के सवाल पर भी बहुत आगे बढ़ कर कुछ करने की इनकी हिम्मत जवाब देने लगी है । ऊपर से कूटनीतिक विफलताओं के चलते सीमाओं पर युद्ध की परिस्थति पूरे परिदृश्य को चिंताजनक बना दे रही है । इसीलिये आज हैराल्ड लास्की बहुत याद आते हैं - जनतंत्र में प्रशासन खुद में एक विशेषज्ञता का काम है । यह कोरे लफ्फाजों के वश का नहीं होता है ।

इस पूरे विश्लेषण को जरा गुजरात में हाल में राज्य सभा चुनाव की सीटों के चुनाव के वक्त के नाटक की पृष्ठभूमि में भी देखा जाए । वहां विधानसभा में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या को देखते हुए उसके उम्मीदवार अहमद पटेल की जीत ही लाज़िमी थी । जिस सीट को जीतने के लिये 47 विधायकों की ज़रूरत थी, कांग्रेस के पास 57 विधायक थे । फिर भी, मोदी-शाह ने अपनी अनैतिकताओं की पूरी ताकत झोंक कर इसे लाज़िमी और ग़ैर-लाज़िमी के बीच की सीधी टक्कर का रूप दे दिया । पूरी नंगई से विधायकों की खरीद-फ़रोख़्त में उतर गये और जनता के बीच पूरी ताकत के साथ एक ही बात फैलायी गई कि इसे ही 'संसदीय जनतंत्र' कहते है !

कांग्रेस ने कैसे अहमद पटेल की इस जीत को सुनिश्चित किया, एनसीपी और जेडीयू के एक-एक विधायक ने उसे कैसे बल दिया, इस कहानी को सब जानते हैं । मोदी-शाह के गुंडों, पुलिस और वाघेला की तरह के घुटे हुए दलबदलू सत्ता के दलालों की मार से बचने के लिये उनके विधायकों को गुजरात को छोड़ कर बैंगलोर तक जाना पड़ा । यह अमित शाह का वही खेल था जो वह अन्य राज्यों में कर रहा है । दूसरे दलों के जन-प्रतिनिधियों को दबाव में लाकर तोड़ने का काम, और इस प्रकार प्रकारांतर से पूरी भाजपा को एक प्रकार का कूड़ाघर बनाके पूरे संसदीय जनतंत्र को ही बदबूदार कूड़े में बदल देने का काम । वे सचेत रूप से जनता में यह संदेश देना चाहते हैं कि संसदीय जनतंत्र में अब जनता की कोई भूमिका नहीं बची है । जनता किसी भी दल के प्रतिनिधि को क्यों न चुने, सबको अंबानी-अडानी की धन शक्ति और मोदी-शाह की राज-शक्ति का गुलाम बन कर ही रहना होगा !


इस प्रकार वास्तव अर्थों में वे राज्य में अपनी सर्वशक्तिमत्ता को स्थापित करके, जन-प्रतिनिधियों को ग़ुलामों में बदल कर पूरी संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली को जनता की नज़रों में बिल्कुल लुंज-पुंज और निरर्थक बना दे रहे हैं । ढेर सारे जन-प्रतिनिधियों को सीबीआई, आयकर विभाग इत्यादि के दुरुपयोग से नाना मुक़दमों में फँसा कर उनकी संसदीय निरापदता को मज़ाक़ का विषय बना कर छोड़ दे रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि भ्रष्टाचार से लड़ाई का मतलब यही है कि विपक्ष के जन-प्रतिनिधियों की कोई हैसियत नहीं रहनी चाहिए । हम फिर से कहेंगे, जन-प्रतिनिधियों की साख को इस प्रकार सुचिंतित ढंग से गिराना पूरी संसदीय प्रणाली की साख को ही गिराने का एक ऐसा सुनियोजित काम है, जिसकी पृष्ठभूमि में मोदी-शाह-संघ की तिकड़ी अपनी हर प्रकार की असंवैधानिक, ग़ैर-कानूनी या माफ़िया वाली हरकतों को बिना किसी रोक-टोक के धड़ल्ले से चला सके ।

अभी जिस प्रकार मोदी जी के रुतबे को बढ़ाने का अभियान चल रहा है, उसी अनुपात में जनता के सभी व्यक्तिगत प्रतिनिधियों के सम्मान को घटाने की भी समानान्तर प्रक्रिया चल रही है । जिस हद तक जन प्रतिनिधि बौने होते जायेंगे, संसद की अवहेलना करने के लिये कुख्यात एक कोरे लफ़्फ़ाज़ प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व अधिक से अधिक विराट दिखाई देने लगेगा । हिटलर के आगमन की प्रतीक्षा में सालों से लाठियाँ भांज रहे आरएसएस के लोग अब उसी हद तक ढोल-मृदंग बजाते उसकी आरती की तैयारियों के लिये उन्मादित दिखाई देने लगे हैं । इनकी मदद के लिये 'सब चोर है, सब चोर है' का शोर मचाने वाले 'क्रांति वीरों' की एक गाल बजाऊ फ़ौज भी पहले से लगी हुई है । वे 2019 की तैयारी में ऐसे तमाम लोगों को अभी से डराने-धमकाने में लग गये हैं जिनमें स्वाधीनता का लेश मात्र भी बचा हुआ हो ताकि 2019 के तूफ़ान के साथ भारत में संसदीय जनतंत्र के पूरे तंबू को ही उखाड़ कर हवा में उड़ा दिया जाए ।

2019 के चुनाव में हर स्तर पर तमाम प्रकार की धाँधलियों के जरिये चुनाव को पूरी तरह से लूट लेने का मोदी-शाह कंपनी ने जो सपना देखना शुरू किया है, उत्तर प्रदेश की जीत के बाद बिहार में अपनी सरकार बनाने और भाजपा से बचे हुए बाकी सभी राज्यों में जनतंत्र के अपने यमदूतों को दौड़ाने का जो सिलसिला शुरू किया गया है, उसमें गुजरात की राज्य सभा की इस एक सीट को जीतने की कोशिश काफी तात्पर्यपूर्ण थी । वें कांग्रेस के उम्मीदवार की सौ फ़ीसदी निश्चित जीत को हार में बदल कर आम लोगों के बीच मोदी-शाह की अपराजेयता का एक ऐसा हौवा खड़ा करना चाहते थे ताकि आगे की उनकी और भी बड़ी-बड़ी जनतंत्र-विरोधी साज़िशों के विरुद्ध किसी प्रकार की कोई आवाज उठाने की कल्पना भी न कर सके और जनता भी इन षड़यंत्रकारियों को ही अपनी अंतिम नियति मान कर पूरी तरह से निस्तेज हो जाए ।

गुजरात में कांग्रेस दल की सक्रियता और अंतिम समय तक चुनाव आयोग के सामने भी उनकी दृढ़ता ने अमित शाह के इन मंसूबों पर काफी हद तक पानी फेरने का काम किया है । इसमें एनसीपी के एक सदस्य और जेडीयू के एक सदस्य ने भी उनका साथ दिया है । यह प्रतिरोध के एक नये संघर्ष के प्रारंभ का बिंदु साबित हो सकता है । जेडीयू के शरद यादव ने मोदी के दिये गये लालच को ठुकरा कर बिहार की सरज़मीन पर ही कौड़ियों के मोल बिकने वाले नीतीश कुमार को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है । इधर दूसरे ग़ैर-भाजपाई प्रमुख दलों ने भी भाजपा के खिलाफ संयुक्त अभियान में कांग्रेस के नेतृत्व में एक नये अभियान के साथ अपने को जोड़ने की प्रतिबद्धता का ऐलान किया है ।

गुजरात की इस पराजय का चंद महीनों बाद ही इस राज्य में होने वाले विधान सभा के चुनावों पर निश्चित तौर पर गहरा असर पड़ेगा । वहाँ वैसे ही जनता के बीच से भाजपा की ज़मीन खिसकने के सारे संकेत मिल रहे हैं । वे इसी जनता की चेतना को कमज़ोर करके और मोदी के चमत्कार को बढ़ा-चढ़ा कर बता कर जीतने के फेर में हैं । कांग्रेस के 43 विधायकों ने अपनी दृढ़ता का परिचय देकर इनके जहाज़ में इतना बड़ा सुराख़ पैदा कर दिया है कि आने वाले गुजरात चुनाव को पार करना भी इसके लिये कठिन होगा ।

कहना न होगा, यहीं से भाजपा के जहाज़ के डूबने का जो सिलसिला शुरू होगा, 2019 का आम चुनाव निश्चित तौर पर मोदी-शाह का वाटरलू साबित होगा । 8 अगस्त 2017 के 'टेलिग्राफ़' में अहमद पटेल की जीत की खबर की बहुत सही सुर्खी लगाई है - 'अमित शाह आया, देखा और फुस्स हो गया' (Amit Shah came, saw & flopped) ।

अगस्त के प्रथम हफ्ते और उसके अंतिम हफ्ते तक के महीने भर के राजनितिक, संवैधानिक और प्रशासनिक कदमों की यह समीक्षा मोदी शासन और उसकी राजनीति की एक समग्र तस्वीर पेश करती है । हासिल करने के नाम पर इन्होंने यह हासिल किया कि मालेगांव बम विस्फोट कांड के आतंकवादी प्रसाद श्रीकांत पुरोहित को, जिसे आरएसएस का आदमी बताया जाता है, ज़मानत पर छुड़वा लिया । उसकी ज़मानत के आवेदन को मंज़ूरी देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो राय दी है, उसमें भी इस बात का प्रकारांतर से बहुत ही साफ उल्लेख है । वह कहता है कि सेना के इस आतंकवादी कर्नल पुरोहित पर सन् 2008 में जो चार्ज लगाये गये थे, उन्हें 2015 में दूसरी केंद्रीय एजेंसी ने हल्का कर दिया है । मामले के इस पहलू की आगे जाँच की जानी चाहिए कि क्यों 2015  में उस पर अभियोगों को हल्का किया गया ? सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह अदालत पिछली दो चार्जशीट में से एक को सही और दूसरी को ग़लत नहीं मान सकती, इसीलिये आगे की जाँच से क्या सही है, क्या ग़लत, यह तय होगा और इसमें काफी समय भी लग सकता है । फिलहाल, चूँकि यह आतंकवादी पहले से आठ साल से जेल में है और इधर उस पर अभियोगों को हल्का कर दिया गया है,  इसीलिये समाज की सुरक्षा और व्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच एक संतुलन रखने के लिये उसे ज़मानत दी जा सकती है ।

यही है इस सरकार का वास्तविक मिशन कि आरएसएस से संबद्ध माने जाने वाले आतंकवादियों को रिहा किया जाए । इसकी वजह से इस मामले के सरकारी वक़ील रोहिणी सालियन पर इतना बेजा दबाव डाला गया था कि उसने यह कह कर अपने को इस काम से अलग कर लिया कि उस पर केंद्र की एक उच्चतर एजेंसी एनआईए) की ओर से भारी दबाव डाला जा रहा है ।

बहरहाल, यही महीना भारत की आजादी का महीना होने के नाते भारत के प्रधानमंत्री के लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करने का भी महीना होता है ।

'इकोनोमिस्ट' पत्रिका के 19 अगस्त 2017 के अंक का प्रमुख लेख था— 'ट्रंप और उग्र दक्षिणपंथ बेकार है ।' ट्रंप के सत्ता में आने के पहले उसे समर्थन देने वाले लोग कहते थे कि वह व्यापार की दुनिया का आदमी है, आयेगा तो राज्य की ज्यादतियों पर कुछ काबू करेगा । इसके अलावा वह अपने को सदा-सर्वदा सही मानने वाले वाम रुझान वाले कुलीन शासकों का मान-मर्दन भी करेगा । लेकिन 'इकोनोमिस्ट' अपने इस लेख में लिखता है कि इस 15 अगस्त के दिन ट्रंप के संवाददाता सम्मेलन के बाद ये सारी बातें और उनसे जुड़ी सारी उम्मीदें कूड़े के ढेर पर पड़ी हुई चीज दिखाई देने लगी है ।

15 अगस्त 2017 की ट्रंप की बकवास ने उसके बारे में सारी उम्मीदों को महज कचरा बना कर छोड़ दिया ! और देखिये, क्या संयोग है, इधर भारत में भी यही वह दिन था जिसने नरेन्द्र मोदी की समूची छवि को ऐसी जगह ले जाकर पटका है कि अब आगे उसे ऊपर लाना किसी असंभव काम जैसा ही होगा । सुवक्ता, सक्षम प्रशासक, स्वच्छ और निडर नेता की इनकी जो छवि नोटबंदी के तुगलकीपन से गिरनी शुरू हुई, वह अब अपने चरम पतन की खाई तक पहुंच गई है ।

लाल किले पर इस बार सिर्फ उनकी एयर इंडिया के महाराजा वाली सज-धज तो पूर्ववत थी, लेकिन पहले जादू की छड़ी घुमा कर कोरी बातों से भारत को, इसकी अर्थ-व्यवस्था को, गंगा और पूरी व्यवस्था को स्वच्छ बना देने की वे जो इतनी लंबी-चौड़ी हांका करते थे कि भाषण खत्म होने का नाम ही नहीं लेता था, वहीं तीन साल के अंदर ही अब उनके पास फर्जी आंकड़ों, झूठी हमदर्दियों और थोथे आश्वासनों के हकलाते हुए भाषण के अलावा कुछ नहीं रह गया है ।

अपने इस भाषण में खास तौर पर नोटबंदी को लेकर तो वे इस कदर झूठ पर झूठ बोलते चले गये कि पूरा देश सन्न रह गया । एक ओर रिजर्व बैंक तो बैंको में जमा हुई राशि की कभी न खत्म होने वाली गिनती, पुराने नोटों को नये नोट में बदलने और बैंकों में अचानक बरस पड़ी नगदी को संभालने, और उस पर ब्याज गिन कर देने में अब तक तीस हजार करोड़ रुपये फूंक चुका है, लेकिन मोदी ने अपने मन में ही सारे नोटों की गिनती करके बता दिया कि तीन लाख करोड़ रुपये बैंकों के पास अतिरिक्त आये हैं । और तो और, सीबीडीटी वालों से बिना जानकारी लिये उन्होंने नये आयकर रिटर्न भरने वालों की संख्या और काला धन पकड़ने के भी झूठे आंकड़ें उगल दिये ।

रही-सही कसर एशोसियेशन फौर डेमोक्रेटिक रिफार्म वालों ने पूरी कर दी । उन्होंने तथ्य देकर यह बताया है कि पिछले तीन सालों में बड़े घरानों ने भाजपा को 705.81 करोड़ रु. चंदा दिया, जो सभी दलों को चंदे का 89 प्रतिशत है । इसके अलावा, गत तीन साल में ऐसे स्रोतों से, जिनका न अता-पता है, न पैन कार्ड, सबसे अधिक 159.59 करोड़ का चंदा सिर्फ एक पार्टी भाजपा को मिला है । एनडीटीवी ने पिछले दस साल के आंकड़ों का विश्लेषण करके यह भी साबित किया है कि आयकर विभाग ने इस साल कोई अतिरिक्त काला धन नहीं पकड़ा है । हर साल ही अपनी सामान्य कार्रवाइयों के जरिये आयकर विभाग जितने काले धन की सिनाख्त करता रहा है, इस साल उसमें कोई बढ़ोतरी नहीं हुई हैं ।

अर्थात पिछले तीन साल में मोदी सरकार ने सिर्फ एक ही काम किया, वह है — भ्रष्टाचार । अपने चहेते लोगों को सरकारी धन लुटाते रहे और बदले में उनसे बेहिसाब पैसे वसूल करते रहे । 'न खाऊंगा न खाने दूंगा' का नारा गया तेल लेने । आज भाजपा जितने नग्न तरीके से रुपयों का खेल खेल रही है, उसकी पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था । जैसा कि पहले ही बता चुके हैं, चुनाव में जनता किसे भी वोट क्यों न दे, अमित शाह ने जनता की राय को अपने धन की ताकत पर बदल देने का इस बीच एक अनोखा जादू दुनिया को दिखाया है ।

आज की सचाई यह है कि साहब का यह प्यादा वास्तव में एक 'सुपर पीएम' की हैसियत का हो गया है । इधर देखने को मिलता है कि भाजपा के नेताओं ने विभिन्न अखबारों में अमित शाह की भूरी- भूरी प्रशंसा में लेखों की जो झड़ी लगा दी है, और उसे नरेन्द्र मोदी के लगभग समकक्ष बताया है, उसके बाद उन्हें 'सुपर पीएम' न मानने का कोई कारण नहीं रहता । 'टाइम्स आफ इंडिया' में भाजपा के महासचिव विनय सहस्त्रबुद्धे ने शाह की सिर्फ तीन साल की उपलब्धियों को गिनाते हुए उन्हें 'इतिहास में अतुलनीय' घोषित कर दिया है, तो भाजपा का कब्ज से पीड़ित मुद्रा में रहने वाले प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने 'इंडियन एक्सप्रेस' में उन्हें मोदी की तरह ही अथक रूप से काम करने वाला बेचारा, एक गरीब परिवार का बेटा भी बताया है । इसी 17 अगस्त को अमित शाह ने कई केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों सहित अपने कुछ नेताओं के साथ अभी से 2019 के चुनाव की रणनीति की चर्चा की है । और सबसे मजे की बात यह है कि उस बैठक में उन्होंने करीब सात केंद्रीय मंत्रियों को उनके इस अभियान में लग जाने का निर्देश दिया है ।

पहले से ही पूरी तरह नालायक साबित हो रही एक सरकार के कई मंत्री जब प्रधानमंत्री के आदेश पर नहीं, अमित शाह के आदेशों पर काम करेंगे, तो समझा जा सकता है, यह सरकार आगे और किस रसातल में जाने वाली है ! इससे यह भी पता चलता है कि मोदी-अमित शाह कंपनी ने अब कोई भी चुनाव अपने कामों या उपलब्धियों के आधार पर लड़ने की कल्पना भी करना बंद कर दिया है । और मोदी जी के सबसे बड़े राजदार के अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण की प्रक्रिया के अपने जो बड़े खतरे हैं, वे तो अलग है ही । दो परम महत्वाकांक्षी व्यक्तियों का दो सत्ता-केंद्रों के रूप में उभरना आगे क्या-क्या गुल खिलायेगा, इसका अनुमान तक लगाना मुश्किल है ।

बढ़ती हुई रेल दुर्घटनाएं भी इस सरकार की एक और खास उपलब्घि रही है, वह भी इसी महीने में रेल दुर्धटनाओं की श्रृंखला से सबसे प्रगट रूप में जाहिर हुआ है । रेल बजट को केंद्रीय बजट में मिला कर मोदी ने रेलवे पर अपने और जेटली के दोहरे निकम्मेपन को लाद दिया है ।

'इकोनोमिस्ट' पत्रिका ने जिस प्रकार ट्रंप को, और उसकी विचारधारा को पूरी तरह से नालायक घोषित किया है, उसी तरह मोदी-शाह कंपनी को भी क्या भारत के हितों की दृष्टि से पूरी तरह से बेकार घोषित करने का समय नहीं आ गया है ? ये, और इनके थोथे संघी विचार भारत के किसी काम के नहीं हैं, क्या आज इस बात को निर्द्वंद्व भाव से कहने की जरूरत नहीं है ?

भाजपा के पत्रकार स्वप्न दासगुप्त ने 24 अगस्त के 'टेलिग्राफ़' में साफ लिखा है, भाजपा की आगे की यात्रा शिष्टतापूर्ण (decorous) नहीं होगी, अशिष्ट होगी । भाजपा प्रतिशोध के रास्ते पर चलेगी ।"The phoney war now seems over. With Banerjee choosing to become the standard bearer of the Opposition assault on Modi, it is more likely that BJP will retaliate...There is no reason to believe the clash will be decorous."

देखना यही है कि इनकी यह 'अशिष्टता' आगे क्या रूप लेती है ।









सोमवार, 25 सितंबर 2017

सौभाग्य' किसका ? ग़रीबों का या पश्चिमी साम्राज्यवादियों का !



-अरुण माहेश्वरी 

मोदी ने ग़रीबों को मुफ्त बिजली देने का एक नया धोखा रचा है 'सौभाग्य' नाम की इस योजना को रखते वक़्त उन्होंने अपनी सरकार के ग़रीब-प्रेम की लफ्फाजी में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी भारत में बिजली की अवस्था का जानकार हर व्यक्ति जानता है कि यह सरासर एक धोखा है इसमें धोखे की इंतिहा तो तब और साफ हो गई जब मोदी ने बिजली होने पर सबको सोलर पावर की सुविधा उपलब्ध कराने की बात कही  

मोदी-जेटली के ग़रीब-प्रेम के धोखे की सचाई को आज अंधा आदमी भी देख सकता है बिजली को छोड़िये, यह तो एक चुनावी शोशा है, इनकी असलियत जाननी है तो जरा गहराई से देखिये, इन्होंने जीएसटी में सबसे ज्यादा निशाना किन चीज़ों को बनाया है

रोटी, कपड़ा और मकान को उन चीज़ों को जिनके बिना आदमी जी नहीं सकता है  

भारत के इतिहास में पहली बार अनाज पर कर लगाया गया है अंग्रेज़ों ने नमक पर कर लगाया था, उसके प्रतिवाद में पूरा देश उठ खड़ा हुआ था गांधी जी ने दांडी मार्च और प्रतीकी तौर पर नमक का उत्पादन करके अंग्रेज़ों के उस कर को खुली चुनौती दी थी मोदी-जेटली ने खाने-पीने की तमाम चीजों पर कर लगा कर उससे कम बड़ा अपराध नहीं किया है इस मामले में ये अंग्रेज़ों के भी बाप निकले हैं  

इसी प्रकार, कपड़े के व्यापार पर भी जीएसटी के रूप में पहली बार कोई कर लगा है बीच में एक बार तैयारशुदा कपड़ों पर पिछली एनडीए सरकार ने उत्पाद-शुल्क लगाया था जिसे उसे बाद में वापस लेना पड़ा था  

इन्हीं कारणों से जीएसटी के खिलाफ देश भर के अनाज और कपड़ा व्यापारी लगातार आवाज उठा रहे हैं यह कर भारत के प्रत्येक आदमी से वसूला जायेगा, भले वह अमीर हो या ग़रीब  

इसी प्रकार मकान का भी विषय है रीयल इस्टेट के नाम से बदनाम इस क्षेत्र का बोझ भी हर आदमी पर पड़ेगा  

और सर्वोपरि, तेल और रसोई गैस के दामों में मनमानी वृद्धि इसके बारे में अलग से कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है

ये वे बुनियादी कारण है जिनके कारण भारी मंदी में फँस चुकी अर्थ-व्यवस्था में भी महँगाई अर्थात मुद्र-स्फीति की बीमारी भी दिखाई दे रही है  

इनके विपरीत, इस सरकार ने लग्ज़री की चीज़ों पर कर कम किया है

जीवन की मूलभूत ज़रूरतों की चीज़ों से अधिकतम कर वसूली की नीति पर चलने वाली एक सरकार अपने को ग़रीब-हितैषी बताए, इससे बड़ा ढकोसला और क्या हो सकता है

इन करों से ही यह भी पता चलता है कि मोदी सरकार ने अर्थ-व्यवस्था का जो भट्टा बैठाया है, उसके सारे बोझ को वह भारत के ग़रीबों पर लाद दे रही है  

मोदी की नोटबंदी के कारण जीडीपी में लगातार गिरावट से सामान्य अार्थिक गतिविधियों से कर वसूलने की इनकी क्षमता बुरी तरह से कम होती जा रही है अब वे सीधे ग़रीबों पर डाका डाल कर इसकी कमी को पूरा कर रहे हैं  

और, सबसे मजे की बात यह है कि इनके सारे भक्त इस प्रकार ग़रीब जनता से वसूले गये राजस्व को मोदी-जेटली जुगल जोड़ी की आर्थिक नीतियों की सफलता बता रहे हैं

जिस बिबेक देबराय ने नोटबंदी के समय कहा था कि इससे 2 लाख करोड़ रुपये वापस नहीं आयेंगे और कालाधन पर कर से अतिरिक्त 50 हज़ार करोड़ का आयकर वसूला जा सकेगा, ऐसा गप्पबाज अर्थशास्त्री अब प्रधानमंत्री का प्रमुख आर्थिक सलाहकार बन गया है  

कोई भी अनुमान लगा सकता है, आगे और क्या-क्या होने वाला है  

अभी विश्व अर्थ-व्यवस्था का वह काल चल रहा है जब 'पहले अमेरिकाका नारा दे रहा डोनाल्ड ट्रंप हर संभव कोशिश करेगा कि वह अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था में निवेश को बढ़वाये इसके लिये वह अपने यहाँ ब्याज की दरों को बढ़ायेगा जो वहाँ अभी लगभग शून्य के स्तर पर चल रही है अमेरिका में ब्याज की दरों में वृद्धि भारत से विदेशी पूँजी के पलायन का रास्ता खोलेगी, जिसके बल पर मोदी सरकार अभी तक किसी तरह अपना काम चला पा रही है  

देबराय घोषित रूप से विदेशी पूँजी का भक्त अर्थशास्त्री होने के नाते वह मोदी को ऐसी हर सलाह देगा जिससे भारत की तमाम संपत्तियाँ, इसके कल-कारख़ाने, खदान और कच्चा माल विदेशियों के हाथों बिक जाए भारत के तेज़ी से गिर रहे जीडीपी को अब बढ़ाना किसी के वश का नहीं रह गया है, जब तक नोटबंदी के कुप्रभावों के साथ ही जीएसटी की अराजकता और तेल पर ज्यादा से ज्यादा कर के जरिये सरकार के चालू वित्तीय घाटे को पूरा करने की परिस्थिति ख़त्म नहीं होती है  

इसीलिये देबराय हो या दूसरा कोई आर्थिक सलाहकार, मोदी ने जो अराजकता पैदा कर रखी है, उसे बिना विदेशी पूँजी की सहायता के सम्हालना किसी के लिये मुमकिन नहीं होगा  

और, सबसे अधिक दुर्भाग्य की बात यह है कि मोदी के राजनीतिक डीएनए में विदेशियों को अपना सब कुछ लुटा देने की नीति के प्रतिरोध की कोई क्षमता नहीं है वे भले सभी पर राष्ट्र-विरोधी होने का तक्मा लगाते रहे, लेकिन सचाई यही है कि आरएसएस और उनकी राजनीति का जन्म ही विदेशी शासकों की दलाली के बीच से हुआ है  

और, इस प्रकार आने वाला समय अर्थ-व्यवस्था में ऐसे असंतुलन का समय होगा जब भारत की आर्थिक सार्वभौमिकता पूरी तरह से दाव पर लगी हुई दिखाई देगी मोदी जी अटकन पहन कर पश्चिम के नेताओं से जितनी ज्यादा गलबहिया करते दिखाई देंगे, भारत पर उतनी ही ज्यादा उनकी जकड़बंदी बढ़ती जायेगी देबराय इस काम में जरूर मोदी के सहयोगी बनेंगे  

सच कहा जाए तो मोदी आज भारत में पश्चिमी साम्राज्यवादियों के दूत का काम कर रहे हैं और ये अपने को ग़रीब-हितैषी बता रहे है